राग दरबारी

जानेमाने साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल की रचना "राग-दरबारी" समकालीन साहित्य में एक मील का पत्थर है जिसके लिये उन्हें 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला।

Saturday, November 11, 2006

2. वे पैदाइशी नेता थे

थाना शिवपालगंज में एक आदमी ने हाथ जोड़कर दरोगाजी से कहा, "आजकल होते-होते कई महीने बीत गये। अब हुजूर हमारा चालान करने में देर ना करें।"

मध्यकाल का कोई सिंहासन रहा होगा जो अब घिसकर आरामकुर्सी बन गया था। दरोगाजी उस पर बैठे भी थे, लेटे भी थे। यह निवेदन सुना तो सिर उठाकर बोले, "चालान भी हो जायेगा। जल्दी क्या है? कौन सी आफ़त आ रही है?"

वह आदमी आरामकुर्सी के पास पड़े हुए एक प्रागैतिहासिक मोढ़े पर बैठ गया और कहने लगा, "मेरे लिए तो आफ़त ही है। आप चालान कर दें तो झंझट मिटे।"
दरोगाजी भुनभुनाते हुए किसी को गाली देने लगे। थोड़ी देर में उसका यह मतलब निकला कि काम के मारे नाक में दम है।

दरोगाजी भुनभुनाते हुए किसी को गाली देने लगे। थोड़ी देर में उसका यह मतलब निकला कि काम के मारे नाक में दम है। इतना काम है कि अपराधों की जाँच नहीं हो पाती, मुकदमों का चालान नहीं हो पाता, अदालतों में गवाही नहीं हो पाती। इतना काम है कि सारा काम ठप्प पड़ा है।

मोढ़ा आरामकुर्सी के पास खिसक आया। उसने कहा, "हुजूर, दुश्मनों ने कहना शुरू कर दिया है कि शिवपालगंज में दिन-दहाड़े जुआ होता है। कप्तान के पास एक गुमनाम शिकायत गयी है। वैसे भी समझौता साल में एक बार चालान करने का है। इस साल चालान होने में देर हो रही है। इसी वक्त हो जाये तो लोगों की शिकायत भी खत्म हो जायेगी।"

यहाँ बैठकर अगर कोई चारों ओर निगाह दौड़ाता तो उसे मालूम होता, वह इतिहास के किसी कोने में खड़ा है। अभी इस थाने के लिए फ़ाउंटेनपेन नहीं बना था, उस दिशा में कुल इतनी तरक्की हुई थी कि कलम सरकण्डे का नहीं था। यहाँ के लिए अभी टेलीफ़ोन की ईजाद नहीं हुई थी। हथियारों में कुछ प्राचीन राइफ़लें थीं जो, लगता था, गदर के दिनों में इस्तेमाल हुई होंगी। वैसे, सिपाहियों के साधारण प्रयोग के लिए बाँस की लाठी थी, जिसके बारे में एक कवि ने बताया है कि वह नदी-नाले पार करने में और झपटकर कुत्ते को मारने में उपयोगी साबित होती है। यहाँ के लिए अभी जीप का अस्तित्व नहीं था। उसका काम करने के लिए दो-तीन चौकीदारों के प्यार की छाँव में पलने वाली घोड़ा नाम की एक सवारी थी, जो शेरशाह के जमाने में भी हुआ करती थी।
थाने के अंदर आते ही आदमी को लगता था कि उसे किसी ने उठाकर कई सौ साल पहले फ़ेंक दिया है।


थाने के अंदर आते ही आदमी को लगता था कि उसे किसी ने उठाकर कई सौ साल पहले फ़ेंक दिया है। अगर उसने अमरीकी जासूसी उपन्यास पढ़े हों, तो वह बिलबिलाकर देखना चाहता है कि उँगलियों के निशान देखने वाले शीशे, कैमरे, वायरलैस लगी हुई गाड़ियाँ- ये सब कहाँ हैं? बदले में उसे सिर्फ़ वह दिखता जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है। साथ ही, एक नंग-धडंग लंगोटबंद आदमी दिखता जो सामने इमली के पेड़ के नीचे भंग घोंट रहा होता। बाद में पता चलता कि वह अकेला आदमी बीस गाँवों की सुरक्षा के लिए तैनात है और जिस हालत में जहाँ है, वहीं से उसी हालत में वह बीस गाँवों में अपराध रोक सकता है, अपराध हो गया हो तो उसका पता लगा सकता है और अपराध न हुआ हो, तो उसे करा सकता है। कैमरा, शीशा, कुत्ते, वायरलैस उसके लिए वर्जित हैं। इस तरह थाने का वातावरण बड़ा ही रमणीक और बीते दिनों के गौरव के अनुकूल था। जिन रोमांटिक कवियों को बीते दिनों की याद सताती है, उन्हें कुछ दिन रोके रखने के लिए ये आदर्श स्थान था।
जनता को दरोगाजी और थाने के सिपहियों से बड़ी-बड़ी आशायें थीं। ढाई-तीन सौ गाँवों के उस थाने में अगर आठ मील दूर किसी गाँव में नकब लगे तो विश्वास किया जाता था कि इनमें से कोई-न-कोई उसे जरूर देख लेगा। बारह मील की दूरी पर अगर रात के वक्त डाका पड़े, तो इनसे उम्मीद थी कि ये वहाँ डाकुओं से पहले ही पहुँच जायेंगे। इसी विश्वास पर किसी भी गाँव में इक्का-दुक्का बंदूकों को छोड़कर हथियार नहीं दिये गये थे। हथियार देने से डर था कि गाँव में रहने वाले असभ्य और बर्बर आदमी बंदूकों का इस्तेमाल करना सीख जायेंगे, जिससे वे एक-दूसरे की हत्या करने लगेंगे, खून की नदियाँ बहने लगेंगी। जहाँ तक डाकुओं से उनकी सुरक्षा का सवाल था, वह दरोगाजी और उनके दस-बारह आदमियों की जादूगरी पर छोड़ दिया गया था।

उनकी जादूगरी का सबसे बड़ा प्रदर्शन खून के मामलों में होने की आशा की जाती थी, क्योंकि समझा जाता था कि इन तीन सौ गाँवों में रहने वालों के मन में किसके लिए घृणा है, किससे दुश्मनी है, किसको कच्चा चबा जाने का उत्साह है, इसक वे पूरा-पूरा ब्यौरा रखेंगे; और पहले से ही कुछ ऐसी तरकीब करेंगे कि कोई किसी को मार ना सके; और अगर कोई किसी को मार दे तो वे हवा की तरह मौके पर जाकर पकड़ लेंगे, उसके खून से तर मिट्‍टी को हाँड़ी में भर लेंगे और उसके मरने का दृश्य देखने वालों को दिव्य-दृष्टि देंगे ताकि वे किसी भी अदालत में, जो कुछ हुआ है, उसका महाभारत के संजय की तरह आँखों-देखा हाल बता सकें। संक्षेप में, दरोगाजी और उनके सिपाहियों को वहाँ पर मनुष्य नहीं, बल्कि अलादीन के चिराग से निकलने वाला दैत्य समझकर रखा गया था। उन्हें इस तरह रखकर १९४७ में अंग्रेज अपने देश चले गये थे और उसके बाद ही धीरे-धीरे लोगों पर यह राज खुलने लगा था कि ये लोग दैत्य नहीं हैं, बल्कि मनुष्य हैं; और ऐसे मनुष्य हैं जो खुद दैत्य निकालने की उम्मीद में दिन-रात अपना-अपना चिराग घिसते रहते हैं।

शिवपालगंज के जुआरी संघ के मैनेजिंग डायरेक्टर के चले जाने पर दरोगाजी ने एक बार सिर उठाकर चारों ओर देखा। सब तरफ़ अमन था। इमली के पेड़ के नाचे भंग घोंटने वाला लंगोटबंद सिपाही अब नजदीक रखे हुए शिवलिंग पर भंग चढ़ा रहा था, घोड़े के पुट्ठों पर एक चौकीदार खरहरा कर रहा था, हवालात में बैठा हुआ एक डकैत जोर-जोर से हनुमान-चालीसा पढ़ रहा था, बाहर फ़ाटक पर ड्यूटी देने वाला सिपाही- निश्चय ही रात को मुस्तैदी से जागने के लिए- एक खंबे के सहारे टिककर सो रहा था।

दरोगाजी ने ऊँघने के लिए पलक बंद करना चाहा, पर तभी उनको रुप्पन बाबू आते हुए दिखाई पड़े। वे भुनभुनाये कि पलक मारने की फ़ुर्सत नहीं है। रुप्पन बाबू के आते ही वे कुर्सी से खड़े हो गये और विनम्रता-सप्ताह बहुत पहले बीत जाने के बावजूद, उन्होंने विनम्रता से हाथ मिलाया।


दरोगाजी ने ऊँघने के लिए पलक बंद करना चाहा, पर तभी उनको रुप्पन बाबू आते हुए दिखाई पड़े। वे भुनभुनाये कि पलक मारने की फ़ुर्सत नहीं है। रुप्पन बाबू के आते ही वे कुर्सी से खड़े हो गये और विनम्रता-सप्ताह बहुत पहले बीत जाने के बावजूद, उन्होंने विनम्रता से हाथ मिलाया। रुप्पन बाबू ने बैठते ही कहा, "रामाधीन के यहाँ लाल स्याही से लिखी हुई चिट्ठी आयी है। डाकुओं ने पाँच हजार रुपया माँगा है। लिखा है अमावस की रात को दक्खिनवाले टीले पर.....।"

दरोगाजी मुस्कुराकर बोले, "यह तो साहब बड़ी ज्यादती है। कहाँ तो पहले डाकू नदी-पहाड़ लाँघकर घर पर रुपया लेने आते थे, अब वे चाहते हैं कोई उन्हीं के घर जाकर रुपया दे आवे।"

रुप्पन बाबू ने कहा, "जी हाँ वह तो देख रहा हूँ। डकैती न हुई, रिश्वत हो गयी।"

दरोगाजी ने भी उसी लहजे में कहा, "रिश्वत, चोरी, डकैती- अब तो सब एक हो गया है.....पूरा साम्यवाद है!"

रुप्पन बाबू बोले, "पिताजी भी यही कहते हैं।"

"वे क्या कहते हैं?"
"रिश्वत, चोरी, डकैती- अब तो सब एक हो गया है.....पूरा साम्यवाद है!"

"......यही कि पूरा साम्यवाद है।"

दोनों हँसे। रुप्पन बाबू ने कहा, "नहीं। मैं मजाक नहीं करता। रामाधीन के यहाँ सचमुच ही ऐसी चिट्ठी आयी है। पिताजी ने मुझे इसीलिए भेजा है। वे कहते हैं कि रामाधीन हमारा विरोधी हुआ तो क्या हुआ, उसे इस तरह न सताया जाये।"

"बहुत अच्छी बात कहते हैं। जिससे बताईये उससे कह दूँ।"

रुप्पन बाबू ने अपनी गढ़े में धँसी हुई आँखों को सिकोड़कर दरोगाजी की ओर देखा। दरोगाजी ने भी उन्हें घूरकर देखा और मुस्कुरा दिये। बोले, "घबराईये नहीं, मेरे यहाँ होते हुए डाका नहीं पड़ेगा।"

रुप्पन बाबू धीरे से बोले, "सो तो मैं जानता हूँ। यह चिट्ठी जाली है। जरा अपने सिपाहियों से भी पुछवा लीजिए। शायद उन्हीं में से किसी ने लिख मारी हो।"

"ऐसा नहीं हो सकता। मेरे सिपाही लिखना नहीं जानते। एकाध हैं जो दस्तखत भर करते हैं।"

रुप्पन बाबू कुछ और कहना चाहते थे, तब तक दरोगाजी ने कहा, "जल्दी क्या है! अभी रामाधीन को रिपोर्ट लिखाने दीजिए....चिट्ठी तो सामने आये।"

थोड़ी देर दोनों चुप रहे। दरोगाजी ने फ़िर कुछ सोचकर कहा, "सच पूछिए तो बताऊँ। मुझे तो इसका संबंध शिक्षा-विभाग से जान पड़ता है।"

"कैसे?"

"और शिक्षा-विभाग से भी क्या आपके कॉलिज से जान पड़ता है।"

रुप्पन बाबू बुरा मान गये, "आप तो मेरे कॉलिज के पीछे पड़े हैं।"

"मुझे लगता है कि रामाधीन के घर यह चिट्ठी आपके कॉलिज के किसी लड़के ने भेजी है। आपका क्या ख्याल है?"

"आप लोगों की निगाह में सारे जुर्म स्कूली लड़के ही करते हैं।" रुप्पन बाबू ने फ़टकारते हुए कहा, "अगर आपके सामने कोई आदमी जहर खाकर मर जाये, तो आप लोग उसे भी आत्महत्या न मानेंगे। यही कहेंगे कि इसे किसी विद्यार्थी ने जहर दिया है।"

"आप ठीक कहते हैं रुप्पन बाबू, जरूरत पड़ेगी तो मैं ऐसा ही कहूँगा। मैं बख्तावरसिंह का चेला हूँ। शायद आप यह नहीं जानते।"

इसके बाद सरकारी नौकरों की बातचीत का वही अकेला मजमून खुल गया कि पहले के सरकारी नौकर कैसे होते थे और आज के कैसे हैं। बख्तावरसिंह की बात छिड़ गयी। दरोगा बख्तावरसिंह एक दिन शाम के वक्त अकेले लौट रहे थे। उन्हें झगरू और मँगरू नाम के दो बदमाशों ने बाग में घेरकर पीट दिया। बात फ़ैल गयी, इसलिए उन्होंने थाने पर अपने पीटे जाने की रिपोर्ट दर्ज करा दी।

दूसरे दिन दोनों बदमाशों ने जाकर उनके पैर पकड़ लिए। कहा, "हुजूर माई-बाप हैं। गुस्से में औलाद माँ-बाप से नालायकी कर बैठे तो माफ़ किया जाता है।"

बख्तावरसिंह ने माँ-बाप का कर्तव्य पूरा करके उन्हें माफ़ कर दिया। उन्होंने औलाद का कर्तव्य पूरा करके बख्तावरसिंह के बुढ़ापे के लिए अच्छा-खासा इंतजाम कर दिया। बात आयी-गयी हो गयी।

पर कप्तान ने इस पर एतराज किया कि, "टुम अपने ही मुकडमे की जाँच कामयाबी से नहीं करा सका टो दूसरे को कौन बचायेगा? अँढेरा ठा टो क्या हुआ? टुम किसी को पहचान नहीं पाया, टो टुमको किसी पर शक करने से कौन रोकने सकटा!"

तब बख्तावरसिंह ने तीन आदमियों पर शक किया। उन तीनों की झगरू और मँगरू से पुश्तैनी दुश्मनी थी। उन पर मुकदमा चला। झगरू और मँगरू ने बख्तावरसिंह की ओर से गवाही दी, क्योंकि मारपीट के वक्त वे दोनों बाग में एक बड़े ही स्वाभाविक करण से, यानी पाखाने की नीयत से, आ गये थे। तीनों को सजा हुई। झगरू-मँगरू के दुश्मनों का ये हाल देखकर इलाके की कई औलादें बख्तावरसिंह के पास आकर रोज प्रार्थना करने लगीं कि माई-बाप, इस बार हमें भी पीटने का मौका दिया जाये। पर बुढ़ापा निबाह करने के लिए झगरू और मँगरू काफ़ी थे। उन्होंने औलादें बढ़ाने से इंकार कर दिया।

रुप्पन बाबू काफ़ी देर हँसते रहे। दरोगाजी खुश होते रहे कि रुप्पन बाबू एक किस्से में ही खुश होकर हँसने लगे हैं, दूसरे की जरूरत नहीं पड़ी। दूसरा किस्सा किसी दूसरे लीडर को हँसाने के काम आयेगा। हँसना बंद करके रुप्पन बाबू ने कहा, "तो आप उन्हीं बख्तावरसिंह के चेले हैं!"

"था। आजादी मिलने के पहले था। पर अब तो हमें जनता की सेवा करनी है। गरीबों का दुख-दर्द बँटाना है। नागरिकों के लिए....."

रुप्पन बाबू उनकी बाँह छूकर बोले, "छोड़िए, यहाँ मुझे और आपको छोड़कर तीसरा कोई भी सुनने वाला नहीं है।"
पर वे ठण्डे नहीं पड़े। कहने लगे, "मैं तो यही कहने जा रहा था कि मैं आजादी मिलने से पहले बख्तावरसिंह का चेला था, अब इस जमाने में आपके पिताजी का चेला हूँ।"

रुप्पन बाबू विनम्रता से बोले, "यह तो आपकी कृपा है, वरना मेरे पिताजी किस लायक हैं?"

वे उठ खड़े हुए। सड़क की ओर देखते हुए, उन्होंने कहा, "लगता है, रामाधीन आ रहा है। मैं जाता हूँ। इस डकैतीवाली चिट्ठी को जरा ठीक से देख लीजियेगा।"
रुप्पन बाबू अठरह साल के थे। वे स्थानीय कालिज की दसवीं कक्षा में पढ़ते थे। पढ़ने से, और खासतौर से दसवीं कक्षा में पढ़ने से, उन्हें बहुत प्रेम था; इसलिए वे उसमें पिछले तीन साल से पढ़ रहे थे।

रुप्पन बाबू अठरह साल के थे। वे स्थानीय कालिज की दसवीं कक्षा में पढ़ते थे। पढ़ने से, और खासतौर से दसवीं कक्षा में पढ़ने से, उन्हें बहुत प्रेम था; इसलिए वे उसमें पिछले तीन साल से पढ़ रहे थे।

रुप्पन बाबू स्थानीय नेता थे। उनका व्यक्तित्व इस आरोप को काट देता था कि इण्डिया में नेता होने के लिए पहले धूप में बाल सफ़ेद करने पड़ते हैं। उनके नेता होने का सबसे बड़ा आधार ये था कि वे सबको एक ही निगाह से देखते थे। थाने में दरोगा और हवालात में बैठा हुआ चोर- दोनों उनकी निगाह में एक थे। उसी तरह इम्तहान में नकल करने वाला विद्यार्थी और कालिज के प्रिंसिपल उनकी निगाह में एक थे। वे सबको दयनीय समझते थे, सबका काम करते थे, सबसे काम लेते थे। उनकी इज्जत थी कि पूँजीवाद के प्रतीक दुकानदार उनके हाथ सामान बेचते नहीं, अर्पित करते थे और शोषण के प्रतीक इक्केवाले उन्हें शहर तक पहुँचाकर किराया नहीं, आशेर्वाद माँगते थे। उनकी नेतागिरी का प्रारंभिक और अंतिम क्षेत्र वहाँ का कालिज था, जहाँ उनका इशारा पाकर सैकड़ों विद्यार्थी तिल का ताड़ बना सकते थे और जरूरत पड़े तो उस पर चढ़ भी सकते थे।
वे पैदायशी नेता थे क्योंकि उनके बाप भी नेता थे। उनके बाप का नाम वैद्यजी था।


वे दुबले-पतले थे, पर लोग उनके मुँह नहीं लगते थे। वे लम्बी गरदन, लंबे हाथ और लंबे पैर वाले आदमी थे। जननायकों के लिए ऊल-जलूल और नये ढंग की पोशाक अनिवार्य समझकर वे सफ़ेद धोती और रंगीन बुश्शर्ट पहनते थे और गले में रेशम का रूमाल लपेटते थे। धोती का कोंछ उनके कंधे पर पड़ा रहता था। वैसे देखने में उनकी शक्ल एक घबराये हुए मरियल बछड़े की-सी थी, पर उनका रौब पिछले पैरों पर खड़े हुए एक हिनहिनाते घोड़े का-सा जान पड़ता था।

वे पैदायशी नेता थे क्योंकि उनके बाप भी नेता थे। उनके बाप का नाम वैद्यजी था।



लेखक: श्रीलाल शुक्ल
टंकण सहयोग:भुवनेश शर्मा
अध्याय:1 । 2 । 3 ।4 ।5 । 6 । 7 ।8 । 9। 10 । 11 । 12 । 13

3 Comments:

  • At 5:07 AM, Blogger उन्मुक्त said…

    नारद से खोलने पर यह ऐरर ४०४ दिखा रहा है।

     
  • At 2:21 PM, Blogger Prabhakar Pandey said…

    " वे पैदाइशी नेता थे " बहुत ही अच्छी रचना ।
    नारद से खोला कोई एरर नहीं ।

     
  • At 2:04 PM, Blogger vimal kishore khanduri said…

    Very good novel..I've read it many times..but never got bored reading it again and again..Thanks for coming up with the blog of this novel...

     

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