राग दरबारी

जानेमाने साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल की रचना "राग-दरबारी" समकालीन साहित्य में एक मील का पत्थर है जिसके लिये उन्हें 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला।

Sunday, November 19, 2006

6. बाबू रामधीन भीखमखेड़वी

शहर से देहात को जानेवाली सड़क पर एक साइकिल-रिक्शा चला जा रहा था। रिक्शावाला रंगीन बनियान, हाफपैण्ट, लम्बे बाल, दुबले पतले जिस्मवाला नौजवान था। उसका पसीने से लथपथ चेहरा देखकर वेदना का फोटोग्राफ़ नही,बल्कि वेदना का कार्टून आँख के आगे आ जाता था।

रिक्शे पर अपनी दोनों जाँघो पर हाथों की मुट्ठियाँ जमाये हुए बद्री पहलवान बैठे थे। रिक्शे पर उनके पैरों के पास एक सन्दूक रखा हुआ था। दोनो पैर सन्दूक के सिरों पर जमाकर स्थापित कर दिये गये थे। इस तरह पैर टूटकर रिक्शे के नीचे भले ही गिर जाएं, सन्दूक के नीचे गिरने का कोई खतरा न था।

सन्ध्या का बेमतलब सुहावना समय था। पहलवान का गाँव अभी तीन मील दूर होगा। उन्होने शेर की तरह मुँह खोलकर जम्हाई ली और उसी लपेट मे कहा,"इस साल फ़सल कमजोर जा रही है।"

रिक्शावाला कृषि-विज्ञान और अर्थशास्त्र पर गोष्ठी करने के मूड मे न था। वह चुपचाप रिक्शा चलाता रहा। पहलवान ने अब उससे साफ़-साफ़ पूछा, "किस जिले के हो? तुम्हारे उधर फसल की क्या हालत है?"

रिक्शेवाले ने सिर को पीछे नही मोड़ा । आँख पर आती बालों की लट को गरदन की लोचदार झटक के साथ मत्थे के ऊपर फेंककर उसने कहा, "फ़सल ?" हम दिहाती नही है ठाकुर साहब, खास शहर के रहने वाले है ।"इसके बाद वह कूल्हे मटका-मटकाकर जोर से रिक्शा चलाने लगा। आगे जाने वाले एक दूसरे रिक्शे को देखकर उसने घन्टी बजायी।

पहलवान ने दूसरी जम्हाई ली और फ़सल की ओर फिर से ताकना शुरु कर दिया । रिक्शावाला सवारी की यह बेरुखी़ देखकर उलझन मे पड़ गया। रंग जमाने के लिए उसने आगे वाले रिक्शेवाले को ललकारा,"अबे ओ बाँगड़ू! चल बाँयी तरफ़ !"

आगे का रिक्शावाला बाँयी तरफ़ हो लिया। पहलवान का रिक्शा उसके पास से आगे निकल गया। निकलते निकलते इस रिक्शेवाले ने बांयी ओर के रिक्शावाले से पूछा, "क्यों, गोंडा का रहनेवाला है या बहराइच का?"

वह रिक्शेवाला एक आदमी को कुछ गठरियों और एक गठरीनुमा बीबी के साथ लादकर धीरे-धीरे चल रहा था। इस भाईचारे से खुश होकर बोला "गोंडा मे रहते है भैया! "

शहरी रिक्शेवाले ने मुँह से सिनेमावाली सीटी बजाकर और आँखे फैलाकर कहा, "वही तो ।"

पहलवान ने इसे भी अनसुना कर दिया। सांस खींचकर कहा, "जरा इश्पीड बढाये रहो मास्टर! "

रिक्शावाला सीट पर उचक-उचककर रफ़्तार बढाने और साथ ही भाषण देने लगा: "ये गोंडा-बहराइच और इधर-उधर के रिक्शावाले आकर यहाँ का चलन बिगाड़ते है । दांये-बांये की तमीज नही । इनसे ज्यादा समझदार तो भूसा-गाड़ियों के बैल होते है । बिल्कुल हूश है । अंग्रेजी बाजारों मे बिरहा गाते निकलते है । मोची तक को रिक्शे पर बैठाकर उसे हुजूर, सरकार कहते है । कोई पूछ दे कि माल एवेन्यू का फ्रैम्पटन स्क्वयेर चलो तो दाँत निकाल देते है । इनके बाप ने भी कभी इन जगहों का नाम सुना हो तो -!"

पहलवान ने सिर हिलाया। कहा, "ठीक कहते हो मास्टर! उधर वाले बड़े दलिद्दर होते है । सत्तू खाते है और चना चबाकर रिक्शा चलाते है । चार साल मे बीमारी घेर लेती है तो घिघयाने लगते है ।"

रिक्शेवाले ने हिकारत से कहा,"चमड़ी चली जाय पर दमड़ी न जाए, बड़े मक्खीचूस होते है। पारसाल लू मे एक साला रिक्शा चलाते-चलाते सड़क पर ही टें बोल गया। देह पर बनियान न थी, पर टेंट से बाईस रुपये निकले।"

पहलवान ने सिर हिलाकर कहा, "लू बड़ी खराब चीज होती है । जब चल रही हो तो घर से निकलना न चाहिए। खा-पीकर, दरवाजा बन्द करके पड़े रहना चाहिए।"

बात बड़ी मौलिक थी। रिक्शेवाले ने हेकड़ी से कहा, "मै तो यही करता हूँ। गर्मियों में बस शाम को सनीमी के टैम गाड़ी निकालता हूँ। पर ये साले दिहाती रिक्शावाले! इनकी न पूछिए ठाकुर साहब साले जान पर खेल जाते है । चवन्नी के पीछे मुँह से फेना गिराते हुए दोपहर को भी मीलों चक्कर काटते है । इक्के का घोड़ा भी उस वक्त पेड़ का साया नही छोड़ता, पर ये स्साले... ।"

मारे हिकारत के रिक्शेवाले का मुँह थूक से भर गया और गला रुँध गया। उसने थूककर बात खत्म कीं, "साले जरा-सी गर्म हवा लगे ही सड़क पर लेट जाते है । "

पहलवान की दिलचस्पी इस बातचीत मे खत्म हो गयी थी। वे चुप रहे। रिक्शावाले ने रिक्शा धीमा किया और बोला, "सिगरेट पी ली जाय ।"

पहलवान उतर पड़े और रिक्शे पर जोर देकर एक ओर खड़े हो गये। रिक्शेवाले ने सिगरेट सुलगा ली। कुछ देर वह चुपचाप सिगरेट पीता रहा, फिर मुँह से धुँए के गोल-गोल छल्ले छोड़कर बोला, "उधर के दिहाती रिक्शावाले दिन-रात बीड़ी फूँक-फूँककर दाँत खराब करते रहते है । "

अब तक पीछे का रिक्शावाला भी आ गया। फटी धोती और नंगा बदन । वह कौंख-कौंखकर रिक्शा खींच रहा था । शहरी रिक्शेवाले को देखकर भाईचारे के साथ बोला, "भैया, तुम भी गोंडा के हो क्या?" सिगरेट फूँकते हुए इस रिक्शेवाले ने नाक सिकोड़कर कहा, "अबे, परे हट! क्या बकता है? "

वह रिक्शेवाला खिर्र-खिर्र करता हुआ आगे निकल गया।
सच तो यह है कि दुख मनुष्य को पहले फींचता है, फिर फींचकर निचोड़ता है, फिर निचोड़कर उसके चेहरे को घुग्घू-जैसा बनाकर उस पर दो-चार काली-सफेद लकीरें खींच देता है । फिर उसे सड़क पर लम्बे-लम्बे डगों से टहलने के लिए छोड़ देता है ।

आज के भावुकतापूर्ण कथाकारों ने न जाने किससे सीखकर बार-बार कहा है कि दुख मनुष्य को माँजता है । बात कुल इतनी नही है, सच तो यह है कि दुख मनुष्य को पहले फींचता है, फिर फींचकर निचोड़ता है, फिर निचोड़कर उसके चेहरे को घुग्घू-जैसा बनाकर उस पर दो-चार काली-सफेद लकीरें खींच देता है । फिर उसे सड़क पर लम्बे-लम्बे डगों से टहलने के लिए छोड़ देता है । दुख इन्सान के साथ यही करता है और उसने गोंडा के रिक्शावाले के साथ भी यही किया था । पर शहरी रिक्शावाले पर इसका कोई असर नही हुआ । सिगरेट फेंककर उसकी ओर बिना कोई ध्यान दिये उसने अपना रिक्शा तेज़ी से आगे बढाया । दूसरा भाषण शुरु हुआ :

"अपना उसूल तो यह है ठाकुर साहब, कि चोखा काम, चोखा दाम । आठ आने कहकर सात आने पर तोड़ नही करते । जो कह दिया सो कह दिया । एक बार एक साहब मेरी पीठ पर बैठे-बैठे घर के हाल-चाल पूछने लगे। बोले, सरकार ने तुम्हारी हालत खराब कर रखी है । रिक्शे पर रोक नही लगाती। कितनी बुरी बात है कि आदमी पर आदमी चढता है । मैने कहा, तो मत चढो । वे कहने लगे, मै तो इसलिए चढता हूँ कि लोग अगर रिक्शे का बायकाट कर दें तो रिक्शेवाले तो भूखों मर जाएंगे । उसके बाद वे फिर रिक्शावालों के नाम पर रोते रहे । बहुत रोये । रोते जाते थे और सरकार को गाली देते जाते थे। कहते जाते थे कि तुम यूनियन बनाओ, मोटर रिक्शा की माँग करो। न जाने क्या-क्या बकते जाते थे। मगर ठाकुर साहब, हमने भी कहा कि बेटा, झाड़े रहो । चाहे कितना रोओ हमारे लिए, किराए की अठन्नी मे एक पाई कम नही करूंगा।"

पहलवाने ने आँखे बन्द कर ली थी। जम्हाई लेकर बोले, "कुछ सिनेमा का गाना-वाना भी गाते हो कि बातें झलते रहोगे?"

रिक्शेवाले ने कहा, "यहाँ तो ठाकुर साहब दो ही बातें है, रोज़ सिनेमा देखना और फटाफट सिगरेट पीना। गाना भी सुना देता, पर इस वक्त गला खराब है ।"

पहलवान हँसे, "तब फिर क्या? शहर का नाम डुबोये हो।"

रिक्शावाला इस अपमान को शालीनता के साथ हज़म कर गया। फिर कुछ सोचकर उसने धीरे-से "लारी लप्पा, लारी लप्पा' की धुन निकालनी शुरु की। पहलवान ने उधर ध्यान नही दिया । उसने सवारी की तबियत को गिरा देखकर फिर बात शुरु की, " हमारे भाई भी रिक्शा चलाते है, पर सिर्फ़ खास-खास मुहल्लों मे सवारियाँ ढोते है । एक सुलतानपुरी रिक्शेवाले को उन्होने दो-चार दाँव सिखाये तो वह रोने लगा। बोला, जान ले लो पर धरम न लो । हम इस काम के लिए सवारी न लादेंगे । हमने कहा कि भैया बन्द करो, गधे को दुलकी चलाकर घोड़ा न बनाओ ।"

शिवपालगंज नज़दीक आ रहा था। उन्होने रिक्शेवाले को सनद-जैसी देते हुए कहा, "तुम आदमी बहुत ठीक हो। सबको मुँह न लगाना चाहिए । तुम्हारा तरीका पक्का है ।" फिर वे कुछ सोचकर बोले, "पर तुम्हारी तन्दुरुस्ती कुछ ढीली-ढाली है । कुछ महीने डण्ड-बैठक लगा डालो। फिर देखो क्या होता है।
अब पहलवानी मे क्या रखा है? लड़ाई मे जब ऊपर से बम गिरता है तो नीचे बड़े बड़े पहलवान ढेर हो जाते है । हाथ मे तमंचा हो तो पहलवान हुए तो क्या, और न हुए तो क्या?"
"उससे क्या होगा?" रिक्शावाले ने कहा, "मै भी पहलवान हो जाऊंगा। पर अब पहलवानी मे क्या रखा है? लड़ाई मे जब ऊपर से बम गिरता है तो नीचे बड़े बड़े पहलवान ढेर हो जाते है । हाथ मे तमंचा हो तो पहलवान हुए तो क्या, और न हुए तो क्या?" कुछ रुककर रिक्शावाले ने इत्मीनान से कहा, " पहलवानी तो अब दिहात मे ही चलती है ठाकुर साहब! हमारे उधर तो अब छुरेबाज़ी का ज़ोर है ।"

इतनी देर बाद बद्री पहलवान को अचानक अपमान की अनूभूति हुई। हाथ बढकर उन्होने रिक्शावाले की बनियान चुटकी से पकड़कर खींची और कहा, "अबे, घन्टे-भर से यह 'ठाकुर साहब', 'ठाकुर साहब' क्या लगा रखा है! जानता नही, मै बाँभन हूँ!"

यह सुनकर रिक्शावाला पहले तो चौंका, पर बाद मे उसने सर्वोदयी भाव ग्रहण कर लिया । "कोई बाद नही पण्डितजी, कोई बात नही ।" कहकर वह सड़क के किनारे प्रकृति की शोभा निहारने लगा।

रामाधीन का पूरा नाम बाबू रामधीन भीखमखेड़वी था । भीखमखेड़वी शिवपालगंज से मिला हुआ एक गाँव था, जो अब 'यूनानो-मिस्त्र-रोमाँ' की तरह जहान से मिट चुका था। यानी वह मिटा नही था, सिर्फ़ शिवपालगंजवाले बेवकूफी के मारे उसे मिटा हुआ समझते थे। भीखमखेड़ा आज भी कुछ झोपड़ों मे माल-विभाग के कागज़ात मे और बाबू रामाधीन की पुरानी शायरी मे सुरक्षित था।

बचपन मे बाबू रामाधीन भीखमखेड़ा गाँव से निकलकर रेल की पटरी पकड़े हुए शहर तक पहुँचे थे, वहाँ से किसी भी ट्रेन मे बैठने की योजना बनाकर वे बिना किसी योजना के कलकत्ते मे पहुँच गये थे। कलकत्ते मे उन्होने पहले एक व्यापारी के यहाँ चिट्ठी ले जाने का काम किया, फिर माल ले जाने का, बाद मे उन्होने उसके साझे मे कारोबार करना शुरु कर दिया । अन्त मे वे पूरे कारोबार के मालिक हो गये।

कारोबार अफ़ीम का था। कच्ची अफ़ीम पच्छिम से आती थी, उसे कई ढंगो से कलकत्ते मे ही बड़े व्यापारियों के यहाँ पहुँचाने की आढत उनके ही हाथ मे थी। वहाँ से देश के बाहर भेजने का काम भी वे हाथ मे ले सकते थे, पर वे महत्वाकांक्षी न थे, अपनी आढ़त का काम वे चुपचाप करते थे और बचे समय मे पच्छिम के जिलों से आने वाले लोगो की सोहबत कर लेते थे । वहाँ वे अपने क्षेत्र के आदमियों मे काफी मशहूर थे; लोग उनकी अशिक्षा की तारीफ करते थे और उनका नाम लेकर समझाने की कोशिश करते थे कि अकबर आदि अशिक्षित बादशाहों ने किस ख़ूबी से हुकूमत चलायी होगी।

अफीम के कारोबार मे अच्छा पैसा आता था और दूसरे व्यापारियों से इसमे ज्यादा स्पर्धा भी नही रखनी पड़ती थी। इस व्यापार मे सिर्फ़ एक छोटी-सी यही खराबी थी कि यह कानून के खिलाफ़ पड़ता था। इसका ज़िक्र आने पर बाबू रामाधीन अपने दोस्तों मे कहते थे, "इस बारे मे मै क्या कर सकता हूँ? कानून मुझसे पूछकर तो बनाया नही गया था। "

जब बाबू रामाधीन अफ़ीम कानून के अन्तर्गत गिरफ़्तार होकर मजिस्ट्रेट के सामने पेश हुए तो वहाँ भी उन्होने यही रवैया अपनाया। उन्होने अंग्रेजी कानून की निन्दा करते हुए महात्मा गाँधी का हवाला दिया और यह बताने की कोशिश की कि विदेशी कानून मनमाने ढंग से बनाये गये है और हर एक छोटी सी बात को ज़ुर्म का नाम दे दिया गया है । उन्होने कहा, "जनाब, अफ़ीम एक पौधे से पैदा होती है । पौधा उगता है तो उसमे खूबसूरत से सफेद फूल निकलते है । अंग्रेजी मे उसे पॉपी कहते है । उसी की एक दूसरी किस्म भी होती है जिसमे लाल फूल निकलते है । उसे साहब लोग बँगले पर लगाते है । उस फूल की एक तीसरी किस्म भी होती है जिसे डबुल पॉपी कहते है । हजूर, ये सब फूल-पत्तों की बातें है, इनसे जुर्म का क्या सरोकार? उसी सफ़ेद फूलवाले पॉपी के पौधे से बाद मे यह काली-काली चीज निकलती है । यह दवा के काम आती है, इसका कारोबार जुर्म नही हो सकता। जिस कानून मे यह ज़ुर्म बताया गया है, वह काला कानून है । वह हमे बरबाद करने के लिए बनाया गया है ।"
सजा तो उस जमाने मे हो ही जाती थी, असली चीज सज़ा के पहले इजलास मे दिया जाने वाला लैक्चर था। बाबू रामाधीन को मालूम था कि इस तरह लेक्चर देकर सैकड़ो लोग क्रांतिकारियों से लेकर अहिंसावादियों तक शहीद हो चुके है और उन्हे यकीन था कि इस लेक्चर से उन्हे भी शहीद बनने मे आसानी होगी।
इस लेक्चर के बावजूद बाबू रामाधीन को दो साल की सजा हो गयी। पर सजा तो उस जमाने मे हो ही जाती थी, असली चीज सज़ा के पहले इजलास मे दिया जाने वाला लैक्चर था। बाबू रामाधीन को मालूम था कि इस तरह लेक्चर देकर सैकड़ो लोग क्रांतिकारियों से लेकर अहिंसावादियों तक शहीद हो चुके है और उन्हे यकीन था कि इस लेक्चर से उन्हे भी शहीद बनने मे आसानी होगी। पर सज़ा भुगतकर आने के बाद उन्हे पता चला कि शहीद होने के लिए उन्हे अफीम-कानून नही, नमक-कानून तोड़ना चाहिए था। कुछ दिन कलकत्ते मे घूम-फिरकर उन्होने देख लिया कि वे बाजार मे उखड़ चुके है, अफसोस मे उन्होने एकाध शेर कहे और इस बार टिकट लेकर वे अपने गाँव वापस लौट आये। आकर वे शिवपालगंज मे बस गये।

उन्होने लोगों को इतना तक सच बता दिया कि उनकी आढत की दुकान बन्द हो गयी है । इससे आगे बताने की जरुरत न थी। उन्होने एक छोटा सा कच्चा पक्का मकान बनवा लिया, कुछ खेत लेकर किसानी शुरु कर दी, गाँव के लड़को को कौड़ी की जगह ताश से जुआ खेलना सिखा दिया और दरवाजे पर पड़े पड़े कलकत्ता प्रवास के किस्से सुनाने मे दक्षता प्राप्त कर ली। तभी गाँव-पंचायते बनी और कलकते की करामात के सहारे उन्होने अपने एक चचेरे भाई को सभापति भी बनवा दिया। शुरु मे लोगो को पता ही न था कि सभापति होता क्या है, इसलिए उनके भाई को इस पद के लिए चुनाव तक नही लड़ना पड़ा। कुछ दिनो बाद लोगों ओ पता चल गया कि गाँव मे दो सभापति है जिनमे बाबू रामाधीन गाँव-सभा की जमीन का पट्टा देने लिए है और उनका चचेरा भाई, जरुरत पड़े तो ग़बन के मुकदमे मे जेल जाने के लिए है ।

बाबू रामाधीन का एक जमाने तक गाँव मे बड़ा दौर-दौरा रहा। उनके मकान के सामने एक छप्पर का बँगला पड़ा था जिसमे गाँव के नौजवान जुआ खेलते थे, एक ओर भंग की ताजी पत्ती घुटती थी । वातावरण बड़ा काव्यपूर्ण था। उन्होने गाँव मे पहली बार कैना, नैस्टशिर्यम, लार्कस्पर आदि अंग्रेजी फूल लगाये थे। इनमे लाल रंग के कुछ फूल थे, जिसने बारे वे कभी-कभी कहते थे, "यह पॉपी है और यह साला डबल पॉपी है ।"

भीमखेड़वी के नाम से ही प्रकट था कि वे शायर भी होंगे। अब तो वे नही थे, पर कलकत्ता के अच्छे दिनो मे वे एकाध बार शायर हो गये थे।

उर्दू कवियों की सबसे बड़ी विशेषता उनका मातृभूमि-प्रेम है । इसलिए बम्बई और कलकत्ता मे भी वे अपने गाँव या कस्बे का नाम अपने नाम के पीछे बाँधे रहते है और उसे खटखटा नही समझते। अपने को गोंडवी, सलोनवी और अमरोहवी कहकर वे कलकत्ता-बम्बई के कूप-मण्डूक लोगों को इशारे से समझाते है कि सारी दुनिया तुम्हारे शहर ही मे सीमित नही है। जहाँ बम्बई है, वहाँ गोंडा भी है।
जिसे अपने को बम्बई मे 'संडीलवी' कहते हुए शरम नही आती, वहीं कुरता-पायजामा पहनकर और मुँह मे चार पान और चार लिटर थूक भरकर न्यूयार्क के फुटपाथों पर अपने देश की सभ्यता का झण्डा खड़ा कर सकता है ।
एक प्रकार से यह बहुत अच्छी बात है, क्योंकि जन्मभूमि के प्रेम से ही देश-प्रेम पैदा होता है । जिसे अपने को बम्बई मे 'संडीलवी' कहते हुए शरम नही आती, वहीं कुरता-पायजामा पहनकर और मुँह मे चार पान और चार लिटर थूक भरकर न्यूयार्क के फुटपाथों पर अपने देश की सभ्यता का झण्डा खड़ा कर सकता है । जो कलकत्ता मे अपने को बाराबंकवी कहते हुए हिचकता है, वह यकीनन विलायत मे अपने को हिन्दुस्तानी कहते हुए हिचकेगा।

इसी सिद्धान्त के अनुसार रामाधीन कलकत्ता मे अपने दोस्तो के बीच बाबू रामाधीन भीखमखेड़वी के नाम से मशहूर हो गये थे।

यह सब दानिश टाँडवी की सोहबत मे हुआ था। वे टाँडवी की देखा-देखी उर्दू कविता मे दिलचस्पी लेने लगे और चूँकि कविता मे दिलचस्पी लेने की शुरुवात कविता लिखने से होती है, इसलिए दूसरों के देखते-देखते हुन्होने एक दिन एक शेर लिख डाला। जब उसे टाँडवी साहब ने सुना तो, जैसा कि एक शायर को दूसरे शायर के लिए कहना चाहिए, कहा, "अच्छा शेर कहा है ।"

रामाधीन ने कहा, " मैने तो शेर लिखा है, कहा नही है ।"

वे बोले, "गलत बात है । शेर लिखा नही जा सकता । "

"पर मै तो लिख चुका हूँ।"

" नही, तुमने शेर कहा है । शेर कहा जाता है । यही मुहाविरा है ।" उन्होने रामाधीन को शेर कहने की कुछ आवश्यक तरकीबे समझायी। उनमे एक यह थी कि शायरी मुहाविरे के हिसाब से होती है, मुहाविरा शायरी के हिसाब से नही होता। दूसरी बात शायर के उपनाम की थी। टाँडवी ने उन्हे सुझाया कि तुम अपना उपनाम ईमान शिवपालगंजी रखो। पर ईमान से तो उन्हे यह एतराज था कि उन्हे इसका मतलब नही मालूम; 'शिवपालगंजी' इसलिए ख़ारिज हुआ कि उनके असली गाँव का नाम भीखमखेड़ा था और उपनाम से ही उन्हे इसलिए ऐतराज हुआ कि अफ़ीम के कारोबार मे उनके कई उपनाम चलते थे और उन्हे कोई नया उपनाम पालने का शौंक न था। परिणाम यह हुआ कि वे शायरी के क्षेत्र मे बाबू रामाधीन भीखमखेड़वी बनकर रह गये।

'कलूटी लड़कियाँ हर शाम मुझको छेड़ जाती है । " - इस मिसरे से शुरु होने वाली एक कविता उन्होने अफ़ीम की डिबियों पर लिखी थी।

पर शायरी की बात सिर्फ़ दानिश टाँडवी की सोहबत तक रही। जेल जाने पर उनसे आशा की जाती थी कि दूसरे महान साहित्यकारों और कवियों की तरह अपने जेल-जीवन के दिनो मे वे अपनी कोई महान कलाकृति रचेंगे और बाद मे एक लम्बी भूमिका के साथ उसे जनता को पेश करेंगे; पर वे दो साल जेल के खाने की शिकायत और कैदियों से हँसी-मजाक करने, वार्डरो की गालियाँ सुनने और भविष्य के सपने देखने मे बीत गये।

शिवपालगंज मे आकर गँजहा लोगो के सामने अपनी वरिष्टता दिखाने के लिए उन्होने फिर से अपने नाम के साथ भीखमखेड़वी का खटखटा बाँधा। बाद मे जब बिना किसी कारण के, सिर्फ़ गाँव की या पूरे भारत की सभ्यता के असर से वे गुटबन्दी के शिकार हो गये, तो उन्होने एकाध शेर लिखकर यह भी साबित किया कि भीखमखेड़वी सिर्फ़ भूगोल का ही नही, कविता का भी शब्द है ।

कुछ दिन हुए, बद्री पहलवान ने शिवपालगंज से दस मील आगे एक दूसरे गाँव मे आटाचक्की की मशीन लगायी थी। चक्की ठाठ से चली और वैद्यजी के विरोधियों ने कहना शुरु कर दिया कि उसका सम्बंध कॉलिज के बजट से है । इस जन-भावना को रामाधनी ने अपनी इस अमर कविता द्वारा प्रकट किया था :


क्या करिशमा है कि ऐ रामाधीन भीखमखेड़वी,
खोलने कॉलिज चले, आटे की चक्की खुल गयी!


गाँव के बाहर बद्री पहलवान का किसी ने रिक्शा रोका। कुछ अँधेरा हो गया था और रोकने वाले का चेहरा दूर से साफ नही दिख रहा था। बद्री पहलवान ने कहा, "कौन है बे?"

" अबे-तबे न करो पहलवान! मै रामाधीन हूँ।" कहता हुआ एक आदमी रिक्शे के पास आकर खड़ा हो गया। रिक्शेवाले ने एकदम से बीच सड़क पर रिक्शा रोक दिया। आदमी धोती-कुर्ता पहने था। पर धुँधलके मे दूसरे आदमियों के मुकाबले उसे पहचानना हो तो धोती-कुरते से नही, उसके घुटे हुए सिर से पहचाना जाता। रिक्शे का हैंडिल पकडकर वह बोला, " मेरे घर मे डाका पड़ने जा रहा है, सुना?"

पहलवान ने रिक्शेवाले की पीठ मे एक अँगुली कोंचकर उसे आगे बढने का इशारा किया और कहा, "तो अभी से क्यों टिलाँ-टिलाँ लगाये हो? जब डाका पड़ने लगे तब मुझे बुला लेना।"

रिक्शेवाले ने पैडिल पर जोर दिया, पर रामाधीन ने उसका हैंडिल इस तरह पकड़कर रखा था कि उसके इस ज़ोर ने उस ज़ोर को काट दिया। रिक्शा अपनी जगह रहा। बद्री पहलवान ने भुनभुनाकर कहा, "मै सोच रहा था कि कौन आफत आ गयी जो सड़क पर रिक्शा पकड़कर रांड़ की तरह रोने लगे।"

रामाधीन बोले, "रो नही रहा है । शिकायत कर रहा हूँ। वैद्यजी के घर मे तुम्हीं एक आदमी हो, बाकी तो सब पन्साखा है । इसलिए तुमसे कह रहा हूँ। एक चिट्ठी आयी है, जिसमे डकैतो ने मुझसे पाँच हज़ार रुपया माँगा है । कहा है कि अमावस की रात को दक्खिनवाले टीले पर दे जाओ....."

बद्री पहलवान ने अपनी जाँघ पर हाथ मारकर कहा, "मन हो तो दे आओ, न मन हो तो एक कौड़ी भी देने की ज़रुरत नहीं। इससे ज्यादा क्या कहें। चलो रिक्शेवाले!"

घर नजदीक है, बाहर पिसी हुई भंग तैयार होगी, पीकर, नहा-धोकर, कमर मे बढिया लँगोट कसकर, ऊपर से एक कुरता झाड़कर, बैठक मे हुमसकर बैठा जायेगा लोग पूछेंगे, पहलवान, क्या कर आये? वे आँखे बन्द करके दूसरों के सवाल सुनेंगे, दूसरों को ही जवाब देने देंगे। देह की ताकत और भंग के घुमाव मे सारे संसार की आवाजें मच्छरो की भन्नाहट-सी जान पड़ेंगी।

सपनो मे डूबते-उतरते हुए बद्री को इस वक़्त सड़क पर रोका जाना बहुत खला। उन्होने रिक्शेवाले को डपट कर दोबारा कहा, "तुमसे कह रहा हूँ, चलो।"

पर वह चलता कैसे? रामाधीन का हाथ अब भी रिक्शे के हैण्डिल पर था। उन्होने कहा, "रुपये की बात नही। मुझसे कोई क्या खाकर रुपया लेगा? मै तो तुमसे बस इतना कहना चाहता था कि रुप्पन को हटक दो। अपने को कुछ ज्यादा समझने लगे है । नीचे-नीचे चलें, आसमान की.....।"

बद्री पहलवान अपनी जाँघों पर जोर लगाकर रिक्शे से नीचे उतर पड़े। रामाधीन को पकड़कर रिक्शेवाले से कुछ दूर ले गये और बोले, "क्यों अपनी ज़बान खराब करने जा रहे हो? क्या किया रुप्पन ने?"

रामाधीन ने कहा, "मेरे घर यह डाकेवाली चिट्ठी रुप्पन ने ही भिजवायी है । मेरे पास इसका सबूत है ।"

पहलवान भुनभुनाये, "दो-चार दिन के लिए बाहर निकलना मुश्किल है । इधर मै गया, इधर यह चोंचला खड़ा हो गया। " कुछ सोचकर बोले, "तुम्हारे पास सबूत है तो फिर घबराने की क्या बात?" रामाधीन को अभय-दान देते हुए उन्होने जोर देकर कहा, " तो फिर तुम्हारे यहाँ डाका-वाका न पड़ेगा। जाओ, चैन से सोओ। रुप्पन डाका नही डालते, लौण्डे है, मसखरी की होगी।"

रामाधीन कुछ तीखेपन से बोले, "सो तो मै भी जानता हूँ-रुप्पन ने मसखरी की है । पर यह मसखरी भी कोई मसखरी है ।"

बद्री पहलवान ने सहमति प्रकट की। कहा, "तुम ठीक कहते हो। टुकाची ढंग की मसखरी है ।"

सड़क पर एक ट्रक तेजी से आ रहा था। उसकी रोशनी मे आँख झिलमिलाते हुए बद्री ने रिक्शेवाले से कहा, रिक्शा किनारे करो। सड़क तुम्हारे बाप की नही है ।"

रामाधीन बद्री के स्वभाव को जानते थे। इस तरह की बात सुनकर बोले, "नाराज़ होने की बात नही है पहलवान! पर सोचो, यह भी कोई बात हुई।"

वे रिक्शे की तरफ बढ आये थे। बैठते हुए बोले, "जब डाका ही नही पड़ना है तो क्या बहस! चलो रिक्शेवाले।" चलते-चलते उन्होने कहा "रुप्पन को समझा दूँगा। यह बात ठीक नही है ।"

रामाधीन ने पीछे से आवाज ऊँची करके कहा, "उसने मेरे यहाँ डाका पड़ने की चिट्ठी भेजी है । इस पर सिर्फ़ समझाओगे? यह समझाने की नही, जुतिआने की बात है ।"

रिक्शा चल दिया था। पहलवान ने बिना सिर घुमाये जवाब दिया, "बहुत बुरा लगा हो तो तुम भी मेरे यहाँ वैसी ही चिट्ठी भिजवा देना।"

लेखक:श्रीलाल शुक्ल
टंकण सहयोग: जीतेन्द्र चौधरी


अध्याय:1 । 2 । 3 ।4 ।5 । 6 । 7 ।8 । 9। 10 । 11 । 12 । 13

Thursday, November 16, 2006

5.ये गँजहो के चोंचले हैं

पुनर्जन्म के सिद्धांत की ईजाद दीवानी की अदालतों में हुई है, ताकि वादी और प्रतिवादी इस अफ़सोस को लेकर मर सकते हैं कि मुक़दमे का फ़ैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म तो पड़ा ही है।


पुनर्जन्म के सिद्धांत की ईजाद दीवानी की अदालतों में हुई है, ताकि वादी और प्रतिवादी इस अफ़सोस को लेकर मर सकते हैं कि मुक़दमे का फ़ैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म तो पड़ा ही है ।

वैद्यजी की बैठक के बाहर चबूतरे पर जो आदमी इस समय बैठा था, उसने लगभग सात साल पहले दीवानी का एक मुक़दमा दायर किया था; इसलिए स्वाभाविक था कि वह अपनी बात में पूर्वजन्म के पाप, भाग्य, भगवान, अगले जन्म के कार्यक्रम आदि का नियमित रूप से हवला देता ।

उसको लोग लंगड़ कहते थे। माथे पर कबीरपंथि तिलक, गले में तुलसी की कण्ठी, आँधी-पानी झेला हुआ दढ़ियल चहेरा, दुबली-पतली देह, मिर्ज़ई पहने हुए। एक पैर धुटने के पास से कटा था, जिसकी कमी एक लाठी से पूरी की गयी थी। चेहरे पर पुराने ज़माने के उन ईसाई संतो का भाव, जो रोज़ अपने हाथ से अपनी पीठ पर खींचकर सौ कोड़े मारते हों।

उसकी ओर सनीचर ने भंग का गिलास बढ़ाया और कहा,”लो भाई लंगड़, पी जाओ। इसमें बड़े-बड़े माल पड़े हैं।“

लंगड़ ने आँखें मूँदकर इनकार किया और थोड़ी देर दोनों में बहस होती रही जिसका सम्बन्ध भंग की गरिमा, बादाम-मुनक्के के लाभ, जीवन की क्षण-भंगुरता, भोग और त्याग-जैसे दार्शनिक विषयों से था। बहस के अंत में सनीचर ने अपना दूसरा हाथ अण्डरवियर में पोंछकर सभी तर्कों से छुटकारा पा लिया और सांसारिक विषयों के प्रति उदासीनता दिखाते हुए भुनभुनाकर कहा,”पीना हो तो सटाक से गटक जाओ, न पीना हो तो हमारे ठेंगे से!”

लंगड़ ने जोर से साँस खींची और आँखें मूँद लीं, जोकि आत्म-दया से पीड़ीत व्यक्तियों से लेकर ज़्यादा खा जानेवालों तक में भाव-प्रदर्शन की एक बड़ी ही लोकप्रिय मुद्रा मानी जाती है। सनीचर ने उसे छोड़ दिया और एक ऐसी बन्दर-छाप छलाँग लगाकर, जो डार्विन के विकासवादी सिद्धांत की पुष्टि करती थी, बैठक के भीतरी हिस्से पर हमला किया। वहाँ प्रिंसिपल साहब, क्लर्क, वैद्यजी, रंगनाथ आदि बैठे हुए थे। दिन के दस बजने वाले थे।

सनीचर ने भंग का गिलास अब प्रिंसिपल साहब की ओर बढ़ाया और वही बात कही,”पी जाइए मास्टर साहब, इसमें बड़े-बड़े माल हैं।“

प्रिंसिपल साहब ने वैद्यजी से कहा,”कॉलिज का काम छोड़कर आया हूँ। इसे शामके लिए रखा जाये।“

वैद्यजी ने स्नेहपूर्वक कहा,”सन्ध्याकाल पुनः पी लीजिएगा।“

”कॉलिज छोड़कर आया हूँ......।“ वे फिर बोले।
बुश्शर्ट, जो उनकी फ़िलासफी के अनुसार मैली होने के बावजूद, क़ीमती होने के कारण पहनी जा सकती थी।

रूप्पन बाबू कॉलिज जाने के लिए घर से तैयार होकर निकले। रोज़ की तरह कन्धे पर पड़ा हुआ धोती का छोर। बुश्शर्ट, जो उनकी फ़िलासफी के अनुसार मैली होने के बावजूद, क़ीमती होने के कारण पहनी जा सकती थी। इस समय पान खा लिया था और बाल संवार लिये थे। हाथ में एक मोटी-सी किताब, जो ख़ासतौर से नागरिकशास्त्र के घंटे में पड़ी जाती थी और जिसका नाम ‘जेबी जासूस’ था। जेब में दो फ़ाउण्टनपेन, एक लाल और एक नीली स्याही का, दोनों बिना स्याही के। कलाई में घड़ी, जो सिद्ध करती थी कि जो जुआ खेलता है उसकी घड़ी तक रेहन हो जाती है और जो जुआड़ियों का माल रेहन रखता है उसे क़ीमती घड़ी दस रूपये तक में मिल जाती है।

रूप्पनबाबू ने प्रिंसिपल साहब की बात बाहर निकलते-निकल्ते सुन ली थी; वे वहीं से बोले,”कॉलिज को तो आप हमेशा ही छोड़े रहते है। वह तो कॉलिज ही है जो आपको नहीं छोड़ता।“

प्रिंसिपल साहब झेंपे, इसलिए हँसे और ज़ोर से बोले,”रूप्पन बाबू बात पक्की कहते हैं।“

सनीचर ने उछलकर उनकी कलाई पकड़ ली। किलककर कहा, “तो लीजिए इसी बात पर च्ढ़ा जाइए एक गिलास।“

वैद्यजी संतोष से प्रिंसिपल का भंग पीना देखते रहे। पीकर प्रिंसिपल साहब बोले,”सचमुच ही बड़े-बड़े माल पड़े हैं।“

वैद्यजी ने कहा, “भंग तो नाममात्र को है। है, और नहीं भी है। वास्तविक द्रव्य तो बादाम, मुनक्का और पिस्ता हैं। बादाम बुद्धि और वीर्य को बढ़ाता है। मुनक्का रेचक है। इसमें इलायची भी पड़ी है। इसका प्रभाव शीतल है। इससे वीर्य फटता नहीं, ठोस और स्थिर रहता है। मैं तो इसे पेय क एक छोटा-सा प्रयोग रंगनाथ पर भी कर रहा हूँ।“

प्रिंसिपल साहब ने गरदन उठाकर कुछ पूछना चाहा, पर वे पहले ही कह चले, “इन्हे कुछ दिन हुए, ज्वर रहने लगा था। शक्ति क्षीण हो चली थी। इसीलिए मैंने इन्हे यहाँ बुला लिया है। दो पत्ती भंग की भी। देखना है, छः मास के पश्चात जब ये यहाँ से जायेंगे तो क्या हो कर जाते हैं।“

कॉलिज के क्लर्क ने कहा,”छछूँदर-जैसे आये थे, गैण्डा बनकर जायेंगे। देख लेना चाचा।“

जब कभी क्लर्क वैद्यजी को ‘चचा’ कहता था, प्रिंसिपल साहब को अफसोस होता था कि वे उन्हे अपना बाप नहीं कह पाते।

जब कभी क्लर्क वैद्यजी को ‘चचा’ कहता था, प्रिंसिपल साहब को अफसोस होता था कि वे उन्हे अपना बाप नहीं कह पाते। उनका चेहरा उदास हो गया। वे सामने पड़ी हुई फ़ाइलें उलटने लगे।

तब तक लंगड़ दरवाजे पर आ गया। शास्त्रों में शूद्रों के लिए जिस आचरण का विधान है, उसके अनुसार चौखट पर मुर्गी बनकर उसने वैद्यजी को प्रणाम किया। इससे प्रकट हुआ कि हमारे यहाँ आज भी शास्त्र सर्वोपरी है और जाति-प्रथा मिटाने की सारी कोशिशें अगर फ़रेब नहीं हैं तो रोमाण्टिक कार्रवाइयाँ हैं। लंगड़ भीख-जैसी माँगते हुए कहा,”तो जाता हूँ बापू!”

वैद्यजी ने कहा, “जाओ भाई, तुम धर्म की लड़ाई लड़ रहे हो, लड़ते जाओ। उसमें मैं क्या सहायता कर सकता हूँ!”

लंगड़ ने स्वाभाविक ढंग से कहा,”ठीक ही है बापू! ऐसी लड़ाई में तुम क्या करोगे? जब कोई सिफ़ारिश-विफ़ारिश की बात होगी, तब आकर तुम्हारी चौखट पर सिर रगड़ूँगा।“

ज़मीन तक झुककर उसने उन्हे फिर से प्रणाम किया और एक पैर पर लाठी के सहारे झूलता हुआ चला गया। वैद्यजी ज़ोर से हँसे। बोले,”इसकी भी बुद्धि बालको की-सी है।“
हँसते ही वैद्यजी का चेहरा मुलायम हो गया, नेतागीरी की जगह भलमनसाहत ने ले ली। एक आचारवान महापुरूष की जगह वे बदचलन-जैसे दिखने लगे।

वे बहुत कम हँसते थे। रंगनाथ ने चौंक कर देखा, हँसते ही वैद्यजी का चेहरा मुलायम हो गया, नेतागीरी की जगह भलमनसाहत ने ले ली। एक आचारवान महापुरूष की जगह वे बदचलन-जैसे दिखने लगे।

रंगनाथ ने पूछा, “यह लड़ाई कैसी लड़ रहा है?”

प्रिंसिपल साहब समने फैली हुई फ़ाइलें और चेक-बुकें, जिसकी आड़ में वे कभी-कभी यहाँ सवेरे-सवेरे भंग पीने के लिए आते थे, समेटने लगे थे। हाथ रोककर बोले, “इसे तहसील से एक दस्तावेज़ की नकल लेनी है। इसने क़सम खायी है कि मैं रिश्वत न दूँगा और क़ायदे से ही नक़ल लूँगा, उधर नक़ल बाबू ने कसम खायी है कि रिश्वत लूँगा और क़ायदे से ही नक़ल दूँगा। इसी की लड़ाई चल रही है।“

रंगनाथ ने इतिहास में एम.ए. किया था और न जाने कितनी लड़ाइयों के कारण पढ़े थे। सिकन्दर ने भारत पर कब्ज़ा करने के लिए आक्रमण किया था; पुरू ने, उसका कब्ज़ा न होने पाये, इसलिए प्रेतिरोध किया था। इसी कारण लड़ाई हुई थी। अलाउद्दीन ने कहा था कि मैं पद्मिनी को लूँगा, राणा ने कहा कि मैं पद्मिनी को नहीं दूँगा। इसलिए लड़ाई हुई थी। सभे लड़ाईयों की जड़ में यही बात थी। एक पक्ष कहता था, लूँगा; दूसरा कहता था, नहीं दूँगा। इसी पर लड़ाई होती थी।

पर यहाँ लंगड कहता था, धरम से नक़ल लूँगा। बाबू कहता था, धरम से नक़ल दूँगा। फिर भी लड़ाई चल रही थी।

रंगनाथ ने प्रिंसिपल साहब से इस ऐतिह्हासिक विपर्यय का मतलब पूछा। उसके जवाब में उन्होने अवधी में एक कहावत कही, जिसका शाब्दिक अर्थ था : हाथी आते हैं, घोड़े जाते हैं, बेचारे ऊँट गोते खाते हैं। यह कहावत शायद किसी ज़िन्दा अजायबघर पर कही गये थी, पर रंगनाथ इतना तो समझ ही गया कि इशारा किसी सरकरी दफ़्तर की लम्बई, चौड़ाई और गहराई की ओर है। फिर भी वह लंगड़ और नक़ल बाबू के बीच चलनेवाले धर्मयुद्ध की डिज़ाइन नहीं समझ पाया। उसने अपना सवाल और स्पष्ट रूप से प्रिंसिपल साहब के सामने पेश किया।

उनकी ओर से क्लर्क बोला-”ये गँजहो के चोंचले हैं। मुश्किल से समझ में आते हैं।...

”लंगड़ यहाँ से पाँच कोस दूर एक गाँव का रहनेवाला है। बीवी मर चुकी है। लड़को से यह नाराज़ है और उन्हे अपने लिए मरा हुआ समझ चुका है। भगत आदमी है। कबीर और दादू के भजन गाया करता था। गाते-गाते थक गया तो बैठे-ठाले एक दीवानी का मुक़दमा दायर कर बैठा।"

”मुकदमे के लिए एक पुराने फ़ैसले की नक़ल चाहिए। उसके लिए पहले तहसील में दरख्वास्त दी थी। दरख्वास्त में कुछ कमी रह गयी, इसलिए वह ख़ारिज हो गयी। इस पर इसने दूसरी दरख्वास्त दी। कुछ दिन हुए, यह तहसील में नक़ल लेने गया। नकलनवीस चिड़ीमार निकला, उसने पाँच रूपये माँगे। लंगड़ बोला कि रेट दो रूपये का है। इसी पर बहस हो गयी। दो-चार वकील खड़े थे; उन्होने पहले नकलनवीस से कहा कि, भाई दो रूपये मे ही मान जाओ, यह बेचारा लंगड़ा है। नक़ल लेकर तुम्हारे गुण गायेगा। पर वह अपनी बात से बाल-बराबर भी नहीं खिसका। एकदम से मर्द बन गया और बोला कि मर्द की बात एक होती है। जो कह दिया, वही लूँगा।"
तनख्वाह तो दारू-कलिया पर खर्च करते हैं और लड़कियाँ ब्याहने के लिए घूस लेते हैं।

”तब वकीलों ने लंगड़ को समझाया। बोले कि नक़ल बाबू भी घर-गिरिस्तीदार आदमी है। लड़कियाँ ब्याहनी हैं। इसलिए रेट बढ़ा दिया है। मान जाओ और पाँच रूपये दे दो। पर वह भी ऐंठ गया। बोला कि अब यही होता है। तनख्वाह तो दारू-कलिया पर खर्च करते हैं और लड़कियाँ ब्याहने के लिए घूस लेते हैं। नक़ल बाबू बिगड़ गया। गुर्राकर बोला कि जाओ, हम इसी बात पर घूस नहीं लेंगे। जो कुछ करना होगा क़ायदे से करेंगे। वकीलों ने बहुत समझाया कि ‘ऐसी बात न करो, लंगड़ भगत आदमी है, उसकी बात का बुरा न मानो,’ पर उसका गुस्सा एक बार चढ़ा तो फिर नहीं उतरा।"

”सच तो यह है रंगनाथ बाबू कि लंगड़ ने गलत नहीं कहा था। इस देश में लड़कियाँ ब्याहना भी चोरी करने का बहाना हो गया है। एक रिश्वत लेता है तो दूसरा कहता है कि क्या करे बेचारा! बड़ा खानदान है, लड़कियाँ ब्याहनी हैं। सारी बदमाशी का तोड़ लड़कियों के ब्याह पर होता है।
इस देश में लड़कियाँ ब्याहना भी चोरी करने का बहाना हो गया है। एक रिश्वत लेता है तो दूसरा कहता है कि क्या करे बेचारा! बड़ा खानदान है, लड़कियाँ ब्याहनी हैं।

”जो भी हो, लंगड़ और नक़ल-बाबू में बड़ी हुज्जत हुई। अब घूस के मामले में बात-बात पर हुज्जत होती ही है। पहले सधा काम होता थ। पुराने आदमी बात के पक्के होते थे। एक रूपिया टिका दो, दुसरे दिन नकल तैयार। अब नये-नये स्कूली लड़के दफ़्तर में घुस आते है और लेने-देन का रेट बिगाड़ते है। इन्हीं की देखा-देखी पुराने आदमी भी मनमानी करते है। अब रिश्वत का देना और रिश्वत का लेना – दोनो बड़े झंझट के काम हो गये हैं।

“लंगड़ को भी गुस्सा आ गया। उसने अपनी कण्ठी छूकर कहा की जाओ बाबू, तुम क़ायदे से ही काम करोगे तो हम भी क़ायदे से ही काम करेंगे। अब तुमको एक कानी कौड़ी न मिलेगी। हमने दरख्वास्त लगा दी है, कभी-न-कभी तो नम्बर आयेगा ही।

“उसके बाद लंगड़ ने जाकर तहसीलदार को सब हाल बताया। तहसीकदार बहुत हँसा और बोला कि शाबाश लंगड़, तुमने ठीक ही किया। तुन्हे इस लेन-देन में पड़ने की कोई ज़रूरत नहीं। नम्बर आने पर तुम्हे नक़ल मिल जायेगी। उसने पेशकार से कहा, देखो, लंगड़ बेचारा चाय महिने से हैरान है। अब क़ायदे से काम होना चाहिए, इन्हे कोई परेशान न करे। इस पर पेशकार बोला कि सरकार, यह लंगड़ा तो झक्की है। आप इसके झमेले में न पड़ें। तब लंगड़ पेशकार पर बिगड़ गया। झाँय-झाँय होने लगी। किसी तरह दोनों में तहसीलदार ने सुलह करायी।"

”लंगड़ जानता है कि नक़ल-बाबू उसकी सरख्वास्त बेचारी तो चींटी की जान-जैसी है। उसे लेने के लिए कोई बड़ी ताकत न चाहिए। दरख्वास्त को किसी भी समय खारिज कराया जा सकता है। फिस का टिकट कम लगा है, मिसिल का पता ग़लत लिखा है, एक ख़ाना अधूरा पड़ा है-ऐसी ही कोई बात पहले नोटिस-बोर्ड पर लिख दी जाती है और अगर उसे दी गये तारीख़ तक ठीक न किया जाये तो दरख्वस्त खारिज कर दी जाती है।"

“इसीलिए लंगड़ ने अब पूरी-पूरी तैयारी कर ली है। वह अपने गाँव चला आया है, अपने घर में उसने ताला लगा दिया है। खेत-पात,फ़सल, बैल-बधिया, सब भगवान के भरोसे छोड़ आया है। अपने एक रिश्तेदार के यहाँ डेरा दिया है और सवेरे से शाम तक तहसील के नोटिस-बोर्ड के आसपास चक्कर काटा करता है। उसे डर है कि कहीं ऐसा न हो कि नोटिस-बोर्ड पर उसकी दरख्वास्त की कोई खबर निकले और उसे पता ही न चले। चूके नहीं कि दरख्वास्त खारिज हुई। एक बार ऐसा हो भी चुका है।
आदमी का जब करम फूटता है तभी उसे थाना-कचहरी का मुँह देखना पड़ता है।


"उसने नक़ल लेने के सब क़ायदे रट डाले है। फीस का पूरा चार्ट याद कर लिया है। आदमी का जब करम फूटता है तभी उसे थाना-कचहरी का मुँह देखना पड़ता है। लंगड़ का भी करम फूट गया है। पर इस बार जिस तरह से वह तहसील पर टूटा है, उससे लगता है कि पट्ठा नक़ल लेकर ही रहेगा।“

रंगनाथ ने अपने जीवन में अब तक काफ़ी बेवकूफ़ियाँ की थी। इसलिए उसे अनुभवी नहीं कहा जा सकता था। लंगड़ के इतिहास का उसके मन पर बड़ा ही गहरा प्रभाव पड़ा और वह भावुक हो गया। भावुक होते ही ‘कुछ करना चाहिए’ की भावना उसके मन को मथने लगी, पर ‘क्या करना चाहिए’ इसका जवाब उसके पास नहीं था।

जो भी हो, भीतर-ही-भीतर जब बात बरदाश्त से बाहर होने लगी तो उसने भुनभुनाकर कह ही दिया, “यह सब ग़लत है.....कुछ करना चाहिए!”

क्लर्क ने शिकारी कुत्ते की तरह झपटकर यह बात दबोचली। बोला, “क्या कर सकते हो रंगनाथ बाबू? कोई क्या कर सकता है? जिसके छिलता है, उसी के चुनमुनाता है। लोग अपना ही दुख-दर्द ढो लें, यही बहुत है। दूसरे का बोझा कौन उठा सकता है? अब तो वही है भैये, कि तुम अपना दाद उधर से खुजलाओ, हम अपना इधर से खुजलायें।“

क्लर्क चलने को उठ खड़ा हुआ। प्रिंसिपल ने चारों ओर निगाह दौड़ाकर कहा,”बद्री भैया दिखायी नहीं पड़ रहे हैं।“

वैद्यजी ने कहा,”एक रिश्तेदर डकैते में फँस गये हैं। पुलिस की लीला अपरम्पार है। जानते ही हो। बद्री वहीं गया था। आज लौटा रहा होगा।“

सनीचर चौखट के पास बैठा था। मुँह से सीटी-जैसी बजते हुए बोला, “जब तक नहीं आते तभी तक भला है।“

प्रिंसिपल साहब भंग पीकर अब तक भूल चुके थे कि अराम हराम है। एक बड़ा-सा तकिया अपनी ओर खींचकर वे इत्मीनान से बैठ गये और बोले, “बात क्या है?”

सनीचर ने बहुत धीरे-से कहा,”कोऑपरेटिव यूनियन में ग़बन हो गया है। बद्री भैया सुनेंगे तो सुपरवाइज़र को खा जायेंगे।“

प्रिंसिपल आतंकित हो गये। उसी तरह फुसफुसाकर बोले, “ऐसी बत है!”

सनीचर ने सिर झुक़ाकर कुछ कहना शुरू कर दिया। वार्तलाप की यह वही अखिल भारतीय शैली थी जिसे पारसी थियेटरों ने अमर बना दिया है। इसके सहारे एक आदमी दूसरे से कुछ कहता है और वहीं पर खड़े हुए तीसरे आदमी को कानोंकान खबर नहीं होती; यह दूसरी बात है कि सौ गज़ की दूरी तक फैले हुए दर्शकगण उस बात को अच्छी तरह सुनकर समझ लेते हैं और पूरे जनसमुदाय में स्टेज पर खड़े हुए दूसरे आदमी को छोड़कर, सभी लोग जान लेते हैं कि आगे क्या होनेवाला है। संक्षेप में, बात को गुप्त रखने की इस हमारी परम्परागत शैली को अपनाकर सनीचर ने प्रिंसिपल साहब को कुछ बताना शुरू किया।

पर वैद्यजी कड़ककर बोले, “क्या स्त्रियों की भाँति फुस-फुस कर रहा है? कोऑपरेटिव में ग़बन हो गया तो कौन-सी बड़ी बात हो गयी? कौन-सी यूनियन है जिसमें ऐसा न हुआ हो?”


कुछ रूककर, वे समझाने के ढंग पर बोले,”हमारी यूनियन में ग़बन नहीं हुआ था, इस कारण लोग हमें सन्देह की दृष्टि से देखते थे। अब तो हम कह सकते हैं कि हम सच्चे आदमी हैं। ग़बन हुआ है और हमने छिपाया नहीं है। जैसा है, वैसा हमने बता दिया है।“


साँस खींचकर उन्होंने बात समाप्त की,”चलो अच्छा ही हुआ। एक काँटा निकल गया...चिंता मिटी।“


प्रिंसिपल साहब तकिये के सहारे निश्चल बैठे रहे। आख़िर में एक ऐसी बात बोले जिसे सब जानते हैं। उन्होंने कहा,”लोग आजकल बड़े बेइमान हो गये हैं””


यह बात बड़ी ही गुणकारी है और हर भला आदमी इसका प्रयोग मल्टी-विटामिन टिकियों की तरह दिन में तीन बार खाना खाने के बाद कर सकता है। पर क्लर्क को इसमें कुछ व्यक्तिगत आक्षेप-जैसा जान पड़ा। उसने जवाब दिया, “आदमी-आदमी पर है। अपने कॉलिज में तो आज तक ऐसा नहीं हुआ।“


वैद्यजी ने उसे आत्मीयता की दृष्टि से देखा और मुस्कराये। कोऑपरेटिव यूनियनवाल ग़बन बीज-गोदाम से गेहूँ निकालकर हुआ था। उसी की ओर इशरा करते हुए बोले, “ कॉलिज में ग़बन कैसे हो सकता है! वहाँ गेहूँ का गोदाम नहीं होता।“

एक बार हँसी शुरू हुई तो आगे का काम भंग ने सँभाल लिया। वे हँसते ही रहे।


यह मज़ाक था। प्रिंसिपल साहब हँसे, एक बार हँसी शुरू हुई तो आगे का काम भंग ने सँभाल लिया। वे हँसते ही रहे। पर क्लर्क व्यक्तिगत आक्षेप के सन्देह से पीड़ित जान पड़ता था। उसने कहा, “पर चाचा, कॉलिज में तो भूसे के सैकड़ों गोदाम हैं। हरएक के दिमाग़ में भूसा ही भरा है।“


इस पर और भी हँसी हुई। सनीचर और रंगनाथ भी हँसे। हँसी की लहर चबूतरे तक पहुँच गयी। वहाँ पर बैठे हुए दो-चार गुमनाम आदमी भी असम्पृक्त भाव से हँसने लगे। क्लर्क ने प्रिंसिपल को आँख से चलने का इशारा किया।


यह हमारी गौरवपूर्ण परम्परा है कि असल बात दो-चार घण्टे की बातचीत के बाद अंत में ही निकलती है। अतः वैद्यजी ने अब प्रिंसिपल साहब से पूछा,”और कोई विशेष बात?”


“कुछ नहीं... वही खन्नावाला मामला है। परसों दर्जे में काला चश्मा लगाकर पढा रहे थे। मैंने वहीं फींचकर रख दिया। लड़कों को बहका रहे थे। मैंने कहा, लो पुत्रवर, तुम्हें हम यहीं घसीटकर फ़ीता बनाये देते हैं।“ प्रिंसिपल साहब ने अपने ऊपर बड़ा संयम दिखाया था, पर यह बात ख़त्म करते-करते अंत में उनके मुँह से ‘फिक-फिक’ जैसी कोई चीज़ निकल ही गयी।
प्रत्येक बड़े नेता का एक-एक विरोधी है। सभी ने स्वेच्छा से अपना-अपना विरोधी पकड़ रखा है। यह जनतंत्र का सिद्धांत है।

वैद्यजी ने गम्भीरता से कहा, “ऐसा न करना चाहिए। विरोधी से भी सम्मानपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। देखो न, प्रत्येक बड़े नेता का एक-एक विरोधी है। सभी ने स्वेच्छा से अपना-अपना विरोधी पकड़ रखा है। यह जनतंत्र का सिद्धांत है। हमारे नेतागण चुपचाप अपनी चाल चलते रहते हैं। कोई किसी से प्रभावित नहीं होता। यह आदर्श विरोध है। आपको भी यही रूख अपनाना चाहिए।“


क्लर्क पर राजनीति के इन मौलिक सिद्धांतों का कोई असर नहीं हुआ। बह बोला “ इससे कुछ नहीं होता, चाचा! खन्ना मास्टर को मैं जानता हूँ। इतिहास में एम.ए. हैं, पर उन्हें अपने बाप तक का नाम नहीं मालूम। सिर्फ़ पार्टीबन्दी के उस्ताद हैं। अपने घर पर लड़कों को बुला-बुलाकर जुआ खिलाते हैं। उन्हें ठीक करने का सिर्फ़ एक तरीक़ा है। कभी पकड़कर दनादन-दनादन लगा दिये जायें।...”

बात जूता मारने की पद्धति और परम्परा पर आ गयी।

इस बात ने वैद्यजी को और भी गम्भीर बना दिया, पर और लोग उत्साहित हो उठे। बात जूता मारने की पद्धति और परम्परा पर आ गयी। सनीचर ने चहककर कहा कि जब खन्ना पर दनादन-दनादन पड़ने लगें, तो हमें भी बताना। बहुत दिन स हमने किसी को जुतिआया नहीं है। हम भी दो-चार हाथ लगाने चलेंगे। एक आदमी बोला कि जूता अगर फटा हो और तीन दिन तक पानी में भिगोया गया हो तो मारने में अच्छी आवाज़ करता है और लोगों को दूर-दूर तक सूचना मिल जाती है कि जूता चल रहा है। दूसरा बोला कि पढे-लिखे आदमी को जुतिआना हो तो गोरक्षक जूते का प्रयोग करना चाहिए ताकि मार तो पड़ जाये, पर ज्यादा बेइज़्ज़ती न हो। चबूतरे पर बैठे-बैठे एक तीसरे आदमी ने कहा कि जुतिआने का सही तरीक़ा यह है कि गिनकर सौ जूते मारने चले, निन्यानबे तक आते-आते पिछली गिनती भूल जाय और एक से गिनकर फिर नये सिरे से जूता लगाना शुरू कर दे। चौथे आदमी ने इसका अनुमोदन करते हुए कहा कि सचमुच जुतिआने का यही एक तरीका है और इसीलिए मैंने
भी सौ तक गिनती याद करनी शुरू कर दी है।

लेखक:श्रीलाल शुक्ल
टंकण सहयोग: संजय बेंगाणी


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Tuesday, November 14, 2006

4. वैद्यजी थे, हैं और रहेंगे।

कुछ घूरे, घूरों से भी बदतर दुकानें, तहसील, थाना, ताड़ीघर, विकास-खण्ड का दफ्तर, शराबख़ाना, कालिज-सड़क से निकल जाने वाले को लगभग इतना ही दिखाई देता था। कुछ दूर आगे एक घनी अमराई में बनी हुई एक कच्ची कोठरी भी पड़ती थी। उसकी पीठ सड़क की ओर थी; उसका दरवाजा, जिसमें किवाड़ नहीं थे, जंगल की ओर था। बरसात के दिनो में हलवाहे पेड़ों के नीचे से हटकर इस कोठरी में जुआ खेलते, बाकी दिनों वह खाली पड़ी रहती। जब वह खाली रहती, तब भी लोग उसे खाली नहीं रहने देते थे और नर-नारीगण मौका देखकर मनपसन्द इस्तेमाल करते थे। शिवपालगंज में इस कोठरी के लिए जो नाम दिया गया था, वह हेनरी मिलर को भी चौंका देने के लिए काफ़ी था। उसमें ठण्डा पानी मिलाकर कॉलेज के एक मास्टर ने उसका नाम प्रेम-भवन रख दिया था। घूरों और प्रेम-भवन के बीच पड़ने वाले सड़क के इस हिस्से को शिवपालगंज का किनारा-भर मिलता था। ठेठ शिवपालगंज दूसरी ओर सड़क छोड़कर था। असली शिवपालगंज वैद्यजी की बैठक में था।
अपनी सीमा के आस-पास जहाँ भी ख़ाली ज़मीन मिले, वहीं आँख बचाकर दो-चार हाथ ज़मीन घेर लेनी चाहिए।


बैठक तक पहुँचने के लिए गलियारे में उतरना पड़ता था। उसके दोनों किनारों पर छप्पर के बेतरतीब ऊबड़-खाबड़ मकान थे। उनके बाहरी चबूतरे बढ़ा लिये गये थे और वे गलियारे पर हावी थे। उन्हें देखकर इस फिलासफी का पता चलता था कि अपनी सीमा के आस-पास जहाँ भी ख़ाली ज़मीन मिले, वहीं आँख बचाकर दो-चार हाथ ज़मीन घेर लेनी चाहिए।

अचानक यह गलियारा एक मैदान में खो जाता था। उसमें नीम के तीन-चार पेड़ लगे थे। जिस तरह वे पनप रहे थे, उससे साबित होता था कि वे वन-महोत्सवों के पहले लगाये गये हैं, वे किसी नेता या अफ़सर के छूने से बच गए हैं और उन्हें वृक्षारोपण और कैमरा-क्लिकन की रस्मों से बख्श दिया गया है।

इस हरे-भरे इलाके में एक मकान ने मैदान की एक पूरी-की-पूरी दिशा को कुछ इस तरह घेर लिया था कि उधर से आगे जाना मुश्किल था। मकान वैद्यजी का था। उसका अगला हिस्सा पक्का और देहाती हिसाब से काफ़ी रोबदार था, पीछे की तरफ़ दिवारें कच्ची थीं और उसके पिछे, शुबहा होता था, घूरे पड़े होंगे। झिलमिलाते हवाई अड्डों और लकलकाते होटलों की मार्फत जैसा 'सिम्बालिक माडर्नाइज़ेशन' इस देश में हो रहा है, उसका असर इस मकान की वास्तुकला में भी उतर आया था और उससे साबित होता था कि दिल्ली से लेकर शिवपालगंज तक काम करने वाली देशी बुद्धि सब जगह एक-सी है।

नं. १० डाउनिंग स्ट्रीट, व्हाइट हाउस, क्रेमलिन आदि मकानों के नहीं ताकतो के नाम हैं।

मकान का अगला हिस्सा, जिसमें चबूतरा, बरामदा और एक बड़ा कमरा था, बैठक के नाम से मशहूर था। ईंट-गारा ढ़ोने वाला मजदूर भी जानता था कि बैठक का मतलब ईंट और गारे की बनी हुई इमारत भर नहीं है। नं. १० डाउनिंग स्ट्रीट, व्हाइट हाउस, क्रेमलिन आदि मकानों के नहीं ताकतो के नाम हैं।

थाने से लौटकर रुप्पन बाबू ने दरबारे-आम, यानी बरामदे में भींड़ लगी देखी; उनके कदम तेज़ हो गये, धोती फड़फड़ाने लगी। बैठक में आते ही उन्हें पता चला कि उनके ममेरे भाई रंगनाथ शहर से ट्रक पर आये हैं; रास्ते में ड्राइवर ने उनसे दो रुपये ऐंठ लिये हैं।

एक दुबला-पतला आदमी गन्दी बनियान और धारीदार अण्डरवियर पहने बैठा था। नवम्बर का महीना था और शाम को काफ़ी ठण्डक हो चली थी, पर वह बनियान में काफ़ी खुश नज़र आ रहा था। उसका नाम मंगल था, पर लोग उसे सनीचर कहते थे। उसके बाल पकने लगे थे और आगे के दाँत गिर गये थे। उसका पेशा वैद्यजी की बैठक पर बैठे रहना था। वह ज्यादातर अण्डरवियर ही पहनता था। उसे आज बनियान पहने हुए देखकर रुप्पन बाबू समझ गये कि सनीचर 'फार्मल' होना चाहता है। उसने रुप्पन बाबू को एक साँस में रंगनाथ की मुसीबत बता दी और अपनी नंगी जाँघों पर तबले के कुछ मुश्किल बोल निकालते हुए ललककर कहा, "बद्री भैया होते तो मज़ा आता।"

रुप्पन बाबू रंगनाथ से छूटते ही बोले, "तुमने अच्छा ही किया रंगनाथ दादा। दो रुपिया देकर झगड़ा साफ़ किया। ज़रा-ज़रा-सी बात पर खून-ख़राबा करना ठीक नहीं।"

रंगनाथ रुप्पन बाबू से डेढ़ साल बाद मिल रहा था। रुप्पन बाबू की गम्भीरता को दिन-भर की सबसे दिलचस्प घटना मानते हुए रंगनाथ ने कहा, "मैं तो मारपीट पर उतर आया था, बाद में कुछ सोचकर रुक गया।"

रुप्पन बाबू ने मारपीट के विशेषज्ञ की हैसियत से हाथ उठाकर कहा, " तुमने ठीक ही किया। ऐसे ही झगड़ों से इश्टूडेण्ट कमूनिटी बदनाम होती है।"
कन्धे पर टिकी हुई धोती का छोर, ताज़ा खाया हुआ पान, बालों में पड़ा हुआ कईं लीटर तेल - स्थानीय गुण्डागिरी के किसी भी स्टैण्डर्ड से वे होनहार लग रहे थे।


रंगनाथ ने अब उन्हें ध्यान से देखा। कन्धे पर टिकी हुई धोती का छोर, ताज़ा खाया हुआ पान, बालों में पड़ा हुआ कईं लीटर तेल - स्थानीय गुण्डागिरी के किसी भी स्टैण्डर्ड से वे होनहार लग रहे थे। रंगनाथ ने बात बदलने की कोशिश की। पूछा, "बद्री दादा कहाँ है? दिखे नहीं।"

सनीचर ने अपने अण्डरवियर को झाड़ना शुरु किया, जैसे कुछ चींटियों को बेदख़ल करना चाहता हो। साथ ही भौहें सिकोड़कर बोला, " मुझे भी बद्री भैया याद आ रहें हैं। वे होते तो अब तक॰॰॰!"

"बद्री दादा हैं कहाँ?" रंगनाथ ने उधर ध्यान न देकर रुप्पन बाबू से पूछा।

रुप्पन बाबू बेरुखी से बोले, " सनीचर बता तो रहा है। मुझसे पूछकर तो गये नहीं हैं। कहीं गये हैं। बाहर गये होंगे। आ जायेंगे। कल, परसों, अतरसों तक आ ही जायेंगे।"

उनकी बात से पता चलना मुश्किल था कि बद्री उनके सगे भाई हैं और उनके साथ एक ही घर में रहते हैं। रंगनाथ ने ज़ोर से साँस खींची।

सनीचर ने फर्श पर बैठे-बैठे अपनी टाँगे फैला दीं। जिस्म के जिस हिस्से से बायीं टाँग निकलती है, वहाँ उसने खाल का एक टुकड़ा चुटकी में दबा लिया। दबाते ही उसकी आँखे मुँद गयीं और चेहरे पर तृप्ति और संतोष का प्रकाश फैल गया। धीरे-धीरे चुटकी मसलते हुए उसने भेड़िये की तरह मुँह फैलाकर जम्हाई ली। फिर ऊँघती हुई आवाज़ में कहा, "रंगनाथ भैया शहर से आये हैं। उन्हें मैं कुछ नहीं कह सकता। पर कोई किसी गँजहा से दो रुपये तो क्या, दो कौड़ी भी ऐंठ ले तो जानें।"

"गँजहा" शब्द रंगनाथ के लिए नया नहीं था। यह एक तकनीकी शब्द था जिसे शिवपालगंज के रहने वाले अपने लिए सम्मानसूचक पद की तरह इस्तेमाल करते थे। आसपास के गाँवों में भी बहुत-से शान्ति के पुजारी मौका पड़ने पर धीरे-से कहते थे, "तुम इसके मुँह ना लगो। तुम जानते नहीं हो, यह साला गँजहा है।"
कन्धे फ़र्श पर वहीं एक चौदह-पन्द्रह साल का लड़का भी बैठा था। देखते ही लगता था, वह शिक्षा-प्रसार के चकमे में नहीं आया है।


फ़र्श पर वहीं एक चौदह-पन्द्रह साल का लड़का भी बैठा था। देखते ही लगता था, वह शिक्षा-प्रसार के चकमे में नहीं आया है। सनीचर की बात सुनकर उसने बड़े आत्मविश्वास से कहा, "शहराती लड़के बड़े सीधे होते हैं। कोई मुझसे रुपिया माँगकर देखता तो॰॰॰।"

कहकर उसने हाथ को एक दायरे के भीतर हवा में घुमाना शुरू कर दिया। लगा किसी लॉरी में एक लम्बा हैण्डिल डालकर वह उसे बड़ी मेहनत से स्टार्ट करने जा रहा है। लोग हँसनें लगे, पर रुप्पन बाबू गम्भीर बने रहे। उन्होने रंगनाथ से पूछा, "तो तुमने ड्राइवर को रुपये अपनी मर्ज़ी से दिये थे या उसने धमकाकर छीन लिये थे?"

रंगनाथ ने यह सवाल अनसुना कर दिया और इसके जवाब में एक दूसरा सवाल किया, "अब तुम किस दर्जे में पढ़ते हो रुप्पन?"

उनकी शक्ल से लगा कि उन्हें यह सवाल पसन्द नहीं है। वे बोले, "टैन्थ क्लास में हूँ॰॰॰

"तुम कहोगे कि उसमें तो मैं दो साल पहले भी था। पर मुझे तो शिवपालगंज में इस क्लास से बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं सूझ पड़ता।॰॰॰

"तुम जानते नहीं हो दादा, इस देश की शिक्षा-पद्धति बिल्कुल बेकार है। बड़े-बड़े नेता यही कहते हैं। मैं उनसे सहमत हूँ॰॰॰।

"फिर तुम इस कॉलिज का हाल नहीं जानते। लुच्चों और शोहदों का अड्डा है। मास्टर पढ़ाना-लिखाना छोड़कर सिर्फ़ पालिटिक्स भिड़कते हैं। दिन-रात पिताजी की नाक में दम किये रहते हैं कि यह करो, वह करो, तनख्वाह बढ़ाओ, हमारी गरदन पर मालिश करो। यहाँ भला कोई इम्तहान में पास हो सकता है॰॰॰?

"हैं। कुछ बेशर्म लड़के भी है, जो कभी-कभी इम्तहान पास कर लेते हैं, पर उससे॰॰॰।"

कमरे के अन्दर वैद्यजी मरीज़ों को दवा दे रहे थे। अचानक वें वहीं से बोले, "शान्त रहो रुप्पन। इस कुव्यवस्था का अन्त होने ही वाला है।"

जान पड़ा कि आकाशवाणी हो रही हैः 'घबराओ नहीं वसुदेव, कंस का काल पैदा होने ही वाला है।' रुप्पन बाबू शान्त हो गये। रंगनाथ ने कमरे की ओर मुँह करके जोर से पूछा, "मामाजी, आपका इस कॉलिज से क्या ताल्लुक है?"

"ताल्लुक?" कमरे में वैद्यजी की हँसी बड़े जोर से गूँजी। "तुम जानना चाहते हो कि मेरा इस कॉलिज से क्या सम्बन्ध है? रुप्पन, रंगनाथ की जिज्ञासा शान्त करो।"

रुप्पन ने बड़े कारोबारी ढ़ंग से कहा, "पिताजी कॉलिज के मैनेजर है। मास्टरों का आना-जाना इन्हीं के हाथ में है।"

रंगनाथ के चेहरे पर अपनी बात का असर पढ़ते हुए उन्होने फिर कहा, "ऐसा मैनेजर पूरे मुल्क में न मिलेगा। सीधे के लिए बिलकुल सीधे हैं और हरामी के लिए खानदानी हरामी।"

रंगनाथ ने यह सूचना चुपचाप हज़म कर ली और सिर्फ कुछ कहने की गरज़ से बोला, "और कोऑपरेटिव यूनियन के क्या हाल हैं? मामाजी उसके भी तो कुछ थे।"

"थे नहीं, हैं।" रुप्पन बाबू ने ज़रा तीखेपन से कहा, "मैनेजिंग डाइरेक्टर थे, हैं और रहेंगे।"

वैद्यजी थे, हैं और रहेंगे।

अंग्रेजों के ज़माने में वे अंग्रेजों के लिए श्रद्धा दिखाते थे। देसी हुकूमत के दिनों में वे देसी हाकिमों के लिए श्रद्धा दिखाने लगे। वे देश के पुराने सेवक थे। पिछले महायुद्ध के दिनों में, जब देश को ज़ापान से ख़तरा पैदा हो गया था, उन्होने सुदूर-पूर्व में लड़ने के लिए बहुत से सिपाही भरती कराये। अब ज़रूरत पड़ने पर रातोंरात वे अपने राजनीतिक गुट में सैंकड़ों सदस्य भरती करा देते थे। पहले भी वे जनता की सेवा जज की इजलास में जूरी और असेसर बनकर, दीवानी के मुकदमों में जायदादों के सिपुर्ददार होकर और गाँव के ज़मींदारों में लम्बरदार के रूप में करते थे। अब वे कोऑपरेटिव यूनियन के मैनेजिंग डाइरेक्टर और कॉलिज के मैनेजर थे। वास्तव में वे इन पदों पर काम नहीं करना चाहते थे क्योंकि उन्हें पदों का लालच न था। पर उस क्षेत्र में ज़िम्मेदारी के इन कामों को निभानें वाला कोई आदमी ही न था और वहाँ जितने नवयुवक थे, वे पूरे देश के नवयुवकों की तरह निकम्मे थे; इसीलिए उन्हें बुढ़ापे में इन पदों को सँभालना पड़ा था।
हर बड़े राजनीतिज्ञ की तरह वे भी राजनीति से नफ़रत करते थे और राजनीतिज्ञों का मज़ाक उड़ाते थे।


बुढ़ापा! वैद्यजी के लिए इस शब्द का इस्तेमाल तो सिर्फ़ अरिथमेटिक की मजबूरी के कारण करना पड़ा क्योंकि गिनती में उनकी उमर बासठ साल हो गई थी। पर राजधानियों में रहकर देश-सेवा करने वाले सैंकड़ो महापुरूषों की तरह वे भी उमर के बावजूद बूढ़े नहीं हुए थे और उन्हीं महापुरूषों की तरह वैद्यजी की यह प्रतिज्ञा थी कि हम बुढ़े तभी होंगे जब कि मर जायेंगे और जब तक लोग हमें यक़िन नहीं दिला देंगे कि तुम मर गये हो, तब तक अपने को जीवित ही समझेंगे और देश-सेवा करते रहेंगे। हर बड़े राजनीतिज्ञ की तरह वे भी राजनीति से नफ़रत करते थे और राजनीतिज्ञों का मज़ाक उड़ाते थे। गांधी की तरह अपनी राजनीतिक पार्टी में उन्होने कोई पद नहीं लिया था क्योंकि वे वहाँ नये खून को प्रोत्साहित करना चाहते थे; पर कोऑपरेटिव और कॉलिज के मामलों में लोगों ने उन्हें मजबूर कर दिया था और उन्होंने मजबूर होना स्वीकार कर लिया था।

वैद्यजी का एक पेशा वैद्यक का भी था। वैद्यक में उन्हें दो नुस्ख़े ख़ासतौर से आते थेः 'ग़रीबों का मुफ़्त इलाज' और 'फ़ायदा न हो तो दाम वापस'। इन नुस्ख़ों से दूसरों को जो आराम मिला हो वह तो दूसरी बात है, खुद वैद्यजी को भी आराम की कमी नहीं थी।

उन्होंने रोगों के दो वर्ग बना रखे थेः प्रकट रोग और गुप्त रोग। वे प्रकट रोगों की प्रकट रुप से और गुप्त रोगों की गुप्त रुप से चिकित्सा करते थे। रोगों के मामले में उनकी एक यह थ्योरी थी कि सभी रोग ब्रह्मचर्य के नाश से पैदा होते हैं। कॉलिज के लड़कों का तेजहीन, मरियल चेहरा देखकर वे प्रायः इस थ्योरी की बात करने लगते थे। अगर कोई कह देता कि लड़को की तन्दुरुस्ती ग़रीबी और अच्छी खुराक न मिलने से बिगड़ी हुई है, तो वे समझते थे कि वह घुमाकर ब्रह्मचर्य के महत्व को अस्वीकार कर रहा है, और चूँकि ब्रह्मचर्य को न मानने वाला बदचलन होता है इसलिए ग़रीबी और खुराक की कमी की बात करने वाला भी बदचलन है।
उनकी राय थी कि ब्रह्मचर्य का नाश कर सकने के लिए ब्रह्मचर्य का नाश न होने देना चाहिए।


ब्रह्मचर्य के नाश का क्या नतीजा होता है, इस विषय पर वे बड़ा ख़ौफ़नाक भाषण देते थे। सुकरात ने शायद उन्हें या किसी दूसरे को बताया था कि ज़िन्दगी में तीन बार के बाद चौथी बार ब्रह्मचर्य का नाश करना हो तो पहले अपनी कब्र खोद लेनी चाहिए। इस इण्टरव्यू का हाल वे इतने सचित्र ढ़ंग से पेश करते थे कि लगता था, ब्रह्मचर्य पर सुकरात उनके आज भी अवैतनिक सलाहकार है। उनकी राय में ब्रह्मचर्य न रखने से सबसे बड़ा हर्ज यह होता था कि आदमी बाद में चाहने पर भी ब्रह्मचर्य का नाश करने लायक नहीं रह जाता था। संक्षेप में, उनकी राय थी कि ब्रह्मचर्य का नाश कर सकने के लिए ब्रह्मचर्य का नाश न होने देना चाहिए।

उनके इन भाषणों को सुनकर कॉलिज के तीन-चौथाई लड़के अपने जीवन से निराश हो चले थे। पर उन्होंने एक साथ आत्महत्या नहीं की थी, क्योंकि वैद्यजी के दवाखाने का एक विज्ञापन थाः

'जीवन से निराश नवयुवकों के लिए आशा का संदेश!'

आशा किसी लड़की का नाम होता, तब भी लड़के यह विज्ञापन पढ़कर इतने उत्साहित न होते। पर वे जानते थे कि सन्देश एक गोली की ओर से आ रहा है जो देखने में बकरी की लेंडी-जैसी है, पर पेट में जाते ही रगों में बिजली-सी दौड़ाने लगती है।
उनकी बातों से लगा कि पहले हिन्दुस्तान में वीर्य-रक्षा पर बड़ा ज़ोर था, और एक ओर घी-दूध की तो दूसरी ओर वीर्य की नदियाँ बहती थीं।

एक दिन उन्होंने रंगनाथ को भी ब्रह्मचर्य के लाभ समझाये। उन्होंने एक अजीब-सा शरीर-विज्ञान बताया, जिसके हिसाब से कई मन खाने से कुछ छटाँक रस बनता है, रस से रक्त, रक्त से कुछ और, और इस तरह आखिर में वीर्य की एक बूँद बनती है। उन्होंने साबित किया कि वीर्य की एक बूँद बनाने में जितना ख़र्च होता है उतना एक ऐटम बम बनाने में भी नहीं होता। रंगनाथ को जान पड़ा कि हिन्दुस्तान के पास अगर कोई कीमती चीज है तो वीर्य ही है। उन्होंने कहा कि वीर्य के हज़ार दुश्मन हैं और सभी उसे लूटने पर आमादा हैं। अगर कोई किसी तरकीब से अपना वीर्य बचा ले जाये तो, समझो, पूरा चरित्र बचा ले गया। उनकी बातों से लगा कि पहले हिन्दुस्तान में वीर्य-रक्षा पर बड़ा ज़ोर था, और एक ओर घी-दूध की तो दूसरी ओर वीर्य की नदियाँ बहती थीं। उन्होंने आख़िर में एक श्लोक पढ़ा जिसका मतलब था कि वीर्य की एक बूँद गिरने से आदमी मर जाता है और एक बूँद उठा लेने से ज़िन्दगी हासिल करता है।

संस्कृत सुनते ही सनीचर ने हाथ जोड़कर कहा, "जय भगवान की!" उसने सिर ज़मीन पर टेक दिया और श्रद्धा के आवेग में अपना पिछला हिस्सा छत की ओर उठा दिया। वैद्यजी और भी जोश में आ गये और रंगनाथ से बोले, "ब्रह्मचर्य के तेज का क्या कहना! कुछ दिन बाद शीशे में अपना मुँह देखना, तब ज्ञात होगा।"

रंगनाथ सिर हिलाकर अन्दर जाने को उठ खड़ा हुआ। अपने मामा के इस स्वभाव को वह पहले से जानता था। रुप्पन बाबू दरवाजे के पास खड़े थे। उन पर वैद्यजी के भाषण का कोई असर नहीं पड़ा था। उन्होंने रंगनाथ से फुसफुसाकर कहा, "मुँह पर तेज लाने के लिए आजकल ब्रह्मचर्य की क्या ज़रूरत? वह तो क्रीम पाउडर के इस्तेमाल से भी आ जाता है।"

लेखक: श्रीलाल शुक्ल
टंकण सहयोग:गिरिराज जोशी


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Monday, November 13, 2006

3.आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेंसिटी

दो बड़े और छोटे कमरों का एक डाकबँगला था जिसे डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने छोड़ दिया था। उसके तीन ओर कच्ची दीवारों पर छ्प्पर डालकर कुछ अस्तबल बनाये गये थे। अस्तबलों से कुछ दूरी पर पक्की ईंटों की दीवार पर टिन डालकर एक दुकान-सी खोली गयी थी। एक ओर रेलवे-फाटक के पास पायी जाने वाली एक कमरे की गुमटी थी। दूसरी ओर एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे एक कब्र-जैसा चबूतरा था। अस्तबलों के पास एक नये ढंग की इमारत बनी थी जिस पर लिखा था, 'सामुदायिक मिलन-केन्द्र , शिवपालगंज।' इस सबके पिछवाडे़ तीन-चार एकड़ का ऊसर पड़ा था जिसे तोड़कर उसमें चरी बोयी गयी थी। चरी कहीं-कहीं सचमुच ही उग आयी थी।
हम असली भारतीय विद्यार्थी हैं;हम नहीं जानते कि बिजली क्या है, नल का पानी क्या है; पक्का फ़र्श किसको कहते हैं ; सैनिटरी फिटिंग किस चिड़िया का नाम है।

इन्हीं सब इमारतों के मिले-जुले रुप को छंगामल विद्यालय इण्टरमीजिएट कालिज, शिवपालगंज कहा जाता था। यहाँ से इण्टरमीजिएट पास करने वाले लड़के सिर्फ़ इमारत के आधार पर कह सकते थे कि हम शांतिनिकेतन से भी आगे हैं; हम असली भारतीय विद्यार्थी हैं;हम नहीं जानते कि बिजली क्या है, नल का पानी क्या है; पक्का फ़र्श किसको कहते हैं ; सैनिटरी फिटिंग किस चिड़िया का नाम है। हमने विलायती तालीम तक देशी परम्परा में पायी है और इसीलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं! हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है , बंद कमरे में ऊपर चढ़ जाता है।

छंगामल कभी ज़िला-बोर्ड के चेयरमैन थे। एक फर्जी प्रस्ताव लिखवाकर उन्होंने बोर्ड के डाकबँगले को कालेज इस कॉलिज़ की प्रबन्ध-समिति के नाम उस समय लिख दिया था जब कॉलिज के पास प्रबन्ध-समिति को छोड़कर कुछ नहीं था। लिखने की शर्त के अनुसार कॉलिज का नाम छंगामल विद्यालय पड़ गया था।


इस देश के निवासी परम्परा से कवि हैं। चीज़ को समझने के पहले वे उस पर मुग्ध होकर कविता कहते हैं। भाखड़ा-नंगल बाँध को देखकर वे कहते हैं, "अहा! अपना चमत्कार दिखाने के लिए, देखो, प्रभु ने फिर से भारत-भूमि को ही चुना।ऑपरेशन -टेबल पर पड़ी हुई युवती को देखकर वे मतिराम-बिहारी की कविताएँ दुहराने लग सकते हैं।


विद्यालय के एक-एक टुकड़े का अलग-अलग इतिहास था। सामुदायिक मिलन -केन्द्र गाँव-सभा के नाम पर लिये गये सरकारी पैसे से बनवाया गया था। पर उसमें प्रिंसिपल का दफ्तर था और कक्षा ग्यारह और बारह की पढ़ाई होती थी। अस्तबल -जैसी इमारतें श्रमदान से बनी थीं। टिन -शेड किसी फ़ौजी छावनी के भग्नावशेषों को रातोंरात हटाकर खड़ा किया गया था। जुता हुआ ऊसर कृषि-विज्ञान की पढ़ाई के काम आता था। उसमें जगह-जगह उगी हुई ज्वार प्रिंसिपल की भैंस के काम आती थी। देश में इंजीनियरों और डॉक्टरों की कमी है। कारण यह है कि इस देश के निवासी परम्परा से कवि हैं। चीज़ को समझने के पहले वे उस पर मुग्ध होकर कविता कहते हैं। भाखड़ा-नंगल बाँध को देखकर वे कहते हैं, "अहा! अपना चमत्कार दिखाने के लिए, देखो, प्रभु ने फिर से भारत-भूमि को ही चुना।" ऑपरेशन -टेबल पर पड़ी हुई युवती को देखकर वे मतिराम-बिहारी की कविताएँ दुहराने लग सकते हैं।

भावना के इस तूफ़ान के बावजूद, और इसी तरह की दूसरी अड़चनों के बावजूद, इस देश को इंजीनियर पैदा करने हैं, शाक्टर बनाने हैं। इंजीनियर और डाक्टर तो असल में वे तब होंगे जब वे अमरीका या इंगलैण्ड जायेंगे , पर कुछ शुरुआती काम-टेक-ऑफ़ स्टेजवाला -यहाँ भी होना है। वह काम भी छंगामल विद्यालय इण्टर कॉलिज कर रहा था।

साइंस का क्लास लगा था। नवाँ दर्जा। मास्टर मोतीराम, जो एक अरह बी.एस-सी . पास थे, लड़कों को आपेक्षिक घनत्व पढ़ा रहे थे। बाहर उस छोटे-से गाँव में छोटेपन की, बतौर अनुप्रास , छटा छायी थी। सड़क पर ईख से भरी बैलगाड़ियाँ शकर मिल की ओर जा रही थीं। कुछ मरियल लड़के पीछे से ईख खींच-खींचकर भाग रहे थे। आगे बैठा हुआ गाड़ीवान खींच-खींचकर गालियाँ दे रहा था। गालियों का मौलिक महत्व आवाज़ की ऊँचाई में है, इसीलिए गालियाँ और जवाबी गालियाँ एक- दूसरे को ऊँचाई पर काट रही थीं। लड़के नाटक का मज़ा ले रहे थे, साइंस पढ़ रहे थे।


गालियों का मौलिक महत्व आवाज़ की ऊँचाई में है

एक लड़के ने कहा , "मास्टर साहब, आपेक्षिक घनत्व किसे कहते हैं ?"

वे बोले, "आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेंसिटी।"

एक दूसरे लड़के ने कहा, "अब आप, देखिए , साइंस नहीं अंग्रेजी पढ़ा रहे हैं।"

वे बोले, "साइंस साला अंग्रेजी के बिना कैसे आ सकता है?"

लड़कों ने जवाब में हँसना शुरु कर दिया। हँसी का कारण हिन्दी -अंग्रेजी की बहस नहीं , 'साला' का मुहावरेदार प्रयोग था।

वे बोले, "यह हँसी की बात नहीं है। "

लड़कों को यक़ीन न हुआ। वे और ज़ोर से हँसे। इस पर मास्टर मोतीराम खुद उन्हीं के साथ हँसने लगे। लड़के चुप हो गये।

उन्होंने लड़कों को माफ कर दिया। बोले, "रिलेटिव डेंसिटी नहीं समझते हो तो आपेक्षिक घनत्व को यों-दूसरी तरकीब से समझो। आपेक्षिक माने किसी के मुक़ाबले का। मान लो, तुमने एक आटाचक्की खोल रखी है और तुम्हारे पड़ोस में तुम्हारे पड़ोसी ने दूसरी आटाचक्की खोल रखी है। तुम महीने में उससे पाँच सौ रुपया पैदा करते हो और तुम्हारा पड़ोसी चार सौ। तो तुम्हें उसके मुक़ाबले ज़्यादा फायदा हुआ। इसे साइंस की भाषा में कह सकते हैं कि तुम्हारा आपेक्षिक लाभ ज़्यादा है। समझ गये?"

एक लड़का बोला, "समझ तो गया मास्टर साहब , पर पूरी बात शुरु से ही ग़लत है। आटाचक्की से इस गाँव में कोई भी पाँच सौ रुपया महीना नहीं पैदा कर सकता।"

मास्टर मोतीराम ने मेज़ पर हाथ पटककर कहा , "क्यों नहीं कर सकता ! करनेवाला क्या नहीं कर सकता!"

लड़का इस बात से और बात करने की कला से प्रभावित नहीं हुआ। बोला, "कुछ नहीं कर सकता। हमारे चाचा की चक्की धकापेल चलती है, पर मुश्किल से दो सौ रुपया महीना पैदा होता है।"

"कौन है तुम्हारा चाचा?" मास्टर मोतीराम की आवाज़ जैसे पसीने से तर हो गयी। उन्होंने उस लड़के को ध्यान से देखते हुए पूछा, "तुम उस बेईमान मुन्नू के भतीजे तो नहीं हो?"

लड़के ने अपने अभिमान को छिपाने की कोशिश नहीं की। लापरवाही से बोला, "और नहीं तो क्या?"

पूरा गाँव अब उन्हें बेईमान मुन्नू कहता था। वे इस नाम को उसी सरलता से स्वीकार कर चुके थे, जैसे हमने जे.बी.कृपलानी के लिए आचार्यजी, जे.एल .नेहरु के लिए पण्डितजी या एम.के. गांधी के लिए महात्माजी बतौर नाम स्वीकार कर लिया है।

बेईमान मुन्नू बड़े ही बाइज़्ज़त आदमी थे। अंग्रेज़ों में, जिनके गुलाबों में शायद ही कोई ख़ुशबू हो, एक कहावत है: गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो , वह वैसा ही ख़ुशबूदार बना रहेगा। वैसे ही उन्हें भी किसी भी नाम से क्यों न पुकारा जाये, बेईमान मुन्नू उसी तरह इत्मीनान से आटा-चक्की चलाते थे, पैसा कमाते थे, बाइज़्जत आदमी थे। वैसे बेईमान मुन्नू ने यह नाम ख़ुद नहीं कमाया था। यह उन्हें विरासत में मिला था। बचपन से उनके बापू उन्हें प्यार के मारे बेईमान कहते थे, माँ उन्हें प्यार के मारे मुन्नू कहती थी। पूरा गाँव अब उन्हें बेईमान मुन्नू कहता था। वे इस नाम को उसी सरलता से स्वीकार कर चुके थे, जैसे हमने जे.बी.कृपलानी के लिए आचार्यजी, जे.एल .नेहरु के लिए पण्डितजी या एम.के. गांधी के लिए महात्माजी बतौर नाम स्वीकार कर लिया है।

मास्टर मोतीराम बेईमान मुन्नू के भतीजे को थोड़ी देर तक घूरते रहे। फिर उन्होंने साँस खींचकर कहा, "जाने दो!"

उन्होंने खुली हुई किताब पर निगाह गड़ा दी। जब उन्होंने निगाह उठायी तो देखा, लड़कों की निगाहें उनकी ओर पहले से ही उठी थीं। उन्होंने कहा, "क्या बात है?"

एक लड़का बोला,"तो यही तय रहा कि आटा-चक्की से महीने में पाँच सौ रुपया नहीं पैदा किया जा सकता?"

"कौन कहता है?" मास्टर साहब बोले, "मैंने ख़ुद आटा-चक्की से सात-सात सौ रुपया तक एक महीने में खींचा है। पर बेईमान मुन्नू की वजह से सब चौपट होता जा रहा है।"

बेईमान मुन्नू के भतीजे ने शालीनता से कहा , "इसका अफ़सोस ही क्या , मास्टर साहब! यह तो व्यापार है। कभी चित, कभी पट। कम्पटीशन में ऐसा ही होता है।"

जिसे देखो मुआइना करने को चला आ रहा है---पढ़ानेवाला अकेला, मुआइना करने वाले दस- दस!


"ईमानदार और बेईमान का क्या कम्पटीशन? क्या बकते हो?" मास्टर मोतीराम ने डपटकर कहा। तब तक कॉलिज का चपरासी उनके सामने एक नोटिस लेकर खड़ा हो गया। नोटिस पढ़ते-पढ़ते उन्होंने कहा, "जिसे देखो मुआइना करने को चला आ रहा है---पढ़ानेवाला अकेला, मुआइना करने वाले दस- दस!"

एक लड़के ने कहा , "बड़ी खराब बात है !"

वे चौंककर क्लास की ओर देखने लगे। बोले , "यह कौन बोला?"

एक लड़का अपनी जगह से हाथ उठाकर बोला , "मैं मास्टर साहब! मैं पूछ रहा था कि आपेक्षिक घनत्व निकालने का क्या तरीका है !"

मास्टर मोतीराम ने कहा , "आपेक्षिक घनत्व निकालने के लिए उस चीज़ का वजन और आयतन यानी वॉल्यूम जानना चाहिए -उसके बाद आपेक्षिक घनत्व निकालने का तरीका जानना चाहिए। जहाँ तक तरीके की बात है, हर चीज के दो तरीके होते हैं। एक सही तरीका, एक गलत तरीका। सही तरीके का सही नतीजा निकलता है, ग़लत तरीके का गलत नतीजा। इसे एक उदाहरण देकर समझाना जरुरी है। मान लो तुमने एक आटा -चक्की लगायी। आटा-चक्की की बढ़िया नयी मशीन है, खूब चमाचम रखी है, जमकर ग्रीज लगायी गयी है। इंजन नया है, पट्टा नया है। सब कुछ है , पर बिजली नहीं है , तो क्या नतीजा निकलेगा ?"

पहले बोलने वाले लड़के ने कहा, "तो डीजल इंजिन का इस्तेमाल करना पड़ेगा। मुन्नू चाचा ने किया था!"

मास्टर मोतीराम बोले, "यहाँ अकेले मुन्नू चाचा ही के पास अक्ल नहीं है। इस कस्बे में सबसे पहले डीजल इंजिन कौन लाया था ? जानता है कोई?"

लड़को ने हाथ उठाकर कोरस में कहा, "आप ! आप लाये थे!" मास्टर साहब ने सन्तोष के साथ मुन्नू के भतीजे की ओर देखा और हिकारत से बोले , "सुन लिया। बेईमान मुन्नू ने तो डीजल इंजिन मेरी देखा-देखी चलाया था। पर मेरी चक्की तो यह कॉलिज खुलने से पहले से चल रही थी। मेरी ही चक्की पर कॉलिज की इमारत के लिए हर आटा पिसवानेवाले से सेर-सेर भर आटे का दान लिया गया। मेरी ही चक्की में पिसकर वह आटा शहर में बिकने के लिए गया। मेरी ही चक्की पर कॉलिज की इमारत का नक्शा बना और मैनेजर काका ने कहा कि, 'मोती, कॉलिज में तुम रहोगे तो मास्टर ही, पर असली प्रिंसीपली तुम्हीं करोगे। ' सबकुछ तो मेरी चक्की पर हुआ और अब गाँव में चक्की है तो बेईमान मुन्नू की! मेरी चक्की कोई चीज ही न हुई !"

लड़के इत्मीनान से सुनते रहे। यह बात वे पहले भी सुन चुके थे और किसी भी समय सुनने के लिए तैयार रहते थे। उन पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा। पर मुन्नू के भतीजे ने कहा , "चीज तो मास्टर साहब आपकी भी बढ़िया है और मुन्नू चाचा की भी। पर आपकी चक्की पर धान कूटनेवाली मशीन ओवरहालिंग माँगती है। धान उसमें ज्यादा टूटता है।"

मास्टर मोतीराम ने आपसी तरीके से कहा, "ऐसी बात नहीं है। मेरे-जैसी धान की मशीन तो पूरे इलाके में नहीं है। पर बेईमान मुन्नू कुटाई-पिसाई का रेट गिराता जा रहा है। इसीलिए लोग उधर ही मुँह मारता है।"

"यह तो सभी जगह होता है," लड़के ने तर्क किया।

"सभी जगह नहीं, हिन्दुस्तान ही में ऐसा होता है। हाँ--" उन्होंने कुछ सोचकर कहा,

"तो रेट गिराकर अपना घाटा दूसरे लोग तो दूसरे लोग तो दूसरी तरह से- ग्राहकों का आटा चुराकर-पूरा कर लेते हैं। अब मास्टर मोतीराम जिस शख़्स का नाम है, वह सब कुछ कर सकता है, यही नहीं कर सकता।"

एक लड़के ने कहा , "आपेक्षिक घनत्व निकालने का तरीका क्या निकला ?"

वे जल्दी से बोले , "वही तो बता रहा था।"

उनकी निगाह खिड़की के पास, सड़क पर ईख की गाड़ियों से तीन फीट ऊपर जाकर, उससे भी आगे क्षितिज पर अटक गयी। कुछ साल पहले के चिरन्तन भावाविष्ट पोजवाले कवियों की तरह वे कहते रहे , "मशीन तो पूरे इलाके में वह एक थी; लोहे की थी, पर शीशे-जैसी झलक दिखाती थी--?"

अचानक उन्होंने दर्जे की ओर सीधे देखकर कहा , "तुमने क्या पूछा था ?"

लड़के ने अपना सवाल दोहराया, पर उसके पहले ही उनका ध्यान दूसरी ओर चला गया था। लड़कों ने भी कान उठाकर सुना, बाहर ईख चुरानेवालों और ईख बचानेवालों की गालियों के ऊपर, चपरासी के ऊपर पड़नेवाली प्रिंसिपल की फटकार के ऊपर- म्यूजिक-क्लास से उठनेवाली हारमोनियम की म्याँव-म्याँव के ऊपर-अचानक ' भक-भक-भक' की आवाज होने लगी थी। मास्टर मोतीराम की चक्की चल रही थी।

यह उसी की आवाज थी। यही असली आवाज थी। अन्न-वस्त्र की कमी की चीख पुकार , दंगे-फसाद के चीत्कार , इन सबके तर्क के ऊपर सच्चा नेता जैसे सिर्फ़ आत्मा की आवाज सुनता है, और कुछ नहीं सुन पाता ; वही मास्टर मोतीराम के साथ हुआ। उन्होंने और कुछ नहीं सुना। सिर्फ़ 'भक-भक-भक ' सुना।

वे दर्जे से भागे।

लड़कों ने कहा, " क्या हुआ मास्टर साहब? अभी घण्टा नहीं बजा है।"

वे बोले, " लगता है , मशीन ठीक हो गयी। देखें, कैसी चलती है। "

वे दरवाजे तक गये , फिर अचानक वहीं से घूम पड़े। चेहरे पर दर्द-जैसा फैल गया था, जैसे किसी ने ज़ोर से चुटकी काटी हो। वे बोले, " किताब में पढ़ लेना। आपेक्षिक घनत्व का अध्याय जरुरी है।" उन्होंने लार घूँटी। रुककर कहा , "इम्पार्टेंट है।" कहते ही उनका चेहरा फिर खिल गया।

भक ! भक! भक! कर्तव्य बाहर के जटिल कर्मक्षेत्र में उनका आह्वान कर रहा था। लड़कों और किताबों का मोह उन्हें रोक न सका। वे चले गये।


दिन के चार बजे प्रिंसिपल साहब अपने कमरे से बाहर निकले। दुबला-पतला जिस्म, उसके कुछ अंश ख़ाकी हाफ़ पैंट और कमीज़ से ढके थे। पुलिस सार्जेंटोंवाला बेंत बगल में दबा था। पैर में सैंडिल। कुल मिलाकर काफी चुस्त और चालाक दिखते हुए; और जितने थे, उससे ज़्यादा अपने को चुस्त और चालाक समझते हुए।

उनके पीछे-पीछे हमेशा की तरह, कॉलिज का क्लर्क चल रहा था। प्रिंसिपल साहब की उससे गहरी दोस्ती थी।

वे दोनों मास्टर मोतीराम के दर्जे के पास से निकले। दर्जा अस्तबलनुमा इमारत में लगा था। दूर ही से दिख गया कि उसमें कोई मास्टर नहीं है। एक लड़का नीचे से जाँघ तक फटा हुआ पायजामा पहने मास्टर की मेज पर बैठा रो रहा था। प्रिंसिपल को पास से गुजरता देख और ज़ोर से रोने लगा। उन्होंने पूछा , " क्या बात है? मास्टर साहब कहाँ गये हैं?"

वह लड़का अब खड़ा होकर रोने लगा। एक दूसरे लड़के ने कहा , " यह मास्टर मोतीराम का क्लास है।"

फिर प्रिंसिपल को बताने की जरुरत नहीं पड़ी कि मास्टर साहब कहाँ गये। क्लर्क ने कहा , "सिकण्डहैण्ड मशीन चौबीस घण्टे निगरानी माँगती है। कितनी बार मास्टर मोतीराम से कहा कि बेच दो इस आटाचक्की को, पर कुछ समझते ही नहीं हैं। मैं खुद एक बार डेढ़ हजार रुपया देने को तैयार था।"

प्रिंसिपल साहब ने क्लर्क से कहा, "छोड़ो इस बात को! उधर के दर्जे से मालवीय को बुला लाओ।"

क्लर्क ने एक लड़के से कहा, " जाओ, उधर के दर्जे से मालवीय को बुला लाओ। "

थोड़ी देर में एक भला-सा दिखनेवाला नौजवान आता हुआ नजर आया। प्रिंसिपल साहब ने उसे दूर से देखते ही चिल्लाकर कहा, "भाई मालवीय, यह क्लास भी देख लेना।"

मालवीय नजदीक आकर छप्पर का एक बाँस पकड़कर खड़ा हो गया और बोला, " एक ही पीरियड में दो क्लास कैसे ले सकूँगा?"

रोनेवाला लड़का रो रहा था। क्लास के पीछे कुछ लड़के जोर-जोर से हँस रहे थे।

बाकी इन लोगों के पास कुछ इस तरह भीड़ की शक्ल में खड़े हो गये थे जैसे चौराहे पर ऐक्सिडेंट हो गया हो।


प्रिंसिपल साहब ने आवाज तेज करके कहा, " ज्यादा कानून न छाँटो। जब से तुम खन्ना के साथ उठने-बैठने लगे हो, तुम्हें हर काम में दिक्कत मालूम होती है।"

मालवीय प्रिंसिपल साहब का मुँह देखता रह गया। क्लर्क ने कहा, "सरकारी बसवाला हिसाब लगाओ मालवीय। एक बस बिगड़ जाती है तो सब सवारियाँ पीछे आनेवाली दूसरी बस में बैठा दी जाती हैं। इन लड़कों को भी वैसे ही अपने दर्जे में ले जाकर बैठा लो। "

उसने बहुत मीठी आवाज में कहा, "पर यह तो नवाँ दर्जा है। मैं वहाँ सातवें को पढ़ा रहा हूँ। "

हमका अब प्रिंसिपली करै न सिखाव भैया। जौनु हुकुम है, तौनु चुप्पे कैरी आउट करौ। समझ्यो कि नाहीं

प्रिंसिपल साहब की गरदन मुड़ गयी। समझनेवाले समझ गये कि अब उनके हाथ हाफ़ पैंट की जेबों में चले जायेंगे और वे चीखेंगे। वही हुआ। वे बोले, "मैं सब समझता हूँ। तुम भी खन्ना की तरह बहस करने लगे हो। मैं सातवें और नवें का फर्क समझता हूँ। हमका अब प्रिंसिपली करै न सिखाव भैया। जौनु हुकुम है, तौनु चुप्पे कैरी आउट करौ। समझ्यो कि नाहीं?"

प्रिंसिपल साहब पास के ही गाँव के रहने वाले थे। दूर-दूर के इलाकों में वे अपने दो गुणों के लिए विख्यात थे। एक तो खर्च का फर्जी नक्शा बनाकर कॉलिज के लिए ज्यादा-से- ज्यादा सरकारी पैसा खींचने के लिए, दूसरे गुस्से की चरम दशा में स्थानीय अवधी बोली का इस्तेमाल करने के लिए। जब वे फर्जी नक्शा बनाते थे तो बड़ा-से-बड़ा ऑडीटर भी उसमें कलम न लगा सकता था; जब वे अवधी बोलने लगते थे तो बड़ा-से -बड़ा तर्कशास्त्री भी उनकी बात का जवाब न दे सकता था।

जब वे फर्जी नक्शा बनाते थे तो बड़ा-से-बड़ा ऑडीटर भी उसमें कलम न लगा सकता था; जब वे अवधी बोलने लगते थे तो बड़ा-से -बड़ा तर्कशास्त्री भी उनकी बात का जवाब न दे सकता था।

मालवीय सिर झुकाकर वापस चला गया। प्रिंसिपल साहब ने फटे पायजामेवाले लड़के की पीठ पर एक बेंत झाड़कर कहा , "जाओ। उसी दर्जे में जाकर सब लोग चुपचाप बैठो। जरा भी साँस ली तो खाल खींच लूँगा।"

लड़कों के चले जाने पर क्लर्क ने मुस्कराकर कहा, "चलिए, अब खन्ना मास्टर का भी नज़ारा देख लें।"

खन्ना मास्टर का असली नाम खन्ना था। वैसे ही, जैसे तिलक, पटेल , गाँधी, नेहरु-आदि हमारे यहाँ जाति के नहीं, बल्कि व्यक्ति के नाम हैं। इस देश में जाति-प्रथा को खत्म करने की यही एक सीधी-सी तरकीब है। जाति से उसका नाम छीनकर उसे किसी आदमी का नाम बना देने से जाति के पास और कुछ नहीं रह जाता। वह अपने -आप ख़त्म हो जाती है।


इस देश में जाति-प्रथा को खत्म करने की यही एक सीधी-सी तरकीब है। जाति से उसका नाम छीनकर उसे किसी आदमी का नाम बना देने से जाति के पास और कुछ नहीं रह जाता। वह अपने -आप ख़त्म हो जाती है।

खन्ना मास्टर इतिहास के लेक्चरार थे, पर इस वक्त इण्टरमीजिएट के दर्जे में अंग्रेजी पड़ा रहे थे। वे दाँत पीसकर कह रहे थे , " हिन्दी में तो बड़ी -बड़ी प्रेम-कहानियाँ लिखा करते हो पर अंग्रेजी में कोई जवाब देते हुए मुँह घोडे़-जैसा लटक जाता है।"

एक लड़का दर्जे में सिर लटकाये खड़ा था। वैसे तो घी-दूध की कमी और खेल -कूद की तंगी से हर औसत विद्यार्थी मरियल घोड़े-जैसा दिखता है, पर इस लड़के के मुँह की बनावट कुछ ऐसी थी कि बात इसी पर चिपककर रह गयी थी। दर्जे के लड़के जोर से हँसे। खन्ना मास्टर ने अंग्रेजी में पूछा, "बोलो, 'मेटाफर' का क्या अर्थ है?"

लड़का वैसे ही खड़ा रहा। कुछ दिन पहले इस देश में शोर मचा था कि अपढ़ आदमी बिना सींग-पूँछ का जानवर होता है। उस हल्ले में अपढ़ आदमियों के बहुत से लड़कों ने देहात में हल और कुदालें छोड़ दीं और स्कूलों पर हमला बोल दिया। हज़ारों की तादाद में आये हुए ये लड़के स्कूलों, कॉलिजों, यूनिवर्सिटियों को बुरी तरह से घेरे हुए थे। शिक्षा के मैदान में भभ्भड़ मचा हुआ था। अब कोई यह प्रचार करता हुआ नहीं दीख पड़ता था कि अपढ़ आदमी जानवर की तरह है। बल्कि दबी जबान में यह कहा जाने लगा था कि ऊँची तालीम उन्हीं को लेना चाहिए जो उसके लायक हों, इसके लिए 'स्क्रीनिंग ' होना चाहिए। इस तरह घुमा-फिराकर इन देहाती लड़कों को फिर से हल की मूठ पकड़ाकर खेत में छोड़ देने की राय दी जा रही थी। पर हर साल फेल होकर , दर्जे में सब तरह की डाँट-फटकार झेलकर और खेती की महिमा पर नेताओं के निर्झरपंथी व्याख्यान सुनकर भी वे लड़के हल और कुदाल की दुनिया में वापस जाने को तैयार न थे। वे कनखजूरे की तरह स्कूल से चिपके हुए थे और किसी भी कीमत पर उससे चिपके रहना चाहते थे।

घोड़े के मुँहवाला यह लड़का भी इसी भीड़ का एक अंग था ; दर्जे में उसे घुमा -फिराकर रोज-रोज बताया जाता कि जाओ बेटा, जाकर अपनी भैंस दुहो और बैलों की पूँछ उमेठो; शेली और कीट्स तुम्हारे लिए नहीं हैं। पर बेटा अपने बाप से कई शताब्दी आगे निकल चुका था और इन इशारों को समझने के लिए तैयार नहीं था। उसका बाप आज भी अपने बैलों के लिए बारहवीं शताब्दी में प्रचलित गँडासे से चारा काटता था। उस वक्त लड़का एक मटमैली किताब में अपना घोड़े- सा मुँह छिपाकर बीसवीं शताब्दी के कलकत्ते की रंगीन रातों पर गौर करता रहता था। इस हालत में वह कोई परिवर्तन झेलने को तैयार न था। इसलिए वह मेटाफर का मतलब नहीं बता सकता था और न अपने मुँह की बनावट पर बहस करना चाहता था।

कॉलिज के हर औसत विद्यार्थी की तरह यह लड़का भी पोशाक के मामले में बेतकल्लुफ था। इस वक्त वह नंगे पाँव, एक ऐसे धारीदार कपड़े का मैला पायजामा पहने हुए खड़ा था जिसे शहरवाले प्रायः स्लीपिंग सूट के लिए इस्तेमाल करते हैं। वह गहरे कत्थई रंग की मोटी कमीज़ पहने था, जिसके बटन टूटे थे। सिर पर रुखे और कड़े बाल थे। चेहरा बिना धुला हुआ और आँखें गिचपिची थीं। देखते ही लगता था, वह किसी प्रोपेगैंडा के चक्कर में फँसकर कॉलिज की ओर भाग आया है।

लड़के ने पिछले साल किसी सस्ती पत्रिका से एक प्रेम-कथा नकल करके अपने नाम से कॉलिज की पत्रिका में छाप दी थी। खन्ना मास्टर उसकी इसी ख़्याति पर कीचड़ उछाल रहे थे। उन्होंने आवाज बदलकर कहा, " कहानीकार जी, कुछ बोलिए तो, मेटाफर क्या चीज होती है?"

लड़के ने अपनी जाँघें खुजलानी शुरु कर दीं। मुँह को कई बार टेढ़ा-मेढ़ा करके वह आखिर में बोला , "जैसे महादेवीजी की कविता में वेदना का मेटाफर आता है----। "

खन्ना मास्टर ने कड़ककर कहा, "शट-अप! यह अंग्रेजी का क्लास है।" लड़के ने जाँघें खुजलानी बन्द कर दीं।
वे ख़ाकी पतलून और नीले रंग की बुश्शर्ट पहने थे और आँखों पर सिर्फ चुस्त दिखने के लिए काला चश्मा लगाये थे।


वे ख़ाकी पतलून और नीले रंग की बुश्शर्ट पहने थे और आँखों पर सिर्फ चुस्त दिखने के लिए काला चश्मा लगाये थे। कुर्सी के पास से निकलकर वे मेज के आगे आ गये। अपने कूल्हे का एक संक्षिप्त भाग उन्होंने मेज से टिका लिया। लड़के को वे कुछ और कहने जा रहे थे , तभी उन्होंने क्लास के पिछले दरवाजे पर प्रिंसिपल साहब को घूरते पाया। उन्हें बरामदे में खड़े हुए क्लर्क का कन्धा-भर दीख पड़ा।

वे मेज़ का सहारा छोड़कर सीधे खड़े हो गये और बोले, "जी , शेली की एक कविता पढ़ा रहा था। "

प्रिंसिपल ने एक शब्द पर दूसरा शब्द पर दूसरा शब्द लुढ़काते हुए तेज़ी से कहा, " पर आपकी बात सुन कौन रहा है? ये लोग तो तस्वीरें देख रहे हैं।"

वे कमरे के अन्दर आ गये। बारी-बारी से दो लड़कों की पीठ में उन्होंने अपना बेंत चुभोया। वे उठकर खड़े हो गये। एक गन्दे पायजामे, बुश्शर्ट और तेल बहाते हुए बालोंवाला चीकटदार लड़का था; दूसरा घुटे सिर , कमीज और अण्डरवियर पहने हुए पहलवानी धज का। प्रिंसिपल साहब ने उनसे कहा, "यही पढ़ाया जा रहा है?"

झुककर उन्होंने पहले लड़के की कुर्सी से एक पत्रिका उठा ली। यह सिनेमा का साहित्य था। एक पन्ना खोलकर उन्होंने हवा में घुमाया। लड़कों ने देखा, किसी विलायती औरत के उरोज तस्वीर में फड़फड़ा रहे हैं। उन्होंने पत्रिका जमीन पर फेंक दी और चीखकर अवधी में बोले, "यहै पढ़ि रहे हौ?"

कमरे में सन्नाटा छा गया। 'महादेवी की वेदना ' का प्रेमी मौका ताककर चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गया। प्रिंसिपल साहब ने क्लास के एक छोर से दूसरे छोर पर खड़े हुए खन्ना मास्टर को ललकारकर कहा, " आपके दर्जे में डिसिप्लिन की यह हालत है! लड़के सिनेमा की पत्रिकाएँ पढ़ते हैं! और आप इसी बूते पर जोर डलवा रहे हैं कि आपको वाइस प्रिंसिपल बना दिया जाये! इसी तमीज से वाइस प्रिंसिपली कीजियेगा! भइया, यहै हालु रही तौ वाइस प्रिंसिपली तो अपने घर रही, पारसाल की जुलाई माँ डगर-डगर घूम्यौ।"

कहते -कहते अवधी के महाकवि गोस्वामी तुलसीदास की आत्मा उनके शरीर में एक ओर से घुसकर दूसरी ओर से निकल गयी। वे फिर खड़ी बोली पर आ गये, "पढ़ाई-लिखाई में क्या रखा है! असली बात है डिसिप्लिन ! समझे, मास्टर साहब?"

यह कहकर प्रिंसिपल उमर खैयाम के हीरो की तरह, "मै पानी-जैसा आया था औ' आँधी-जैसा जाता हूँ " की अदा से चल दिये। पीठ-पीछे उन्हें खन्ना मास्टर की भुनभुनाहट सुनायी दी।

वे कॉलिज के फाटक से बाहर निकले। सड़क पर पतलून-कमीज पहने हुए एक आदमी आता हुआ दीख पड़ा। साइकिल पर था। पास से जाते-जाते उसने प्रिंसिपल साहब को और प्रिंसिपल साहब ने उसे सलाम किया। उसके निकल जाने पर क्लर्क ने पूछा, "यह कौन चिडीमार है?"

"मलेरिया-इंसपेक्टर है--नया आया है। बी.डी. ओ. का भांजा लगता है। बड़ा फितरती है। मैं कुछ बोलता नहीं। सोचता हूँ, कभी काम आयेगा। कभी काम आयेगा।"

आजकल ऐसे ही चिड़ीमारों से काम बनता है। कोई शरीफ आदमी तो कुछ करके देता ही नहीं।

क्लर्क ने कहा, "आजकल ऐसे ही चिड़ीमारों से काम बनता है। कोई शरीफ आदमी तो कुछ करके देता ही नहीं। "

थोड़ी देर तक दोनों चुपचाप सड़क पर चलते रहे। प्रिंसिपल ने अपनी बात फिर से शुरु की, "हर आदमी से मेल-जोल रखना ज़रुरी है। इस कॉलिज के पीछे गधे तक को बाप कहना पड़ता है।"

क्लर्क ने कहा, "सो तो देख रहा हूँ। दिन-भर आपको यही करते बीतता है।"

वे बोले, "बताइए, मुझसे पहले भी यहाँ पाँच प्रिंसिपल रह चुके हैं। कौनो बनवाय पावा इत्ती बड़ी पक्की इमारत ?" वे प्रकृतिस्थ हुए, " यहाँ सामुदायिक केन्द्र बनवाना मेरा ही बूता था। है कि नहीं?"

क्लर्क ने सर हिलाकर 'हाँ' कहा।

थोड़ी देर में वे चिन्तापूर्वक बोले, "मैं फिर इसी टिप्पस में हूँ कि कोई चण्डूल फँसे तो इमारत के एकाध ब्लाक और बनवा डाले जायें।"

क्लर्क चुपचाप साथ-साथ चलता रहा। अचानक ठिठककर खड़ा हो गया। प्रिंसिपल साहब भी रुक गये। क्लर्क बोला, "दो इमारतें बननेवाली हैं। "

प्रिंसिपल ने उत्साह से गर्दन उठाकर कहा, "कहाँ ?"

"एक तो अछूतों के लिए चमड़ा कमाने की इमारत बनेगी। घोड़ा- डॉक्टर बता रहा था। दूसरे, अस्पताल के लिए हैज़े का वार्ड बनेगा। वहाँ ज़मीन की कमी है। कॉलिज ही के आसपास टिप्पस से ये इमारतें बनवा लें--फिर धीरे- से हथिया लेंगे।"

प्रिंसिपल साहब निराशा से साँस छिड़कर आगे चल पड़े। कहने लगे, "मुझे पहले ही मालूम था। इनमें टिप्पस नहीं बैठेगा।"

कुछ देर दोनों चुपचाप चलते रहे।

सड़क के किनारे एक आदमी दो-चार मज़दूरों को इकट्ठा करके उन पर बिगड़ रहा था। प्रिंसिपल साहब उनके पास खड़े हो गये। दो-चार मिनट उन्होंने समझने की कोशिश की कि वह आदमी क्यों बिगड़ रहा है। मज़दूर गिड़गिड़ा रहे थे। प्रिंसिपल ने समझ लिया कि कोई ख़ास बात नहीं है, मजदूर और ठेकेदार सिर्फ अपने रोज -रोज के तरीकों का प्रदर्शन कर रहे हैं और बातचीत में ज़िच पैदा हो गयी है। उन्होंने आगे बढ़कर मजदूरों से कहा, " जाओ रे, अपना-अपना काम करो। ठेकेदार साहब से धोखाधड़ी की तो जूता पड़ेगा।"

मजदूरों ने प्रिंसिपल साहब की ओर कृतज्ञता से देखा। फुरसत पाकर वे अपने-अपने काम में लग गये। ठेकेदार ने प्रिंसिपल से आत्मीयता के साथ कहा, " सब बेईमान हैं। जरा-सी आँख लग जाये तो कान का मैल तक निकाल ले जायें। ड्योढ़ी मजदूरी माँगते हैं और काम का नाम सुनकर काँखने लगते हैं। "

प्रिंसिपल साहब ने कहा , " सब तरफ यही हाल है। हमारे यहाँ ही लीजिए--कोई मास्टर पढ़ाना थोड़े ही चाहता है? पीछे पड़ा रहता हूँ तब कहीं---!"

वह आदमी ठठाकर हँसा। बोला, "मुझे क्या बताते हैं? यही करता रहता हूँ। सब जानता हूँ।" रुककर उसने पूछा , "इधर कहाँ जा रहे थे?"

इसका जवाब क्लर्क ने दिया, " वैद्यजी के यहाँ। चेकों पर दस्तखत करना है।"

"करा लाइए।" उसने प्रिंसिपल को खिसकने का इशारा दिया। जब वे चल दिये तो उसने पूछा, "और क्या हाल-चाल है?"

प्रिंसिपल रुक गये। बोले , "ठीक ही है। वही खन्ना-वन्ना लिबिर- सिबिर कर रहे हैं , आप लोगों के और मेरे खिलाफ प्रोपेगैंडा करते घूम रहे हैं।"

उसने जोर से कहा , " आप फिक्र न कीजिए। ठाठ से प्रिंसिपली किये जाइए। उनको बता दीजिए कि प्रोपेगैंडा का जवाब है डण्डा। कह दीजिए कि यह शिवपालगंज है, ऊँचा-नीचा देखकर चलें।"

प्रिंसिपल साहब अब आगे बढ़ गये तो क्लर्क बोला, " ठेकेदार साहब को भी कॉलिज-कमेटी का मेम्बर बनवा लीजिए। काम आयेंगे।"

प्रिंसिपल साहब सोचते रहे। क्लर्क ने कहा, " चार साल पहले की तारीख में संरक्षकवाली रसीद काट देंगे। प्रबन्धक कमेटी में भी इनका होना जरुरी है। तब ठीक रहेगा।"

प्रिंसिपल साहब ने तत्काल कोई जवाब नहीं दिया। कुछ रुककर बोले, "वैद्यजी से बात की जायेगी। ये ऊँची पालिटिक्स की बातें हैं। हमारे -तुम्हारे कहने से क्या होगा?"

एक दूसरा आदमी साइकिल पर जाता हुआ दिखा। उसे उतरने का इशारा करके प्रिंसिपल साहब ने कहा, " नन्दापुर में चेचक फैल रही है और आप यहाँ झोला दबाये हुए शायरी कर रहे हैं?"

उसने हाथ जोड़कर पूछा , " कब से? मुझे तो कोई इत्तिला नहीं है।"

जिसकी दुम में अफसर जुड़ गया , समझ लो, अपने को अफलातून समझने लगा।

प्रिंसिपल साहब ने भौंहें टेढ़ी करके कहा, "तुम्हें शहर से फुरसत मिले तब तो इत्तिला हो। चुपचाप वहाँ जाकर टीके लगा आओ, नहीं तो शिकायत हो जायेगी। कान पकड़कर निकाल दिये जाओगे। यह टेरिलीन की बुश्शर्ट रखी रह जायेगी।"

वह आदमी घिघियाता हुआ आगे बढ़ गया। प्रिंसिपल साहब क्लर्क से बोले' "ये यहाँ पब्लिक हेल्थ के ए.डी .ओ. हैं। जिसकी दुम में अफसर जुड़ गया , समझ लो, अपने को अफलातून समझने लगा।"

"ये भी न जाने अपने को क्या लगाते हैं! राह से निकल जाते हैं, पहचानते तक नहीं।"

"मैंने भी सोचा, बेटा को झाड़ दिया दिया जाये।"

क्लर्क ने कहा, "मैं जानता हूँ। यह भी एक ही चिड़ीमार है। "

लेखक: श्रीलाल शुक्ल
टंकण सहयोग:समीर लाल
अध्याय:1 । 2 । 3 ।4 ।5 । 6 । 7 ।8 । 9। 10 । 11 । 12 । 13

Saturday, November 11, 2006

2. वे पैदाइशी नेता थे

थाना शिवपालगंज में एक आदमी ने हाथ जोड़कर दरोगाजी से कहा, "आजकल होते-होते कई महीने बीत गये। अब हुजूर हमारा चालान करने में देर ना करें।"

मध्यकाल का कोई सिंहासन रहा होगा जो अब घिसकर आरामकुर्सी बन गया था। दरोगाजी उस पर बैठे भी थे, लेटे भी थे। यह निवेदन सुना तो सिर उठाकर बोले, "चालान भी हो जायेगा। जल्दी क्या है? कौन सी आफ़त आ रही है?"

वह आदमी आरामकुर्सी के पास पड़े हुए एक प्रागैतिहासिक मोढ़े पर बैठ गया और कहने लगा, "मेरे लिए तो आफ़त ही है। आप चालान कर दें तो झंझट मिटे।"
दरोगाजी भुनभुनाते हुए किसी को गाली देने लगे। थोड़ी देर में उसका यह मतलब निकला कि काम के मारे नाक में दम है।

दरोगाजी भुनभुनाते हुए किसी को गाली देने लगे। थोड़ी देर में उसका यह मतलब निकला कि काम के मारे नाक में दम है। इतना काम है कि अपराधों की जाँच नहीं हो पाती, मुकदमों का चालान नहीं हो पाता, अदालतों में गवाही नहीं हो पाती। इतना काम है कि सारा काम ठप्प पड़ा है।

मोढ़ा आरामकुर्सी के पास खिसक आया। उसने कहा, "हुजूर, दुश्मनों ने कहना शुरू कर दिया है कि शिवपालगंज में दिन-दहाड़े जुआ होता है। कप्तान के पास एक गुमनाम शिकायत गयी है। वैसे भी समझौता साल में एक बार चालान करने का है। इस साल चालान होने में देर हो रही है। इसी वक्त हो जाये तो लोगों की शिकायत भी खत्म हो जायेगी।"

यहाँ बैठकर अगर कोई चारों ओर निगाह दौड़ाता तो उसे मालूम होता, वह इतिहास के किसी कोने में खड़ा है। अभी इस थाने के लिए फ़ाउंटेनपेन नहीं बना था, उस दिशा में कुल इतनी तरक्की हुई थी कि कलम सरकण्डे का नहीं था। यहाँ के लिए अभी टेलीफ़ोन की ईजाद नहीं हुई थी। हथियारों में कुछ प्राचीन राइफ़लें थीं जो, लगता था, गदर के दिनों में इस्तेमाल हुई होंगी। वैसे, सिपाहियों के साधारण प्रयोग के लिए बाँस की लाठी थी, जिसके बारे में एक कवि ने बताया है कि वह नदी-नाले पार करने में और झपटकर कुत्ते को मारने में उपयोगी साबित होती है। यहाँ के लिए अभी जीप का अस्तित्व नहीं था। उसका काम करने के लिए दो-तीन चौकीदारों के प्यार की छाँव में पलने वाली घोड़ा नाम की एक सवारी थी, जो शेरशाह के जमाने में भी हुआ करती थी।
थाने के अंदर आते ही आदमी को लगता था कि उसे किसी ने उठाकर कई सौ साल पहले फ़ेंक दिया है।


थाने के अंदर आते ही आदमी को लगता था कि उसे किसी ने उठाकर कई सौ साल पहले फ़ेंक दिया है। अगर उसने अमरीकी जासूसी उपन्यास पढ़े हों, तो वह बिलबिलाकर देखना चाहता है कि उँगलियों के निशान देखने वाले शीशे, कैमरे, वायरलैस लगी हुई गाड़ियाँ- ये सब कहाँ हैं? बदले में उसे सिर्फ़ वह दिखता जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है। साथ ही, एक नंग-धडंग लंगोटबंद आदमी दिखता जो सामने इमली के पेड़ के नीचे भंग घोंट रहा होता। बाद में पता चलता कि वह अकेला आदमी बीस गाँवों की सुरक्षा के लिए तैनात है और जिस हालत में जहाँ है, वहीं से उसी हालत में वह बीस गाँवों में अपराध रोक सकता है, अपराध हो गया हो तो उसका पता लगा सकता है और अपराध न हुआ हो, तो उसे करा सकता है। कैमरा, शीशा, कुत्ते, वायरलैस उसके लिए वर्जित हैं। इस तरह थाने का वातावरण बड़ा ही रमणीक और बीते दिनों के गौरव के अनुकूल था। जिन रोमांटिक कवियों को बीते दिनों की याद सताती है, उन्हें कुछ दिन रोके रखने के लिए ये आदर्श स्थान था।
जनता को दरोगाजी और थाने के सिपहियों से बड़ी-बड़ी आशायें थीं। ढाई-तीन सौ गाँवों के उस थाने में अगर आठ मील दूर किसी गाँव में नकब लगे तो विश्वास किया जाता था कि इनमें से कोई-न-कोई उसे जरूर देख लेगा। बारह मील की दूरी पर अगर रात के वक्त डाका पड़े, तो इनसे उम्मीद थी कि ये वहाँ डाकुओं से पहले ही पहुँच जायेंगे। इसी विश्वास पर किसी भी गाँव में इक्का-दुक्का बंदूकों को छोड़कर हथियार नहीं दिये गये थे। हथियार देने से डर था कि गाँव में रहने वाले असभ्य और बर्बर आदमी बंदूकों का इस्तेमाल करना सीख जायेंगे, जिससे वे एक-दूसरे की हत्या करने लगेंगे, खून की नदियाँ बहने लगेंगी। जहाँ तक डाकुओं से उनकी सुरक्षा का सवाल था, वह दरोगाजी और उनके दस-बारह आदमियों की जादूगरी पर छोड़ दिया गया था।

उनकी जादूगरी का सबसे बड़ा प्रदर्शन खून के मामलों में होने की आशा की जाती थी, क्योंकि समझा जाता था कि इन तीन सौ गाँवों में रहने वालों के मन में किसके लिए घृणा है, किससे दुश्मनी है, किसको कच्चा चबा जाने का उत्साह है, इसक वे पूरा-पूरा ब्यौरा रखेंगे; और पहले से ही कुछ ऐसी तरकीब करेंगे कि कोई किसी को मार ना सके; और अगर कोई किसी को मार दे तो वे हवा की तरह मौके पर जाकर पकड़ लेंगे, उसके खून से तर मिट्‍टी को हाँड़ी में भर लेंगे और उसके मरने का दृश्य देखने वालों को दिव्य-दृष्टि देंगे ताकि वे किसी भी अदालत में, जो कुछ हुआ है, उसका महाभारत के संजय की तरह आँखों-देखा हाल बता सकें। संक्षेप में, दरोगाजी और उनके सिपाहियों को वहाँ पर मनुष्य नहीं, बल्कि अलादीन के चिराग से निकलने वाला दैत्य समझकर रखा गया था। उन्हें इस तरह रखकर १९४७ में अंग्रेज अपने देश चले गये थे और उसके बाद ही धीरे-धीरे लोगों पर यह राज खुलने लगा था कि ये लोग दैत्य नहीं हैं, बल्कि मनुष्य हैं; और ऐसे मनुष्य हैं जो खुद दैत्य निकालने की उम्मीद में दिन-रात अपना-अपना चिराग घिसते रहते हैं।

शिवपालगंज के जुआरी संघ के मैनेजिंग डायरेक्टर के चले जाने पर दरोगाजी ने एक बार सिर उठाकर चारों ओर देखा। सब तरफ़ अमन था। इमली के पेड़ के नाचे भंग घोंटने वाला लंगोटबंद सिपाही अब नजदीक रखे हुए शिवलिंग पर भंग चढ़ा रहा था, घोड़े के पुट्ठों पर एक चौकीदार खरहरा कर रहा था, हवालात में बैठा हुआ एक डकैत जोर-जोर से हनुमान-चालीसा पढ़ रहा था, बाहर फ़ाटक पर ड्यूटी देने वाला सिपाही- निश्चय ही रात को मुस्तैदी से जागने के लिए- एक खंबे के सहारे टिककर सो रहा था।

दरोगाजी ने ऊँघने के लिए पलक बंद करना चाहा, पर तभी उनको रुप्पन बाबू आते हुए दिखाई पड़े। वे भुनभुनाये कि पलक मारने की फ़ुर्सत नहीं है। रुप्पन बाबू के आते ही वे कुर्सी से खड़े हो गये और विनम्रता-सप्ताह बहुत पहले बीत जाने के बावजूद, उन्होंने विनम्रता से हाथ मिलाया।


दरोगाजी ने ऊँघने के लिए पलक बंद करना चाहा, पर तभी उनको रुप्पन बाबू आते हुए दिखाई पड़े। वे भुनभुनाये कि पलक मारने की फ़ुर्सत नहीं है। रुप्पन बाबू के आते ही वे कुर्सी से खड़े हो गये और विनम्रता-सप्ताह बहुत पहले बीत जाने के बावजूद, उन्होंने विनम्रता से हाथ मिलाया। रुप्पन बाबू ने बैठते ही कहा, "रामाधीन के यहाँ लाल स्याही से लिखी हुई चिट्ठी आयी है। डाकुओं ने पाँच हजार रुपया माँगा है। लिखा है अमावस की रात को दक्खिनवाले टीले पर.....।"

दरोगाजी मुस्कुराकर बोले, "यह तो साहब बड़ी ज्यादती है। कहाँ तो पहले डाकू नदी-पहाड़ लाँघकर घर पर रुपया लेने आते थे, अब वे चाहते हैं कोई उन्हीं के घर जाकर रुपया दे आवे।"

रुप्पन बाबू ने कहा, "जी हाँ वह तो देख रहा हूँ। डकैती न हुई, रिश्वत हो गयी।"

दरोगाजी ने भी उसी लहजे में कहा, "रिश्वत, चोरी, डकैती- अब तो सब एक हो गया है.....पूरा साम्यवाद है!"

रुप्पन बाबू बोले, "पिताजी भी यही कहते हैं।"

"वे क्या कहते हैं?"
"रिश्वत, चोरी, डकैती- अब तो सब एक हो गया है.....पूरा साम्यवाद है!"

"......यही कि पूरा साम्यवाद है।"

दोनों हँसे। रुप्पन बाबू ने कहा, "नहीं। मैं मजाक नहीं करता। रामाधीन के यहाँ सचमुच ही ऐसी चिट्ठी आयी है। पिताजी ने मुझे इसीलिए भेजा है। वे कहते हैं कि रामाधीन हमारा विरोधी हुआ तो क्या हुआ, उसे इस तरह न सताया जाये।"

"बहुत अच्छी बात कहते हैं। जिससे बताईये उससे कह दूँ।"

रुप्पन बाबू ने अपनी गढ़े में धँसी हुई आँखों को सिकोड़कर दरोगाजी की ओर देखा। दरोगाजी ने भी उन्हें घूरकर देखा और मुस्कुरा दिये। बोले, "घबराईये नहीं, मेरे यहाँ होते हुए डाका नहीं पड़ेगा।"

रुप्पन बाबू धीरे से बोले, "सो तो मैं जानता हूँ। यह चिट्ठी जाली है। जरा अपने सिपाहियों से भी पुछवा लीजिए। शायद उन्हीं में से किसी ने लिख मारी हो।"

"ऐसा नहीं हो सकता। मेरे सिपाही लिखना नहीं जानते। एकाध हैं जो दस्तखत भर करते हैं।"

रुप्पन बाबू कुछ और कहना चाहते थे, तब तक दरोगाजी ने कहा, "जल्दी क्या है! अभी रामाधीन को रिपोर्ट लिखाने दीजिए....चिट्ठी तो सामने आये।"

थोड़ी देर दोनों चुप रहे। दरोगाजी ने फ़िर कुछ सोचकर कहा, "सच पूछिए तो बताऊँ। मुझे तो इसका संबंध शिक्षा-विभाग से जान पड़ता है।"

"कैसे?"

"और शिक्षा-विभाग से भी क्या आपके कॉलिज से जान पड़ता है।"

रुप्पन बाबू बुरा मान गये, "आप तो मेरे कॉलिज के पीछे पड़े हैं।"

"मुझे लगता है कि रामाधीन के घर यह चिट्ठी आपके कॉलिज के किसी लड़के ने भेजी है। आपका क्या ख्याल है?"

"आप लोगों की निगाह में सारे जुर्म स्कूली लड़के ही करते हैं।" रुप्पन बाबू ने फ़टकारते हुए कहा, "अगर आपके सामने कोई आदमी जहर खाकर मर जाये, तो आप लोग उसे भी आत्महत्या न मानेंगे। यही कहेंगे कि इसे किसी विद्यार्थी ने जहर दिया है।"

"आप ठीक कहते हैं रुप्पन बाबू, जरूरत पड़ेगी तो मैं ऐसा ही कहूँगा। मैं बख्तावरसिंह का चेला हूँ। शायद आप यह नहीं जानते।"

इसके बाद सरकारी नौकरों की बातचीत का वही अकेला मजमून खुल गया कि पहले के सरकारी नौकर कैसे होते थे और आज के कैसे हैं। बख्तावरसिंह की बात छिड़ गयी। दरोगा बख्तावरसिंह एक दिन शाम के वक्त अकेले लौट रहे थे। उन्हें झगरू और मँगरू नाम के दो बदमाशों ने बाग में घेरकर पीट दिया। बात फ़ैल गयी, इसलिए उन्होंने थाने पर अपने पीटे जाने की रिपोर्ट दर्ज करा दी।

दूसरे दिन दोनों बदमाशों ने जाकर उनके पैर पकड़ लिए। कहा, "हुजूर माई-बाप हैं। गुस्से में औलाद माँ-बाप से नालायकी कर बैठे तो माफ़ किया जाता है।"

बख्तावरसिंह ने माँ-बाप का कर्तव्य पूरा करके उन्हें माफ़ कर दिया। उन्होंने औलाद का कर्तव्य पूरा करके बख्तावरसिंह के बुढ़ापे के लिए अच्छा-खासा इंतजाम कर दिया। बात आयी-गयी हो गयी।

पर कप्तान ने इस पर एतराज किया कि, "टुम अपने ही मुकडमे की जाँच कामयाबी से नहीं करा सका टो दूसरे को कौन बचायेगा? अँढेरा ठा टो क्या हुआ? टुम किसी को पहचान नहीं पाया, टो टुमको किसी पर शक करने से कौन रोकने सकटा!"

तब बख्तावरसिंह ने तीन आदमियों पर शक किया। उन तीनों की झगरू और मँगरू से पुश्तैनी दुश्मनी थी। उन पर मुकदमा चला। झगरू और मँगरू ने बख्तावरसिंह की ओर से गवाही दी, क्योंकि मारपीट के वक्त वे दोनों बाग में एक बड़े ही स्वाभाविक करण से, यानी पाखाने की नीयत से, आ गये थे। तीनों को सजा हुई। झगरू-मँगरू के दुश्मनों का ये हाल देखकर इलाके की कई औलादें बख्तावरसिंह के पास आकर रोज प्रार्थना करने लगीं कि माई-बाप, इस बार हमें भी पीटने का मौका दिया जाये। पर बुढ़ापा निबाह करने के लिए झगरू और मँगरू काफ़ी थे। उन्होंने औलादें बढ़ाने से इंकार कर दिया।

रुप्पन बाबू काफ़ी देर हँसते रहे। दरोगाजी खुश होते रहे कि रुप्पन बाबू एक किस्से में ही खुश होकर हँसने लगे हैं, दूसरे की जरूरत नहीं पड़ी। दूसरा किस्सा किसी दूसरे लीडर को हँसाने के काम आयेगा। हँसना बंद करके रुप्पन बाबू ने कहा, "तो आप उन्हीं बख्तावरसिंह के चेले हैं!"

"था। आजादी मिलने के पहले था। पर अब तो हमें जनता की सेवा करनी है। गरीबों का दुख-दर्द बँटाना है। नागरिकों के लिए....."

रुप्पन बाबू उनकी बाँह छूकर बोले, "छोड़िए, यहाँ मुझे और आपको छोड़कर तीसरा कोई भी सुनने वाला नहीं है।"
पर वे ठण्डे नहीं पड़े। कहने लगे, "मैं तो यही कहने जा रहा था कि मैं आजादी मिलने से पहले बख्तावरसिंह का चेला था, अब इस जमाने में आपके पिताजी का चेला हूँ।"

रुप्पन बाबू विनम्रता से बोले, "यह तो आपकी कृपा है, वरना मेरे पिताजी किस लायक हैं?"

वे उठ खड़े हुए। सड़क की ओर देखते हुए, उन्होंने कहा, "लगता है, रामाधीन आ रहा है। मैं जाता हूँ। इस डकैतीवाली चिट्ठी को जरा ठीक से देख लीजियेगा।"
रुप्पन बाबू अठरह साल के थे। वे स्थानीय कालिज की दसवीं कक्षा में पढ़ते थे। पढ़ने से, और खासतौर से दसवीं कक्षा में पढ़ने से, उन्हें बहुत प्रेम था; इसलिए वे उसमें पिछले तीन साल से पढ़ रहे थे।

रुप्पन बाबू अठरह साल के थे। वे स्थानीय कालिज की दसवीं कक्षा में पढ़ते थे। पढ़ने से, और खासतौर से दसवीं कक्षा में पढ़ने से, उन्हें बहुत प्रेम था; इसलिए वे उसमें पिछले तीन साल से पढ़ रहे थे।

रुप्पन बाबू स्थानीय नेता थे। उनका व्यक्तित्व इस आरोप को काट देता था कि इण्डिया में नेता होने के लिए पहले धूप में बाल सफ़ेद करने पड़ते हैं। उनके नेता होने का सबसे बड़ा आधार ये था कि वे सबको एक ही निगाह से देखते थे। थाने में दरोगा और हवालात में बैठा हुआ चोर- दोनों उनकी निगाह में एक थे। उसी तरह इम्तहान में नकल करने वाला विद्यार्थी और कालिज के प्रिंसिपल उनकी निगाह में एक थे। वे सबको दयनीय समझते थे, सबका काम करते थे, सबसे काम लेते थे। उनकी इज्जत थी कि पूँजीवाद के प्रतीक दुकानदार उनके हाथ सामान बेचते नहीं, अर्पित करते थे और शोषण के प्रतीक इक्केवाले उन्हें शहर तक पहुँचाकर किराया नहीं, आशेर्वाद माँगते थे। उनकी नेतागिरी का प्रारंभिक और अंतिम क्षेत्र वहाँ का कालिज था, जहाँ उनका इशारा पाकर सैकड़ों विद्यार्थी तिल का ताड़ बना सकते थे और जरूरत पड़े तो उस पर चढ़ भी सकते थे।
वे पैदायशी नेता थे क्योंकि उनके बाप भी नेता थे। उनके बाप का नाम वैद्यजी था।


वे दुबले-पतले थे, पर लोग उनके मुँह नहीं लगते थे। वे लम्बी गरदन, लंबे हाथ और लंबे पैर वाले आदमी थे। जननायकों के लिए ऊल-जलूल और नये ढंग की पोशाक अनिवार्य समझकर वे सफ़ेद धोती और रंगीन बुश्शर्ट पहनते थे और गले में रेशम का रूमाल लपेटते थे। धोती का कोंछ उनके कंधे पर पड़ा रहता था। वैसे देखने में उनकी शक्ल एक घबराये हुए मरियल बछड़े की-सी थी, पर उनका रौब पिछले पैरों पर खड़े हुए एक हिनहिनाते घोड़े का-सा जान पड़ता था।

वे पैदायशी नेता थे क्योंकि उनके बाप भी नेता थे। उनके बाप का नाम वैद्यजी था।



लेखक: श्रीलाल शुक्ल
टंकण सहयोग:भुवनेश शर्मा
अध्याय:1 । 2 । 3 ।4 ।5 । 6 । 7 ।8 । 9। 10 । 11 । 12 । 13