राग दरबारी

जानेमाने साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल की रचना "राग-दरबारी" समकालीन साहित्य में एक मील का पत्थर है जिसके लिये उन्हें 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला।

Monday, December 04, 2006

8. कर्फ़ोन है सर्फाला?

शिवपालगंज गॉंव था, पर वह शहर से नजदीक और सड़क के किनारे था। इसलिए बड़े बड़े नेताओं और अफसरों को वहॉं तक आने में सैद्धान्तिक एतराज नहीं हो सकता था। कुओं के अलावा वहॉं कुछ हैण्डपम्प भी लगे थे, इसलिए बाहर से आने वाले बड़े लोग प्यास लगने पर, अपनी जान को खतरे में डाले बिना, वहॉं का पानी पी सकते थे। खाने का भी सुभीता था। वहॉं के छोटे मोटे अफसरों में कोई न कोई ऐसा निकल ही आता था जिसके ठाठ बाट देख कर वहॉं वाले उसे परले सिरे का बेईमान समझते, पर जिसे देख कर ये बाहरी लोग आपस में कहते, कितना तमीजदार है। बहुत बड़े खानदान का लड़का है। देखो न, इसे चीको साहब की लड़की ब्याही है। इसलिए भूख लगने पर अपनी ईमानदारी को खतरे में डाले बिना वे लोग वहॉं खाना भी खा सकते थे। कारण जो भी रहा हो, उस मौसम में शिवपालगंज में जन नायकों और जन सेवकों का आना जाना बड़े जोर से शुरू हुआ था। उन सबको शिवपालगंज के विकास की चिन्ता थी और नतीजा यह होता था कि वे लेक्चर देते थे।

वे लेक्चर गँजहों के लिए विशेष रूप से दिलचस्प थे, क्योंकि इनमें प्रायः शुरू से ही वक्ता श्रोता को और श्रोता वक्ता को बेवकूफ मानकर चलता था जो कि बातचीत के उद्देश्य से गँजंहों के लिए आदर्श परिस्थिति है। फिर भी लेक्चर इतने ज्यादा होते थे कि दिलचस्पी के बावजूद, लोगों को अपच हो सकता था। लेक्चर का मजा तो तब है जब सुनने वाले भी समझें कि यह बकवास कर रहा है और बोलने वाला भी समझे कि मैं बकवास कर रहा हूं। पर कुछ लेक्चर देने वाले इतनी गम्भीरता से चलते कि सुनने वाले को कभी-कभी लगता था यह आदमी अपने कथन के प्रति सचमुच ईमानदार है। ऐसा सन्देह होते ही लेक्चर गाढ़ा और फीका बन जाता था और उसका श्रोताओं के हाजमे के बहुत खिलाफ पड़ता है। यह सब देख कर गँजंहों ने अपनी-अपनी तन्दुरुस्ती के अनुसार लेक्चर ग्रहण करने का समय चुन लिया था, कोई सवेरे खाना खाने के पहले लेक्चर लेता था, कोई दोपहर को खाना खाने के बाद। ज्यादातर लोग लेक्चर की सबसे बड़ी मात्रा दिन के तीसरे पहर ऊँघने और शाम को जागने के बीच में लेते थे।

लेक्चर का मजा तो तब है जब सुनने वाले भी समझें कि यह बकवास कर रहा है और बोलने वाला भी समझे कि मैं बकवास कर रहा हूं।

उन दिनों गांव में लेक्चर का मुख्य विषय खेती था। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि पहले कुछ और था। वास्तव में पिछले कुछ कई सालों से गांववालों को फुसलाकर बताया जा रहा था कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है। गांववाले इस बात का विरोध नहीं करते थे, पर प्रत्येक वक्ता शुरू से ही यह मान कर चलता था कि गांववाले इस बात का विरोध करेंगे। इसीलिए वे एक के बाद दूसरा तर्क ढूंढकर लाते थे और यह साबित करने में लगे रहते थे कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है। इसके बाद वे यह बताते थे कि खेती की उन्नति ही देश की उन्नति है। फिर आगे की बात बताने के पहले ही प्रायः दोपहर के खाने का वक्त हो जाता और वह तमीज़दार लड़का, जो बड़े सम्पन्न घराने की औलाद हुआ करता था और जिसको चीको साहब की लड़की ब्याही रहा करती थी, वक्ता की पीठ का कपड़ा खींच-खींचकर इशारे से बताने लगता कि चाचाजी, खाना तैयार है। कभी कभी कुछ वक्तागण आगे की बात भी बता ले जाते थे और तब मालूम होता कि उनकी आगे की और पीछे की बात में कोई फर्क नहीं था, क्योंकि घूम-फिरकर बात यही रहती थी कि भारत एक खेतिहर देश है, तुम खेतिहर हो, तुमको अच्छी खेती करनी चहिए, अधिक अन्न उपजाना चाहिए। प्रत्येक वक्ता इसी सन्देह में गिरफ्तार रहता था कि काश्तकार अधिक अन्न नहीं पैदा करना चाहते।


पिछले कुछ कई सालों से गांववालों को फुसलाकर बताया जा रहा था कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है। गांववाले इस बात का विरोध नहीं करते थे, पर प्रत्येक वक्ता शुरू से ही यह मान कर चलता था कि गांववाले इस बात का विरोध करेंगे।

लेक्चरों की कमी विज्ञापनों से पूरी की जाती थी और एक तरह से शिवपालगंज में दीवारों पर चिपके या लिखे हुए विज्ञापन वहाँ की समस्याओं और उनके समाधानों का सच्चा परिचय देते थे। मिसाल के लिए, समस्या थी कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है और किसान बदमाशी के कारण अधिक अन्न नहीं उपजाते। इसका समाधान यह था कि किसानों के आगे लेक्चर दिया जाये और उन्हे अच्छी अच्छी तस्वीरें दिखायी जायें। उनके द्वारा उन्हे बताया जाये कि तुम अगर अपने लिये अन्न नहीं पैदा करना चाहते तो देश के लिये करो। इसी से जगह जगह पोस्टर चिपके हुए थे जो काश्तकारों से देश के लिये अधिक अन्न पैदा कराना चाहते थे। लेक्चरों और तस्वीरों का मिला जुला असर काश्तकारों पर बड़े जोर से पड़ता था और भोले-से-भोला काश्तकार भी मानने लगता कि हो न हो, इसके पीछे भी कोई चाल है।

शिवपालगंज में उन दिनों एक ऐसा विज्ञापन खासतौर से मशहूर हो रहा था जिसमें एक तन्दुरुस्त काश्तकार सिर पर अँगोछा बाँधे, कानों में बालियाँ लटकाये और बदन पर मिर्जई पहने गेहूँ की ऊँची फसल को हँसिये से काट रहा था। एक औरत उसके पीछे खड़ी हुई, अपने-आपसे बहुत खुश, कृषी विभाग के अफसरों वाली हँसी हंस रही थी। नीचे और ऊपर अंग्रेजी और हिन्दी अक्षरों में लिखा थ, "अधिक अन्न उपजाओ।" मिर्जई और बालीवाले काश्तकारों में जो अंग्रेजी के विद्वान थे, उन्हे अंग्रेजी इबारत से और जो हिन्दी के विद्वान थे, उन्हे हिन्दी से परास्त करने की बात सोची गयी थी; और जो दोनों में से एक भी भाषा नहीं जानते थे, वे भी कम-से-कम आदमी और औरत को तो पहचानते ही थे। उनसे आशा की जाती थी कि आदमी के पीछे हँसती हुई औरत की तस्वीर देखते ही उसकी और पीठ फेर कर दीवानों की तरह अधिक अन्न उपजाना शुरू कर देंगे। यह तस्वीर आजकल कई जगह चर्चा का विषय बनी थी, क्योंकि यहाँ वालों कि निगाह में तस्वीर वाले आदमी की शक्ल कुछ-कुछ बद्री पहलवान से मिलती थी। औरत की शक्ल के बारे में गहरा मतभेद था। वह गाँव की देहाती लड़कियों में से किसकी थी, यह अभी तय नहीं हो पाया था।

वैसे सबसे ज़्यादा जोर-शोर वाले विज्ञापन खेती के लिए नहीं, मलेरिया के बारे में थे। जगह-जगह मकानों की दीवारों पर गेरू से लिखा गया था कि "मलेरिया को खत्म करने में हमरी मदद करो, मच्छरों को समाप्त हो जाने दो।" यहाँ भी यह मान कर चल गया था कि किसान गाय-भैंस की तरह मच्छर भी पालने को उत्सुक हैं और उन्हें मारने के पहले किसानों का हृदय-परिवर्तन करना पड़ेगा। हृदय-परिवर्तन के लिए रोब की जरूरत है, रोब के लिए अंग्रेजी की जरूरत है - इस भारतीय तर्क पद्धति के हिसाब से मच्छर मारने और मलेरिया उन्मूलन में सहायता करने की सभी अपीलें प्रायः अंग्रेजी में लिखी गयी थीं। इसीलिए प्रायः सभी लोगों ने इनको कविता के रूप में नहीं, चित्रकला के रूप में स्वीकार किया था और गेरू से दीवार रंगने वालों को मनमानी अंग्रेजी लिखने की छूट दे दी थी। दीवारें रंगती जाती थीं, मच्छर मरते जाते थे। कुत्ते भूँका करते थे, लोग अपनी राह चलते रहते थे।
हृदय-परिवर्तन के लिए रोब की जरूरत है, रोब के लिए अंग्रेजी की जरूरत है - इस भारतीय तर्क पद्धति के हिसाब से मच्छर मारने और मलेरिया उन्मूलन में सहायता करने की सभी अपीलें प्रायः अंग्रेजी में लिखी गयी थीं।

एक विज्ञापन भोले-भाले ढंग से बताता था कि हमें पैसा बचाना चहिए। पैसा बचाने की बात गांववालों को उनके पूर्वज मरने के पहले ही बता गये थे और लगभग प्रत्येक आदमी को अच्छी तरह मालूम थी। इसमें सिर्फ़ इतनी नवीनता थी कि यहाँ भी देश का जिक्र था, कहीं-कहीं इशारा किया गया था कि अगर तुम अपने लिए पैसा नहीं बचा सकते तो देश के लिए बचाओ। बात बहुत ठीक थी, क्योंकि सेठ-साहूकार, बड़े-बड़े ओहदेदार, वकील डाक्टर - ये सब तो अपने लिए पैसा बचा ही रहे थे, इसलिए छोटे-छोटे किसानों को देश के लिए पैसा बचाने में क्या ऐतराज हो सकता था ! सभी इस बात से सिद्धान्तरूप में सहमत थे कि पैसा बचाना चाहिए। पैसा बचाकर किस तरह कहाँ जमा किया जायेगा, ये बातें भी विज्ञापनों और लेक्चरों में साफतौर से बतायी गयी थीं और लोगों को उनसे भी कोई आपत्ति न थी। सिर्फ़ लोगों को यही नहीं बताया गया था कि कुछ बचाने के पहले तुम्हारी मेहनत के एवज़ में तुम्हे कितना पैसा मिलना चाहिए। पैसे की बचत का सवाल आमदनी और खर्च से जुड़ा हुआ है, इस छोटी सी बात को छोड़कर बाकी सभी बातों पर इन विज्ञापनों में विचार कर लिया गया था और लोगों ने इनको इस भाव से स्वीकार कर लिया था कि ये बिचारे दीवार पर चुपचाप चिपके हुए हैं, न दाना माँगते हैं, न चारा, न कुछ लेते हैं न देते हैं। चलो इन तस्वीरों को छेड़ो नहीं।


पर रंगनाथ को जिन विज्ञापनों ने अपनी ओर खींचा, वे पब्लिक सेक्टर के विज्ञापन न थे, प्राइवेट सेक्टर की देन थे। उनसे प्रकट होने वली बातें कुछ इस प्रकार थी: "उस क्षेत्र में सबसे ज्यादा व्यापक रोग दाद है, एक ऐसी दवा है जिसको दाद पर लगाया जाये तो उसे जड़ से आराम पहुँचता है, मुँह से खाया जाये तो खाँसी-जुकाम दूर होता है, बताशे में डालकर पानी से निगल लिया जाये तो हैजे में लाभ पहुँचता है। ऐसी दवा दुनिया में कहीं नहीं पायी जाती। उसके अविष्कारक अभी तक जिंदा हैं, यह विलायत वालों की शरारत है कि उन्हे आज तक नोबल पुरस्कार नहीं मिला है"।


इस देश में और भी बड़े बड़े डॉक्टर हैं जिनको नोबल पुरस्कार नहीं मिला है। एक कस्बा जहानाबाद में रहते हैं और चूँकि वहाँ बिजली आ चुकी है, इसलिए वे नामर्दी का इलाज बिजली से करते हैं। अब नामर्दों को परेशान होने की जरूरत नहीं है। एक दूसरे डॉक्टर, जो कम-से-कम भारतवर्ष-भर में तो मशहूर हैं ही, बिना ऑपरेशन के अण्ड-वृद्धि का इलाज करते हैं। और यह बात शिवपालगंज में किसी भी दीवार पर तारकोल के हरूफ़ में लिखी हुई पायी जा सकती है। वैसे बहुत से विज्ञापन बच्चों में सूखा रोग, आँखों की बीमारी और पेचिश आदि से भी सम्बद्ध हैं, पर असली रोग संख्या में कुल तीन ही हैं- दाद, अण्डवृद्धि और नामर्दी; और इनके इलाज की तरकीब शिवपालगंज के लड़के अक्षर-ज्ञान पा लेने के बाद ही दीवारों पर अंकित लेखों के सहारे जानना शुरू कर देते हैं।

विज्ञापनों की इस भीड़ में वैद्यजी का विज्ञापन 'नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश' अपना अलग व्यक्तित्व रखता था। वह दीवारों पर लिखे 'नामर्दी के बिजली से इलाज' जैसे अश्लील लेखों के मुकाबले में नहीं आता था। वह छोटे छोटे नुक्कड़ों, दुकानों और सरकारी इमारतों पर - जिनके पास पेशाब करना और जिन पर विज्ञापन चिपकाना मना था - टीन की खूबसूरत तख्तियों पर लाल-हरे अक्षरों में प्रकट होता था और सिर्फ इतना कहता था, 'नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश' नीचे वैद्यजी का नाम था और उनसे मिलने की सलाह थी।

एक दिन रंगनाथ ने देखा, रोगों की चिकित्सा में एक नया आयाम जुड़ रहा है। सवेरे से ही कुछ लोग दीवार पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख रहे हैं : बवसीर ! शिवपालगंज की उन्नति का लक्षण था। बवासीर के चार आदमकद अक्षर चिल्लाकर कह रहे थे कि यहाँ पेचिश का युग समाप्त हो गया है, मुलायम तबीयत, दफ़्तर की कुर्सी, शिष्टतापूर्ण रहन-सहन, चौबीस घण्टे चलनेवाले खान-पान और हल्के परिश्रम का युग धीरे-धीरे संक्रमण कर रहा है और आधुनिकता के प्रतीक-जैसे बवासीर सर्वव्यापी नामर्दी का मुकाबला करने के लिये मैदान में आ रही है। शाम तक वह दैत्याकार विज्ञापन एक दीवार पर रंग-बिरंगी छाप छोड़ चुका था और दूर दूर तक ऐलान करने लगा था : बवासीर का शर्तिया इलाज !

देखते-देखते चार-छः दिन मे ही सारा जमाना बवासीर और उसके शर्तिया इलाज के नीचे दब गया। हर जगह वही विज्ञापन चमकने लगा। रंगनाथ को सबसे बड़ा अचम्भा तब हुआ जब उसने देखा, वही विज्ञापन एक दैनिक समाचार-पत्र में आ गया है। यह समाचारपत्र रोज़ दस बजे दिन तक शहर से शिवपालगंज आता था और लोगों को बताने में सहायक होता था कि स्कूटर और ट्रक कहाँ भिड़ा, अब्बासी नामक कथित गुण्डे ने इरशाद नामक कथित सब्जी-फरोश पर कथित छुरी से कहाँ कथित रूप से वार किया। रंगनाथ ने देखा कि उस दिन अखबार के पहले पृष्ठ का एक बहुत बड़ा हिस्सा काले रंग में रंगा हुआ है और उस पर बड़े-बड़े सफेद अक्षरों में चमक रहा है : बवासीर ! अक्षरों की बनावट वही है जो यहाँ दीवारों पर लिखे विज्ञापन में है। उन अक्षरों ने बवासीर को एक नया रूप दे दिया था, जिसके कारण आसपास की सभी चीजें बवासीर की मातहती में आ गयी थीं। काली पृष्ठभूमि में अखबार के पन्ने पर चमकता हुआ 'बवासीर' दूर से ही आदमी को अपने में समेट लेता था। यहां तक कि सनीचर, जिसे बड़े-बड़े अक्षर पढ़ने में भी आंतरिक कष्ट होता था, अखबार के पास खिंच आया और उस पर निगाह गड़ाकर बैठ गया। बहुत देर तक गौर करने के बाद वह रंगनाथ से बोला, "वही चीज है।"

इसमें अभिमान की खनक थी। मतलब यह था कि शिवपालगंज की दीवारों पर चमकने वले विज्ञापन कोई मामूली चीज़ नहीं हैं। ये बाहर अख़बारों में छपते हैं, और इस तरह जो शिवपालगंज में है, वही बाहर अख़बारों में है।

रंगनाथ तख्त पर बैठा रहा। उसके सामने अख़बार का पन्ना तिरछा होकर पड़ा था। अमरीका ने एक नया उपग्रह छोड़ा था, पाकिस्तान-भारत सीमा पर गोलियां चल रही थीं, गेहूँ की कमी के कारण राज्यों का कोटा कम किया जाने वाला था, सुरक्षा-समिति में दक्षिण अफ्रीका के कुछ मसलों पर बहस हो रही थी, इन सब अबाबीलों को अपने पंजे में किसी दैत्याकार बाज़ की तरह दबाकर वह काला-सफेद विज्ञापन अपने तिरछे हरूफ में चीख रहा था: बवासीर ! बवासीर ! इस विज्ञापन के अखबार में छपते ही बवासीर शिवपालगंज और अन्तर्र्राष्ट्रीय जगत के बीच सम्पर्क का एक सफल माध्यम बन चुकी थी।

डाकुओं का आदेश था कि एक विशेष तिथि को विशेष स्थान पर जाकर रामाधीन की तरफ से रुपये की थैली एकान्त में रख दी जाये। डाका डालने की यह पद्धति आज भी देश के कुछ हिस्सों में काफी लोकप्रिय है। पर वास्तव में है यह मध्यकालीन ही, क्योंकि इसके लिये चांदी या गिलट के रुपये और थैली का होना आवश्यक है, जबकि आजकल रुपया नोटों की शक्ल में दिया जा सकता है और पांच हजार रुपये प्रेम-पत्र की तरह किसी लिफाफे में भी आ सकते हैं। ज़रूरत पड़ने पर चेक से भी रुपयों का भुगतान किया जा सकता है। इन कारणों से परसों रात अमुक टीले पर पांच हजार रुपये की थैली रखकर चुपचाप चले जाओ, यह आदेश मानने में व्यावहारिक कठिनाइयां हो सकती हैं। टीले पर छोड़ा हुआ नोटों का लिफाफा हवा में उड़ सकता है, चेक जाली हो सकता है। संक्षेप में, जैसे कला, साहित्य, प्रशासन, शिक्षा आदि के क्षेत्रों में, वैसे ही डकैती के क्षेत्र में भी मध्यकलीन पद्धतियों को आधुनिक युग में लागू करने से व्यावहारिक कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं।
थे।
जैसे कला, साहित्य, प्रशासन, शिक्षा आदि के क्षेत्रों में, वैसे ही डकैती के क्षेत्र में भी मध्यकलीन पद्धतियों को आधुनिक युग में लागू करने से व्यावहारिक कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं।
थे।

जो भी हो, डकैतों ने इन बातों पर विचार नहीं किया था क्योंकि रामाधीन के यहां डाके की चिट्ठी भेजने वाले असली डकैत न थे। उन दिनों गांव-सभा और कॉलेज की राजनीति को लेकर रामाधीन भीखमखेड़वी और वैद्यजी में कुछ तनातनी हो गयी थी। अगर शहर होता और राजनीति ऊँचे दरजे की होती तो ऐसे मौके पर रामाधीन के खिलाफ किसी महिला की तरफ से पुलिस में यह रिपोर्ट आ गयी होती उन्होंने उसका शीलभंग करने की सक्रिय चेष्टा की, पर महिला के सक्रिय विरोध के कारण वे कुछ नहीं कर पाये और वह अपना शील समूचा-का-समूचा लिये हुए सीधे थाने तक आ गयी। पर यह देहात था जहां अभी महिलाओं के शीलभंग को राजनीतिक युद्ध में हैण्डग्रेनेड की मान्यता नहीं मिली थी, इसीलिए वहां कुछ पुरानी तरकीबों का ही प्रयोग किया गया था और बाबू रामाधीन के ऊपर डाकुओं का संकट पैदा करके उन्हें कुछ दिन तिलमिलाने के लिये छोड़ दिया गया था।

पुलिस, रामाधीन भीखमखेड़वी और वैद्यजी का पूरा गिरोह- ये सभी जानते थे कि चिट्ठी फर्जी है। ऐसी चिट्ठियां कई बार कई लोगों के पास आ चुकी थीं। इसलिए रामाधीन पर यह मजबूरी नहीं थी कि वह नीयत तिथि और समय पर रुपये के साथ टीले पर पहुंच जाये। चिट्ठी फर्जी न होती, तब भी रामाधीन शायद चुपचाप रुपया दे देने के मुकाबले घर पर डाका डलवा लेना ज्यादा अच्छा समझते। पर चूंकि रिपोर्ट थाने में दर्ज हो गयी थी, इसलिए पुलिस अपनी ओर से कुछ करने को मजबूर थी।

उस दिन टीले से लेकर गांव तक का स्टेज पुलिस के लिये समर्पित कर दिया गया और उसमें वे डाकू-डाकू का खेल खेलते रहे। टीले पर तो एक थाना-का-थाना ही खुल गया। उन्होंने आसपास के ऊसर, जंगल, खेत-खलिहान सभी कुछ छान डाले, पर डाकुओं का कहीं निशान नहीं मिला। टीले के पास उन्होने पेड़ों की टहनियां हिला कर, लोमड़ियों के बिलों में संगीनें घुसेड़कर और सपाट जगहों को अपनी आंखों से हिप्नोटाइज़ करके इत्मिनान कर लिया कि वहां जो है, वे डाकू नहीं हैं; क्रमशः चिड़ियां, लोमड़ियां और कीड़े मकोड़े हैं। रात को जब बड़े जोर से कुछ प्राणी चिल्लाये तो पता चला कि वे भी डाकू नहीं, सियार हैं और पड़ोस के बाग टीले में जब दूसरे प्राणी बोले तो कुछ देर बाद समझ आ गया कि वे कुछ नहीं, सिर्फ चमगादड़ हैं। उस रात डाकुओं और रामाधीन भीखमखेड़वी के बीच की कुश्ती बराबर पर छूटी, क्योंकि टीले पर न डाकू रुपया लेने के लिये आये और न रामाधीन देने के लिये गये।

उस रात डाकुओं और रामाधीन भीखमखेड़वी के बीच की कुश्ती बराबर पर छूटी, क्योंकि टीले पर न डाकू रुपया लेने के लिये आये और न रामाधीन देने के लिये गये।

थाने के छोटे दरोगा को नौकरी पर आये अभी थोड़े ही दिन हुए थे। टीले पर डाकुओं को पकड़ने का काम उन्हें ही सौंपा गया था, पर सब कुछ करने पर भी वे अपनी माँ को भेजे जाने वाली चिट्ठियों की अगली किश्त में यह लिखने लायक नहीं हुए थे कि माँ, डाकुओं ने मशीनगन तक का इस्तेमाल किया, पर इस भयंकर गोलीकाण्ड में भी तेरे आशीर्वाद से तेरे बेटे का बाल तक बाँका नहीं हुआ। वे रात को लगभग एक बजे टीले से उतरकर मैदान में आये; और चूंकि सर्दी होने लगी थी और अंधेरा था और उन्हे अपनी नगरवासिनी प्रिया की याद आने लगी थी और चूंकि उन्होंने बी. ए. में हिन्दी-साहित्य भी पढ़ा था; इन सब मिले-जुले कारणों से उन्होंने धीरे धीरे कुछ गुनगुनाना शुरू कर दिया और आखिर में गाने लगे, "हाय मेरा दिल ! हाय मेरा दिल !

'तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर' वाली कहावत को चरितार्थ करते उनके आगे भी दो सिपाही थे और पीछे भी। दरोगाजी गाते रहे और सिपही सोचते रहे कि कोई बात नहीं, कुछ दिनों में ठीक हो जायेंगे। मैदान पार करते करते दरोगा जी का गाना कुछ बुलन्दी पर चढ़ गया और साबित करने लगा कि जो बात इतनी बेवकूफी की है कि कही नहीं जा सकती, वह बड़े मजे से गायी जा सकती है।

सड़क पास आ गयी थी। वहीं एक गड्ढे से अचानक आवाज आयी, "कर्फ़ोन है सर्फाला?" दरोगाजी का हाथ अपने रिवाल्वर पर चला गया। सिपहियों ने ठिठक कर राईफलें संभाली; तब तक गड्ढे ने दोबारा आवाज दी "कर्फ़ोन है सर्फाला?"

एक सिपाही ने दरोगाजी के कान में कहा, "गोली चल सकती है। पेड़ के पीछे हो लिया जाये हुजूर!"

पेड़ उनके पास से लगभग पांच गज की दूरी पर था। दरोगाजी ने सिपाही से फुसफुसा कर कहा, "तुम लोग पेड़ के पीछे हो जाओ। मैं देखता हूं।"

इतना कहकर उन्होंने कहा, "गड्ढे में कौन है? जो कोई भी हो बाहर आ जाओ।" फिर एक सिनेमा में देखे दृश्य को याद करके उन्होंने बात जोड़ी, "तुम लोग घिर गये हो। तुम आघे मिनट में बाहर न आये तो गोली चला दी जायेगी।"

गड्ढे में थोड़ी देर खामोशी रही, फिर आवाज आयी, "मर्फ़र गर्फ़ये सर्फ़ाले, गर्फ़ोली चर्फ़लानेवाले।"

प्रत्येक भारतीय, जो अपना घर छोड़कर बाहर निकलता है, भाषा के मामले में पत्थर हो जाता है। इतनी तरह की बोलियां उसके कानों में पड़ती हैं कि बाद में हारकर वह सोचना ही छोड़ देता है कि यह नेपाली है या गुजराती। पर इस भाषा ने दरोगाजॊ को चौकन्ना बना दिया और वे सोचने लगे कि क्या मामला है ! इतना तो समझ में आता है कि इसमें कोई गाली है, पर यह क्यों नही समझ में आता कि यह कौन सी बोली है ! इसके बाद ही जहां बात समझ से बाहर होती है वहीं गोली चलती है - इस अन्तर्राष्ट्रिय सिद्धान्त का शिवपालगंज में प्रयोग करते हुए दरोगाजी ने रिवाल्वर तान लिया और कड़ककर बोले, "गड्ढे से बाहर आ जाओ, नहीं तो मैं गोली चलाता हूं।"

पर गोली चलाने की जरूरत नहीं पड़ी। एक सिपाही ने पेड़ के पीछे से निकल कर कहा, "गोली मत चलाइए हजूर, यह जोगनथवा है। पीकर गद्ढे में पड़ा है।"

सिपाही लोग उत्साह से गद्ढे को घेर कर खड़े हो गए। दरोगाजी ने कहा, " कौन जोगनथवा ?"

एक पुराने सिपाही ने तजुर्बे के साथ कहना शुरू किया, "यह श्री रामनाथ का पुत्र जोगनाथ है। अकेला आदमी है। दारू ज्यादा पीता है।"

लोगों ने जोगनाथ को उठाकर उसके पैरों पर खड़ा किया, पर जो खुद अपने पैरों पर खड़ा नहीं होना चाहता उसे दूसरे कहां तक खड़ा करते रहेंगे ! इसलिए वह लड़खड़ा कर एक बार फिर गिरने को हुआ, बीच में रोका गया और अंत में गड्ढे के ऊपर आकर परमहंसों की तरह बैठ गया। बैठकर जब उसने आंखें मिला-मिला कर, हाथ हिलाकर चमगादड़ों और सियारों की कुछ आवाजें गले से निकालकर अपने को मानवीय स्तर पर बात करने लायक बनाया, तो उसके मुंह से फिर वही शब्द निकले, "कर्फ़ोन है सर्फाला?"

दरोगाजी ने पूछा, "यह बोली कौन सी है?"

एक सिपाही ने कहा, "बोली ही से तो हमने पहचाना कि जोगनाथ है। यह सर्फ़री बोली बोलता है। इस वक्त होश में नही है, इसलिए गालॊ बक रहा है।"

दरोगाजी शायद गाली देने के प्रति जोगनाथ की इस निष्ठा से बहुत प्रभावित हुए कि वह बेहोशी की हालत में भी कम से कम इतना तो कर ही रहा है। उन्होने उसकी गरदन जोर से हिलायी और पकड़ कर बोले, "होश में आ!"

पर जोगनाथ ने होश में आने से इन्कार कर दिया। सिर्फ इतना कहा, "सर्फ़ाले!"
सिपाही हंसने लगे। जिसने उसे पहले पहचाना था, उसने जोगनाथ के कान में चिल्ला कर कहा, "जर्फ़ोगनाथ, हर्फ़ोश में अर्फ़ाओ।"

इसकी भी जोगनाथ पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई; पर दरोगाजी ने एकदम से सर्फ़री बोली सीख ली। उन्होंने मुस्कुराकर कहा, "यह साला हम लोगों को साला कह रहा है।"
उन्होने उसे मारने के लिये अपना हाथ उठाया, पर सिपाही ने रोक लिया। कहा, "जाने भी दें हजूर।"

दरोगाजी को सिपाहियों का मानवतावादी दृष्टिकोण कुछ पसन्द नहीं आ रहा था। उन्होंने अपना हाथ तो रोक लिया, पर आदेश देने के ढंग से कहा, "इसे अपने साथ ले जाओ और हवालात में बंद कर दो। दफा 109 जाब्ता फौजदारी लगा देना।"

एक सिपाही ने कहा, "यह नहीं हो पायेगा हुजूर ! यह यहीं का रहने वाला है। दीवरों पर इश्तिहार रंगा करता है और बात बात पर सर्फ़री बोली बोलता है। वैसे बदमाश है, पर दिखाने के लिये कुछ काम तो करता ही है।"

वे लोग जोगनाथ को उठा कर अपने पैरों पर चलने के लिये मजबूर करते हुए सड़क की और बढ़ने लगे। दरोगाजी ने कहा, " शायद पी कर गाली बक रहा है। किसी न किसी जुर्म की दफा निकल आयेगी। अभी चलकर इसे बन्द कर दो। कल चालान कर दिया जायेगा।"

उस सिपाही ने कहा, "हुजूर! बेमतलब झंझट में पड़ने से क्या फायदा? अभी गांव चलकर इसे इसके घर में ढकेल आयेंगे। इसे हवालात कैसे भेजा जा सकता है? वैद्यजी का आदमी है।"

दरोगाजी नौकरी में नये थे, पर सिपाहियों का मानवतावादी दृष्टिकोण अब वे एकदम समझ गये। वे कुछ नहीं बोले । सिपहियों से थोड़ा पीछे हटकर वे फिर अंधेरे, हल्की ठण्डक, नगरवासिनी प्रिया और 'हाय मेरा दिल' से सन्तोष खींचने की कोशिश करने लगे।

लेखक:श्रीलाल शुक्ल
टंकण सहयोग: जगदीश भाटिया


अध्याय:1 । 2 । 3 ।4 ।5 । 6 । 7 ।8 । 9। 10 । 11 । 12 । 13

1 Comments:

  • At 8:31 AM, Blogger Neeraj Rohilla said…

    वाह भाई वाह!
    रागदरबारी के नये दो अध्याय पढ कर तबियत हरी हो गयी, अब फुरसतियाजी तबियत हरी का अर्थ तो अवश्य समझते होंगें|

    साधुवाद स्वीकार करें|

     

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