राग दरबारी

जानेमाने साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल की रचना "राग-दरबारी" समकालीन साहित्य में एक मील का पत्थर है जिसके लिये उन्हें 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला।

Saturday, December 23, 2006

10. क्या यही इन्सानियत है?

छंगामल विद्यालय इण्टर कालेज की स्थापना 'देश के नव-नागरिकों को महान आदर्शो की ओर प्रेरित करने एवं उन्हें उत्तम शिक्षा देकर राष्ट्र का उत्थान करने हेतु' हुई थी। कालिज का चमकीले नारंगी कागज पर छपा हुआ 'संविधान एवं नियमावली' पढ़कर यथार्थ की गन्दगी में लिपटा हुआ मन कुछ वैसा ही निर्मल और पवित्र हो जाता था जैसे भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का अध्याय पढ़कर।

क्योंकि इस कालिज की स्थापना राष्ट्र के हित मे हुई थी, इसलिए, उसमें और कुछ हो या नहीं, गुटबन्दी काफ़ी थी। वैसे गुटबन्दी जिस मात्रा में थी, उसे बहुत बढ़िया नहीं कहा जा सकता था; पर जितने कम समय में वह विकसित हुई, उसे
देखकर लगता था काफ़ी अच्छा काम हुआ है। वह दो-तीन साल ही में पड़ोस के कालिजों की गुटबन्दी की अपेक्षा ज्यादा ठोस दिखने लगी थी। बल्कि कुछ मामलों में तो वह अखिल भारतीय संस्थाओ तक का मुकाबला करने लगी थी।

प्रबन्ध-समिति में वैद्यजी का दबदबा था, पर रामाधीन भीखमखेड़वी अब तक उसमें अपना गुट बना चुके थे। इसके लिए उन्हें बड़ी साधना करनी पड़ी। काफ़ी दिनों तक वे अकेले ही अपने गुट बने रहे, बाद में एकाध मेम्बर भी उनकी ओर खिंचे। अब बड़ी मेहनत के बाद कालिज के नौकरों मे दो गुट बन गये थे, पर उनमें अभी बहुत काम होना था। प्रिंसिपल साहब तो वैद्यजी पर पूरी तरह आश्रित थे, पर खन्ना मास्टर अभी उसी तरह रामाधीन के गुट पर आश्रित नही हो पाये थे। उन्हें खींचना बाकी था। लड़कों में भी अभी दोनों गुटो का हमदर्दी के आधार पर अलग-अलग गुट नहीं बने थे। उनमें आपसी गाली-गलौज और मारपीट होती तो थी, पर इन कार्यक्रमों को अभी तक उचित दिशा नहीं मिल पाती थी। गुटबन्दी के उद्देश्य से न होकर ये काम व्यक्तिगत कारणों से होते थे और इस तरह लड़कों की गुण्डागर्दी की शक्ति व्यक्तिगत स्वार्थो पर नष्ट होती जाती थी, उसका
उपयोग राष्ट्र के सामूहिक हित में नही होता रहा था। गुटबन्दों को अभी इस दिशा में भी बहुत काम करना था।

यह सही है कि वैद्यजी को छोड़कर कालिज के गुटबन्दों में अभी अनुभव की कमी थी। उनमें परिपक्वता नहीं थी, पर प्रतिभा थी। उसका चमत्कार साल में एकाध बार जब फूटता, तो उसकी लहर शहर तक पहुचती। वहां कभी-कभी ऎसे दांव भी चले
जाते जो बड़े-बड़े पैदायशी गुटबन्दों को भी हैरानी में डाल देते। पिछले साल रामाधीन ने वैद्यजी पर एक ऎसा ही दांव फ़ेका था। वह खाली गया, पर उसकी चर्चा दूर-दूर तक हुई। अखबारों में जिक्र आ गया। उससे एक गुटबन्द इतना प्रभावित हुआ कि वह शहर से कालिज तक सिर्फ़ दोनों गुटों की पीठ ठोकनें को दौड़ा चला आया। वह एक सीनियर गुटबन्द था और अक्सर राजधानी में रहता था। पिछले चालीस साल से वह अपने चौबीसों घण्टे केवल गुटबन्दी के नाम अर्पित किये हुए था। वह अखिल भारतीय स्तर का आदमी था और उसके बयान रोज अखबार में पहले पन्नों पर छपते थे, जिसमें देश-भक्ति और गुटबन्दी का अनोखा संगम होता था। उसके एक बार कालिज में आ चुकने के बाद लोगों को इत्मीनान हो गया था कि यहां अब कालिज भले ही खत्म हो जाय, गुटबन्दी खत्म नहीं होगी।

सवाल है: गुटबन्दी क्यों थी?

यह पूछना वैसा ही है जैसे पानी क्यों बरसता है? सत्य क्यों बोलना चाहिए? वस्तु क्या है और ईश्वर क्या हैं? वास्तव में यह एक सामाजिक मनोवैज्ञानिक यानी लगभग दार्शानिक सवाल है। इसका जवाब जानने के लिए दर्शन-शास्त्र जानने की जरुरत है और दर्शन-शास्त्र जानने के लिए हिन्दी का कवि या कहानीकार होने की जरुरत है।

सभी जानते है कि हमारे कवि और कहानीकार वास्तव में दार्शनिक है और कविता या कथा-साहित्य तो वे सिर्फ़ यूं ही लिखते है। किसी भी सुबुक-सुबुकवादी उपन्यास में पढ़ा जा सकता है कि नायक ने नायिका के जलते हुए होंठो पर होंठ रखे और कहा," नहीं-नहीं निशी, मै उसे नहीं स्वीकार कर सकता। वह मेरा सत्य नही है। वह तुम्हारा अपना सत्य है।"

निशी का ब्लाउज जिस्म से चूकर जमीन पर गिर जाता है। वह अस्फ़ुट स्वर में कहती है,"निक्कू, क्या तुम्हारा सत्य मेरे सत्य से अलग है?"

इसी को 'ठांय' कहते है। इसी के साथ निशी और निक्कू फ़िलासफ़ी की हजार मीटरवाली दौड़ मे निकल पड़ते हैं। अब निशी की ब्रा भी जमीन पर गिर जाती है, निक्कू की टाई और कमीज हवा में उड़ जाती है। गिरते-पड़ते, एक-दूसरे पर लोटते-पोटते वे मैदान के दूसरे छोर पर लगे हुए फ़ीते को सत्य समझकर किसी तरह यहां पहुचते है, तब पता चलता है, वह सत्य नही है। फ़िर संयोग-श्रंगार, जलते हुए होंठ। फ़िलासफ़ी की मार। थोड़ी ही देर में वे मैदान छोड़ कर जंगल में आ जाते हैं और पत्थरों से छिलते हुए, कांटो से बिंधे नंगे बदन,झांक-झांककर प्रत्येक झाड़ी में देखते हैं और इस तरह नंगापन सुबुक-सुबुक, चूमाचाटी, व्याख्यान आदि के महौल में उस खरगोश का पीछा करते रहते है जिसका कि नाम सत्य है।

यह फ़िलासफ़ी लगभग सभी महत्वपूर्ण काव्यों और कथाओं में होती है और इसीलिए ठीक नहीं की इस उपन्यास के पाठक भी काफ़ी देर से फ़िलासफ़ी के एक लटके का इन्तजार कर रहे हों और सोच रहे हों, हिन्दी का यह उपन्यास इतनी देर से और
सब तो कह रहा है, फ़िलासफ़ी क्यों नहीं कहता? क्या मामला है? यह फ्राड तो नही है?

यह सही है कि 'सत्य','अस्तित्व' आदि शब्दों के आते ही हमारा कथाकार चिल्ला उठता है,"सुनो भाइयों यह किस्सा-कहानी रोककर मैं थोड़ी देर के लिए तुमको फ़िलासफ़ी पढ़ाता हूं, ताकि तुम्हें यकीन हो जाय कि वास्तव में मैं फ़िलासफ़र था, पर बचपन के कुसंग के कारण यह उपन्यास (या कविता) लिख रहा हूं। इसलिए हे भाइयो, लो, यह सोलह पेजी फ़िलासफ़ी का लटका; और अगर मेरी किताब पढ़ते-पढ़ते तुम्हें भ्रम हो गया हो कि मुझे औरों-जैसी फ़िलासफ़ी नहीं आती, तो उस भ्रम को इस भ्रम से काट दो.......।"

तात्पर्य यह है, क्योंकि फ़िलासफ़ी बघारना प्रत्येक कवि और कथाकार के लिए अपने-आपमें एक'वैल्यु'है,क्योंकि मैं कथाकार हूं, क्योंकि 'सत्य','अस्तित्व' आदि की तरह 'गुटबंदी'-जैसे एक महत्वपूर्ण शब्द का जिक्र आ चुका है, इसलिए सोलह प्रष्ठ के लिए तो नहीं, पर एक-दो प्रष्ठ के लिए अपनी कहानी रोककर मैं भी पाठकों से कहना चाहूंगा कि सुनो-सुनो हे भाइयों, वास्तव में तो मैं एक फ़िलासफ़र हूं, पर बचपन के कुसंग के कारण...।

वेदान्त के अनुसार- जिसका हवाला वैद्यजी आयुर्वेद के पर्याय के रुप में दिया करते थे - गुटबन्दी परात्मानुभूति की चरम दशा का एक नाम है। उसमें प्रत्येक 'तू','मैं' को और प्रत्येक 'मैं','तू'-को अपने से ज्यादा अच्छी स्थिति में देखता है। वह उस स्थिति को पकड़ना चाहता है। 'मैं' 'तू' और 'तू' 'मैं' को मिटाकर 'मैं' की जगह 'तू' और 'तू' की जगह 'मैं' बन जाना चाहता है।

वेदान्त हमारी परम्परा है और चूकिं गुटबन्दी का अर्थ वेदान्त से खीचा जा सकता है, इसलिए गुटबन्दी भी हमारी परम्परा है, और दोनों हमारी सांस्क्रतिक परम्पराएं हैं। आजादी मिलने के बाद हमने अपनी बहुत-सी सांस्क्रतिक परम्पराओं को फ़िर से खोद कर निकाला है। तभी हम हवाई जहाज से यूरोप जाते हैं, पर यात्रा का प्रोग्राम ज्योतिषी से बनवाते है; फ़ांरेन ऎक्सचेंज और इनकमटैक्स की दिक्कते दूर करने के लिए बाबाओं का आशीर्वाद लेते हैं स्काच व्हिस्की पीकर भगन्दर पालते हैं और इलाज के लिए योगाश्रमों में जाकर सांस फ़ुलाते है, पेट सिकोड़ते है। उसी तहर विलायती तालीम में पाया हुआ जनतन्त्र स्वीकार करते है और उसको चलाने के लिए अपनी परम्परागत गुटबन्दी का सहारा लेते है। हमारे इतिहास में-चाहे युद्धकाल रहा हो, या शान्तिकाल-राजमहलों से लेकर खलिहानों तक गुटबन्दी द्रारा 'मैं' को 'तू' और 'तू' को 'मैं' बनाने की शानदार परम्परा रही है। अंग्रेजी राज्य में अंग्रेजों को बाहर भगाने के झंझट में कुछ दिनों के लिए हम उसे भूल गये थे। आजादी मिलने के बाद अपनी और परम्पराओं के साथ इसको भी हमने बढ़ावा दिया है। अब हम गुटबन्दी को तू-तू, मैं-मैं, लात जूता साहित्य और कला आदि सभी पद्धतियों से आगे बढ़ा रहे हैं। यह हमारी सांस्क्रतिक आस्था है। यह वेदान्त को जन्म देनेवाले देश की उपलब्धि है। यही, संक्षेप में, गुटबन्दी का दर्शन, इतिहास और भूगोल है।

इन मूल कारणों के साथ कालिज में गुटबन्दी का एक दूसरा कारण लोगों का यह विचार था कि कुछ होते रहना चाहिए। यहां सिनेमा नही है, होटल नहीं है, काफ़ी-हाउस नही, मारपीट, छुरेबाजी, सड़क की दुर्घटनाएं, नये-नये फ़ैशनों की लड़कियां, नुमायशे गाली-गलौजवाली सार्वजनिक सभाएं-ये भी नही है। लोग कहां जाये? क्या देखे? क्या सुनें इसलिए कुछ होते रहना चाहिए।

चार दिन हुए, कालिज में एक प्रेम-पत्र पकड़ा गया था जो एक लड़के ने लकड़ी को लिखा था। लड़के ने चालाकी दिखाई थी; पत्र पढ़ने से लगता था कि वह सवाल नहीं, लड़की के पत्र का जवाब है; पर चालाकी कारगर नहीं हुई। लड़का डांटा गया, पीटा
गया, कालिज से निकाला गया, फ़िर उसके बाप के इस आश्वासन पर कि लड़का दोबारा प्रेम न करेगा, और इस वादे पर कि कालिज के नये ब्लाक के लिए चालीस हजार ईंटे दे दी जायेंगी, कालिज में फ़िर से दाखिल कर लिया गया, कुछ हुआ भी तो
उसका असर चार दिन से ज्यादा नहीं रहा। उससे पहले एक लड़के के पास देसी कारतूसी तमंचा बरामद हुआ था। तमंचा बिना कारतूस का था और इतना भोंडा बना था कि इस देश के लोहारों की कारीगरी पर रोना आता था। पर इन कमजोरियों के होते हुए भी कालिज में पुलिस आ गयी और लड़के को और वैद्यजी का आदमी होने के बावजूद क्लर्क साहब को, लेकर थाने पर चली गयी। लोग प्रतीक्षा करते रहे कि कुछ होने वाला है और लगा कि चार-छ: दिन तक कुछ होता रहेगा। शाम तक पता चला कि जो निकला था वह तमंचा नही था, बल्कि लोहे का एक छोटा-सा टुकड़ा था, और क्लर्क साहब थाने पर पुलिस के कहने से नहीं बल्कि अपने मन से तफरीह करने के लिए चले गये थे और लड़का गुण्डागिरी नहीं कर रहा था बल्कि बांसुरी बहुत अच्छी बजाता था। शाम को जब क्लर्क तफ़रीह करता हुआ और लड़का बांसुरी बजाता हुआ थाने से बाहर निकला, तो लोगों की तबीयत गिर गयी। वे समझ गये कि यह तो कुछ भी नहीं हुआ और उनके सामने फ़िर वही शाश्वत प्रश्न पैदा हो गया: अब क्या हो?

इस वातावरण में लोगों की निगाह प्रिंसिपल साहब और वैद्यजी पर पड़ी थे। वैद्यजी तो अपनी जगह मदनमोहन मालवीय-शैली की पगड़ी बांधे हुए इत्मीनान से बैठे थे, पर प्रिंसिपल साहब को देखकर लगता था कि वे बिना किसी सहारे के बिजली के खम्भे पर चढे़ हुए और दूर से ही किसी को देखकर चीख रहे है:'देखो,देखो, वह कोई शरारत करना चाहता है।' उनकी निगाह में सन्देह था और अपनी जगह पर चिपके हुए प्रत्येक भारतवासी का भय था कि कोई हमें खींचकर हटा न दे। लोग कमजोरी ताड़ गये और उनको, और उसी लपेट में वैद्यजी को लुलुहाने लगे। उधर वे लोग भी मार न पड़ जाये, इस डर से पहले ही मारने पर आमादा हो गये।

उन्हीं दिनों एक दिन खन्ना मास्टर को किसी ने बताया कि हर कालिज के सबसे बड़े लेक्चरार थे। इसे धोखे में वे एक दिन वैद्यजी से कह आये कि उन्हें वाइस प्रिंसिपल बनाया जाना चाहिए। वैद्यजी ने सिर हिलाकर कहा कि यह एक नवीन विचार है, नवयुवकों को नवीन चिन्तन करते ही रहना चाहिए, उनके प्रत्येक नवीन विचार का मै स्वागत करता हूं, पर यह प्रश्न प्रबन्ध-समिति के देखने का है, उसकी अलग बैठक में यदि यह प्रश्न आया तो इस पर समुचित विचार किया जाया जायेगा। खन्ना मास्टर ने यह नही सो्चना कि प्रबन्ध-समिति के अगली बैठक कभी नहीं होती। उन्होनें तत्काल वाइस प्रिंसिपल का पद पाने के
लिए एक दरख्वास्त लिखी और प्रिंसिपल को इस प्रार्थना के साथ दे दी कि इसे प्रबन्ध-समिति की अगली बैठक में पेश कर दिया जायॆ।

प्रिसिपल साहब खन्ना मास्टर की इस हरकत पर हैरान रह गये। उन्होंने वैद्यजे से जाकर पूछा,"खन्ना को यह दरख्वास्त देने की सलाह आपने दी है?"

इसका उत्तर वैद्यजी ने तीन शब्दों में दिया,"अभी नवय॔वक हैं।" इसके बाद कुछ दिनों तक प्रिंसिपल साहब शिवपालगंज के रास्ते पर मिलने वाले हर आदमी से प्राणिशास्त्री का यह कथन बताते रहे कि आजकल के लोग न जाने कैसे हो गये है। खन्ना मास्टर की इस हरकत का वर्णन वे 'मुहं में राम बगल में छूरी','हमारी ही पाली लोमड़ी, हमारे ही घर में हुआ-हुआ'(यद्यपि लोमड़ी 'हुआ-हुआ' नहीं करती),'पीठ में छुरा भोंकना','मेंढक को जुकाम हुआ है' जैसी कहावतों के सहारे करते रहें। एक दिन उन्होंने चौराहे पर खड़े होकर प्रतीकवादी ढंग से,"एक दिन किसी घोड़े के सुम में नाल ठोंकी जा रही थी।
उसे देखकर एक मेंढक को शौक चर्राया कि हम भी नाल ठुकायेंगे। बहुत कहने पर नालवाले ने मेंढक के पैर में जरा-सी कील ठोक दी। बस, मेढक भाई वहीं ढेर हो गये। शौकीनी का नतीजा बुरा होता है।"

इस पंचतन्त्र के पीछे वही भय था: आज जो वाइस प्रिंसिपल होना चाहता है वह कल प्रिंसिपली चाहेगा। इसके लिए वह प्रबन्ध समिति के मेम्बरों को अपने ओर तोड़ेगा। मास्टरों का गुट बनायेगा। लड़कों को मार पीट के लिये उकसायेगा। ऊपर शिकायतें भिजवायेगा। वह कमीना है और कमीना रहेगा।

सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से,
कि खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फ़ूलों सें।

इस कविता को ऊपर दर्ज करके रामाधीन भीखमखेड़वी ने वैद्यजी सो जो पत्र लिखा, उसका आशय था कि प्रबन्ध-समिति की बैठक, जो पिछ्ले तीन साल से नहीं हुई है, दस दिन में बुलाई जानी चाहिए और कालिज की साधारण समिति की सालाना बैठक-जोकि कालिज की स्थापना के साल के अब तक नहीं हुई है-के बारे में वहां विचार होना चाहिए। उन्होंने विचारणीय विषयों में वाइस प्रिंसिपल के तकर्रुरी का भी हवाला दिया था।

प्रिंसिपल साहब जब यह पत्र अपनी जेब में डालकर वैद्यजी के घर के बाहर निकल्रे तो उन्हें अचानक उससे गर्मी-सी निकलती महसूस हुई। उन्हें जान पड़ा़ कि उनकी कमीज झुलस रही है और गर्मी की धारायें कई दिशाओं मे बहने लगी है। एक धारा उनके कोट को झुलसाने लगी, दूसरी कमीज के नीचे से निकलकर उनकी पैण्ट के अन्दर घुस गयी और उसके कारण उनकें पैर तेजी से पढ़्ने लगे। एक तीसरी धारा उनके आंख, कान और नाक पर लाल पालिश चढ़ाती हुई खोपड़ी के उस गड्ढे की ओर बढ़ने लगीं जहां कुछ आदमियों के दिमाग हुआ करता है।

कालिज के फ़ाटक पर ही उन्हें रुप्पन बाबू मिल गये और उन्होंने रुककर कहना शुरु किया,"देख लिया तुमने? खन्ना रामाधीन का खूंटा पकड़कर बैठे हैं।वाइस-प्रिंसिपली का शौक चर्राया है। एक बार एक मेढक ने देखा कि घोड़े के
नाल ठोंकी जा रही है तो उसने भी.....।"

रुप्पन बाबू कालिज छोड़कर कहीं बाहर जा रहे थे और जल्दी में थे। बोले,"जानता हूं। मेंढकवाला किस्सा यहां सभी को मालूम है। पर मैं आपसे एक बात साफ़-साफ़ बता दूं। खन्ना से मुझे हमदर्दी नहीं है, पर मै समझता हूं कि यहां एक वाइस-प्रिंसिपल का होना जरुरी है। आप नहीं रह्ते रो यहां सभी मास्टर कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ते है। टीचर्स-रुम में वह गुण्डागर्दी
होती है कि क्या बतायें। वहीं हे-हे, ठे-ठे, फ़े,फ़े!" वे गम्भीर हो गये और आदेश के ढंग से कहने लगे,"प्रिंसिपल साहब, मै समझता हू कि हमारे यहां एक वाइस प्रिंसिपल भी होना चाहिए। खन्ना सबसे ज्यादा सीनियर है। उन्हीं को
बन जाने दीजिए। सिर्फ़ नाम की बात है, तनख्वाह तो बढ़नी नही है।"

प्रिसिपल साहब का दिल इतनी जोर से धड़का कि लगा, उछलकर फ़ेफ़ड़े में घुस जायेगा। वे बोले," ऎसी बात अब कभी भूलकर भी न कहना रुप्पन बाबू! ये खन्ना-वन्ना चिल्लाने लगेंगे कि तुम उनके साथ हो। यह शिवपालगंज है। मजाक
में भी सोच कर बोलना चाहिए।"

"मै तो सच्ची बात कहता हूं। खैर, देखा जायेगा।"कहते-कहते रुप्पन बाबू आगे बढ़ गये।

प्रिंसिपल साहब तेजी से अपने कमरे में आ गये। ठण्डक थी, पर उन्होंने कोट उतार दिया। शिक्षा-सम्बन्धी सामानों की सप्लाई करनेवाली किसी दुकान का एक कैलेण्डर ठीक उनकी नाक के सामने दीवार पर टंगा हुआ था जिसमें नंगे बदन पर लगभग एक पारदर्शक साड़ी लपेटे हुए कोई फ़िल्म-एक्ट्रेस एक आदमी की ओर लड्डू जैसा बढ़ा रही थी। आदमी चेहरे पर बड़े-बड़े बाल बढ़ाये हुए, एक हाथ आंखो के सामने उठाये, ऎसा मुंह बना रहा था जैसे लड्डू खाकर उसे अपच हो गया हो। ये मेनका और विश्वामित्र थे। वे इन्हीं को थोड़ी देर देखते रहे, फ़िर घण्टी बजाने की जगह जोर से चिल्लाकर उन्होंने चपरासी को बुलाया और कहा,"खन्ना को बुलाओ।"

चपरासी ने रहस्य के स्वर में कहा," फ़ील्ड की तरफ़ गये हैं। मालवीयजी साथ में हैं।"

प्रिंसिपल ने उकताकर सामने रखे हुए कमलदान को घसीटकर दूर रख दिया। कमलदान भी नमूने के तौर पर किसी ऎजुकेशन एम्पोरियम से मुफ़्त में मिला था और जिस तरह प्रिंसिपल साहब ने उसे दूर पर पटका था, उससे लगता था, उस साल
एम्पोरियम का कोई भी माल कालिज में नहीं खरीदा जायेगा। पर प्रिंसिपल साहब का मतलब यह नही था; वे इस वक्त चपरासी को सिर्फ़ यह बताना चाहते थे कि वे उसकी खुफ़िया रिपोर्ट अभी सुनने को तैयार नहीं है। उन्होंने कड़ककर कहां,"मै कहता हूं, खन्ना को इसी वक्त बुलाओ।"

चपरासी गाढ़े का साफ़ कुर्ता और साफ़ धोती पहने हुए था। उसके पैरों में खड़ाऊं और माथे पर तिलक था। उसने शान्तिपूर्वक कहा," जा रहा हू। खन्ना को बुलाये लाता हूं। इतना नाराज क्यों हो रहे हैं?"

प्रिंसिपल साहब दांत पीसते हुए तिरछी निगाहो से मेज पर रखे हुए टीन के एक टुकड़े को देखते रहे। इस पर पालिश करके एक लाल गुलाब का फ़ुल बना दिया गया था। नीचे तारीख और महीना बताने के लिए कैलेण्डर लगाया गया था। इसे शराब
बनाने की एक प्रसिद्ध फ़र्म ने पं. जवाहरलाल नेहरु की यादगार में बनवाया था और मुफ़्त मे चारो दिशाओं में इस विश्वास के साथ भेजा था कि जहां यह कैलेण्डर जायेगा वहां की जनता पं. जवाहरलाल नेहरु के आदर्शो को और इस फ़र्म की शराब को कभी न भूलेगी। पर इस वक्त कैलेण्डर का प्रिंसिपल साहब पर कोई असर नही हुआ। पं. नेहरु के लाल गुलाब ने उन्हें शान्ति नहीं दी; न फ़ेनदार बियर की कल्पना ने उनकी आखों को मूंदने के लिए मजबूर किया। वे दांत पीस रहे थे और पीसते रहे। अचानक, जिस वक्त चपरासी का खड़ाऊं दरवाजे की चौखट पार कर रहा था, उन्होंने कहा, "रामाधीन इन्हें वाइस-प्रिंसिपली
दिलायेंगे! टुच्चे कहीं के!"

चपरासी घूम पड़ा। दरवाजे पर खड़े-खड़े बोला, "गाली दे रहे हो, प्रिंसिपल साहब?"

उन्होंने कहां, "ठीक है, ठीक है, जाओ, अपना काम करो।"

"अपना काम तो कर ही रहा हू। आप कहें तो अब न करूं।"

प्रिंसिपल माथे पर झुर्रिया डालकर दीवार पर टंगे दूसरे कैलेण्डर को देखने लगे थे। चपरासी ने उसी तरह पूछा," कहें तो खन्ना पर निगाह रखना बन्द कर दूं।"

प्रिंसिपल साहब चिढ़ गये। बोले,"भाड़ मे जाओ।"

चपरासी उसी तरह सीना ताने खड़ा रहा। लापरवाही से बोला," मुझे खन्ना-वन्ना न समझ लीजिएगा। काम चौबीस घंटे करा लीजिए, वह मुझे बरदाश्त है, पर यह अबे-तबे तू-तड़ाका मुझे बरदाश्त नही।"

प्रिंसिपल साहब उसकी ओर देखते रह गये। चपरासी ने कहा,"आप बांभन है और मैं भी बांभन हूं। नमक से नमक नहीं खाया जाता। हां!"

प्रिंसिपल साहब ने ठण्ड सुरों में कहा," तुम्हें धोखा हुआ है। मैं तुम्हें नहीं खन्ना दे लिए कह रहा था। टुच्चा है। रामाधीन से मिलकर मीटिंग करने का नोटिस भिजवाता है।" चपरासी को यकीन दिलाने के लिए कि यह गाली खन्ना को ही समर्पित है, उन्होंने फ़िर कहां "टुच्चा!"

"अभी बुलाये लाता हूं।"चपरासी की आवाज भी ठण्डी पड़ गयी। प्रिंसिपल साहब खड़ाऊंओं की धीमी पड़ती हुई 'खट-खट' सुनते रहे। उनकी निगाह एक तीसरे कैलेण्डर पर जाकर केन्द्रित हो गयी जिसमें पांच-पांच साल के दो बच्चे बड़ी-बड़ी राइफ़ले लिये बर्फ़ पर लेटे थे और शायद चीनियों की फ़ौज का इन्तजार कर रहे थे और इस तरह बड़े कलात्मक ढंग से बता रहे थे कि फ़ैक्ट्री में जुट के थैले सबसे अच्छे बनते है।

प्रिंसिपल साहब इस कैलेण्डर पर निगाह जमाकर बैठे हुए खन्ना का इन्तजार करते रहे और सोचते रहे कि इसे वाइस-प्रिंसिपल का शौक न चर्राया होता तो कितना अच्छा होता! वे भूल गये कि सबके अपने-अपने शौक है। रामाधीन भीखमखेड़वी को चिठ्ठी के आरम्भ में उर्दू-कविता लिखने का शौक है; खुद उन्हें अपने दफ़्तर में रंग-बिरंगे कैलेण्डर लटकाने का शौक है, और चपरसी को, जो कि क्लर्क ही की तरह वैद्यजी का रिश्तेदार था, अकडकर बात करने का शौक है।

प्रिंसिपल साहब खन्ना का इन्तजार करते रहे। उधर होनेवाली घटना को ऎतिहासिक बनाने के लिए बाहर के बरामदे में क्लर्क साहब आकर खड़े हो गये। दीवार के पीछे और खिड़की के नीचे ड्रिल-मास्टर टांग पसारकर खड़े-खड़े, पेशाब करने के बजाय बीड़ी पीने लगे। इस बात का खतरा नहीं रहा कि खन्ना और प्रिंसिपल साहब का संवाद जनता तक पहुंचने के पहले ही हवा में उड़ जायेगा।

रात रंगनाथ और बद्री छत पर कमरे में लेटे थे और सोने के पहले के पहले की बेतरतीब बातें शुरू हो गयीं थीं। रंगनाथ ने
अपनी बात खत्म करते हुये कहा," पता नहीं चला कि प्रिंसिपल और खन्ना मास्टर में क्या बात हुई। ड्रिल-मास्टर बाहर खड़ा था। खन्ना मास्टर ने चीखकर कहा, आपकी यही इन्सानियत है!,"वह सिर्फ़ इतना ही सुन पाया।

बद्री ने जम्हाई लेते हुए कहा," प्रिंसिपल ने गाली दी होगी। उसी के जवाब में उसने इन्सानियत की बात कही होगी। यह खन्ना इसी तरह बात करता है। साला बांगडू है।"

रंगनाथ ने कहा," गाली का जवाब तो जूता है।"

बद्री ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। रंगनाथ ने फ़िर कहा," मै तो देख रहा हूं, यहां इन्सानियत का जिक्र ही बेकार है।"
बद्री ने सोने के लिए करवट बदल ली। गुड नाइट' कहने की शैली में बोले,"सो तो ठीक है। पर यहां जो भी क-ख-ग-घ पढ़ लेता है,उर्दू भूंकने लगता है। बात-बात में इन्सानियत-इन्सानियत करता है। कल्ले में जब बूता नही होता,तभी इन्सानियत के लिए जी हुड़कता है।"

बात ठीक थी। शिवपालगंज में इन दिनों इन्सानियत का बोलबाला था। लौण्डे दोपहर की घनी अमराइयों में जुआ खेलते थे। जीतनेवाले जीतते थे, हारनेवाले कहते थे, 'यही तुम्हारी इन्सानियत है? जीतते ही तुम्हारा पेशाब उतार आता
है। टरकने का बहाना ढुंढने लगते हो।"

कभी-कभी जीतनेवाला भी इन्सानियत का प्रयोग करता था। वह कहता,'क्या इसी का नाम इन्सानियत है? एक दांव हारने में ही पिलपिला गये। यहां चार दिन बाद हमारा एक दांव लगा तो उसी में हमारा पेशाब बन्द कर दोगें?"

ताड़ीघर में मजदूर लोग सिर को दांये-बाये हिलाते रहते। १९६२ मे भारत को चीन के विश्वासघात से जितना सदमा पहुचा था, उसी तरह के सदमे का दुश्य पेश करते हुए वे कहते,'बुधुवा ने पक्का मकान बनवा डाला। कारखानेवलों के ठाठ हैं। हमने कहा, पाहुन आये है। ताड़ी के लिए दो रुपये निकाल दो, तो उसने सीधे बात नही की, पिछल्ला दिखा के चला गया। बताओ नगेसर, क्या यही इन्सानियत है?"

यानी इन्सानियत का प्रयोग शिवपालगंज में उसी तरह और चालाकी का लक्षण माना जाता था जिस तरह राजनीति में नैतिकता का। यह दूसरी बात है कि बद्री पहलवान इसे कल्ले की कमजोरी समझते थे। यह संदेश देकर और नैतिकता पर उसे
लागू करने के लिए रंगनाथ को जागता छोड़कर वे बात-की-बात में सो गये।

रंगनाथ कम्बल ओढ़े छत की ओर देखता हुआ लेटा रहा। दरवाजा खुला था और बाहर चांदनी फ़ैली थी। थोड़ी देर उसने सोफ़िया लारेन और एलिजाबेथ का ध्यान किया, पर कुछ छण बाद ही इसे चरित्रहीनता की अलामत मानकर वह अपने शहर के धोबी की
लड़की के बारे में सोचने लगा जो धुलाई के कपड़ो से अपने लिए पोशाक निकालते वक्त पिछले दिनों बिना बांह के ब्लाउजों को ज्यादा तरजीह देने लगी थी। कुछ देर में इस परिस्थिति को भी कुछ घटिया समझकर फ़िल्मी अभिनेत्रियों पर उसने दोबारा ध्यान लगाया और इस बार राष्ट्रीयता और देश-प्रेम के नाम पर लिज टेलर आदि को भुलाकर वहीदा रहमान और सायरा बानू का सहारा पकड़ा। दो-चार मिनट बाद ही वह इस नतीजे पर पहुंचने लगा कि हर बात में विलायत से प्रेरणा लेना ठीक नहीं है और ठीक से मन लग जाये तो देश-प्रेम में भी बड़ा मजा है। अचानक उसे नींद-सी आने लगी और बहुत कोशिश करने पर भी सायरा बानू के समूचे जिस्म के सामने उसके ध्यान का रकबा छोटा पड़ने लगा। उसमें कुछ शेर और भालू छलांगे लगाने लगे। उसने एक बार पूरी कोशिश से सायरा बानू को धड़ से पकड़कर घसीटना चाहा, पर वह हाथ से बाहर फ़िसल गयी और उसी सौदे में शेर और भालू भी बाहर निकल गये। तभी उसके दिमाग में खन्ना मास्टर की बनती-बिगड़ती हुई तस्वीर दो-एक बार लुपलुपायी और एक शब्द गूंजने लगा 'इन्सानियत-इन्सानियत!'

पहले लगा कोई यह शब्द फ़ुस्फ़ुसा रहा है। फ़िर जान पड़ा, इसे कोई मंच पर बड़ी गम्भीर आवाज में पुकार रहा है। उसके बाद ही ऎसा जान पड़ा, कहीं दंगा हो रहा है और चारों ओर से लोग चीख रहे है, 'इन्सानियत! इन्सानियत!इन्सानियत!!!'

वह जाग पड़ा और जागते ही शोर सुनायी दिया," चोर! चोर! चोर! जाने ना पाये! पकड़ लो! चोर! चोर! चोर!"

एकाध क्षणों के बाद पूरी बात 'चोर! चोर! चोर! ' पर आकर टूट रही थी, जैसे ग्रामोफ़ोन की सुई रिकार्ड में इसी नुक्ते पर फ़ंस गयी हो। उसने देखा, शोर गांव में दूसरी तरफ़ हो रहा था। बद्री पहलवान चारपाई से कूद कर पहले ही नीचे खड़े हो गये है। वह भी उठ बैठा। बद्री ने कहा,"छोटे कहता ही था। चोरों का एक गिरोह आसपास घूम रहा है। लगता है, गांव में भी आ गये।"

दोनों जल्दी-जल्दी कपड़े पहनकर बाहर आये। कपड़े का अर्थ यही नहीं कि बद्री ने चूड़ीदार पैजामा और शेरवानी पहनी हो। नंगे बदन पर ढीली पड़ी हुई तहमद उन्होंने कमर के चारों ओर कस ली और एक चादर ओढ़ लिया। बस, कपड़े पहनने की क्रिया पूरी हो गयी। रंगनाथ परमहंसों की इस गति तक नही पहुंच पाया था। उसने कमीज डाल ली। दरवाजे तक पहुंचते-पहुंचते उसके कदम और भी तेज हो गये। तब तक चारों ओर से 'चोर!चोर!' के नारे उठने लगे थे। शोर हाथों-हाथ इतना बढ़ गया
कि अंग्रेजो ने अगर उसे १९२१ मे सुन लिया होता तो हिन्दुस्तान छोड़कर वे तभी अपने देश भाग गये होते।

दोनों जीने से उतर कर नीचे आये। बैठक से बाहर निकलते-निकलते बद्री पहलवान ने रंगनाथ से कहा,"तुम यहीं दरवाजा बन्द करके घर बैठो। मैं बाहर जाकर देखता हूं।"

ऐसा लगा जैसे बाहर जाने का मतलब जौहर दिखाना था या चक्रव्यूह भेदना था। दोनों भाई बाहर जाने की जिद पकड़ गये। रंगनाथ ने शहीदों की-सी अदा में कहा," यह है, तो जाइए आप लोग बाहर। मै ही घर पर रहूगां।"

सामने सड़क से चांदनी में तीन आदमी 'चोर! चोर!' चोखते हुए निकले उनके पीछे दो आदमी उसी तरह 'चोर! चोर' का नारा बुलन्द करते हुए निकल गये। फ़िर एक आदमी उसी तरह 'चोर! चोर!' का हल्ला मचाता हुआ निकला। फ़िर तीन आदमी और; सबके हाथो में लाठियां थी। सभी दौड़ रहे थे। तभी चोरों को दौड़ा रहे जुलूस में सबसे बाद में निकलनेवालों में से बद्री ने कुछ को पहचाना । वह भी दौड़कर उन्हीं से मिल गये। पुकारकर बोले," कौन है? चोर कहां है?"

छोटे ने हांफ़ते-हांफ़ते कहा," आगे! आगे निकल गये! " कुछ देर शान्ति रही।

रुप्पन बाबू और रंगनाथ बैठक का दरवाजा बन्द करके, ताला लगाकर छत पर वापस चले आये। नीचे से वैद्यजी खंखारकर बोले,"कौन है?"

रुप्पन बाबू ने जवाब दिया,"चोर हैं पिताजी!"

वैद्यजी घबराहट में गरजकर बोलें," कौन रुप्पन तुम छत पर हो?"

रुप्पन ने गांव में उठते हुए शोर को अपनी ओर से यथाशक्ति बढ़ावा देते हुए कहा, 'हां, हमी हैं। क्यों जान-बूझकर पूछ रहे हो? चैन से सोते क्यों नही?"

वैद्यजी अपने छोटे लड़के की यह आदर- भरी वाणी सुनकर चुप हो गये। छत पर रुप्पन बाबू और रंगनाथ गांव-भर में फैलती-फूटती आवाजों को सुनते रहे।

कोई मकान के पिछवाड़े चिल्लाया,"मार डाला!"

और शोर। किसी ने चीखकर कहा," अरे, नही छोटे! यह तो भगौती है।"

"छोड़ो। इसे छोड़ो। इधर! उधर चोर उधर गये है।"

कोई रो रहा था। किसी ने सान्त्वना दी," अरे,क्यों रांड-जैसा रो रहा है? एक डण्डा पड़ गया, उसी से फ़ांय-फ़ांय कर रहा है।"

रोते-रोते उसने जवाब दिया,"हम भी कसर निकालेंगे। देख लेंगे।"

फ़िर कुहराम,"उधर! उधर! जाने न पाये! दे दायें से एक लाठी! मार उछल के! क्या साला बाप लगता है?"

रंगनाथ को उत्साह और उत्सुकता के साथ-ही-साथ मजा भी आने लगा। यह भी कैसा नियम है! यहां लाठी चलाते समय बाप ही को अपवाद-रुप में छोड़ दिया जाता है।

धन्य है भारत, तेरी पित्र-भक्ति!

रुप्पन बाबू बोले,"भगौती और छोटॆ की चल रही थी। लगता है, इसी धमाचौकड़ी में छोटे ने कुछ कर दिया।"

रंगनाथ ने कहा,"यह तो बड़ी गड़बड़ बात है।"

रुप्पन बाबू उपेक्षा के साथ बोले,"गड़बड़ क्या है? दांव लग जाने की बात है।

छोटे देखने में भोंदू लगता है, पर बड़ा घाघ है।"

दोनों फ़िर चारों ओर की भगदड़ और शोर की ओर कान लगाये रहे। रंगनाथ ने कहा, "शायद चोर निकल गये।"

"वह तो यहां हमेशा ही होता है।"

रंगनाथ ने रुप्पन बाबू के ग्राम-प्रेम की चापलूसी करनी चाही। बोले,"शिवपालगंज में चोर आकर निकल जायें, यह तो सम्भव नहीं। बद्री दादा बाहर निकले हैं तो एक-दो पकड़े ही जायेगे।"

किसी पुरानी पीढ़ी के नेता की तरह अतीत की ओर हसरत के साथ देखते हुए रुप्पन बाबू ने ठण्डी सांस भरी। कहने लगे," नहीं रंगनाथ दादा, अब वह पहलेवाले दिन गये। वह ठाकुर दुरबीनसिंह का जमाना था। बड़े-बड़े चोर शिवपालगंज के नाम से थर्राते थे। रुप्पन बाबू की आंखे वीर-पूजा की भावना से चमक उठी। पर बात यहीं रुक गयी। शोर का आखिरी दौर चल निकला था और लोग आसमान फ़ाड़ने से उद्देश्य से बजरंग बली की जय बोलने लगे थे। रंगनाथ ने कहा,"लगता है, कोई चोर पकड़ा गया।"

रुप्पन बाबू ने कहा,"नहीं, मैं गंजहा लोगो को खूब जानता हू। चोरों को गांव से बाहर खदेड़ दिया होगा, चोरों ने खुद इन्हें गांव के बाहर नही खदेड़ा, यही क्या कम है? इसी खुशी मे जय-जयकार लगाई जा रही है।"

चांदनी में लोग दो-दो, चार-चार के गुट बनाकर किचमिच-किचमिच करते हुए सड़क और दूसरे रास्तों से आ-जा रहे थे। रुप्पन बाबू ने मुंडेर के पास खड़े होकर देखा। एक गुट ने नीचे से कहा,"जागते रहना रुप्पन बाबू! रात-भर होशियारी
से रहना।"

रुप्पन बाबू घ्रणा के साथ वहीं से बोले,"जाओ, बहुत नक्शेबाजी न झाड़ो।"

रंगनाथ की समझ मे नही आया कि इतनी अच्छी सलाह का रुप्पन बाबू इस तरह क्यों तिरस्कार कर रहे हैं। थोड़ी देर बाद यही सलाह गांव के कोने-कोने में गूंजने लगी,"जागते रहो, जागते रहो!"

शोर अब रह-रहकर हो रहा था। चारों ओर सीटियां भी सुनायी देने लगी थी। रंगनाथ ने कहां," ये सीटियां कैसी है?"

रुप्पन बाबू बोले,"क्या पुलिस शहर मे गश्त नही लगाती?"

"ओह! तो पुलिस भी अब मौके पर आ गयी है।"

"जी हां! पुलिस ने ही तो गंववालों की मदद से डाकुओं का मुकाबला किया है।

पुलिसवालों ही ने तो उन्हें यहां से मार भगाया है।"

रंगनाथ आश्चर्य से रुप्पन बाबू को देखने लगा, "डाकू?"

"हां-हां डाकू नही तो और क्या? चांदनी रात कभी चोर भी आते हैं। ये डाकू तो थे ही।"
रुप्पन बाबू जोर से ठठाकर हंसे। बोले,"दादा, ये गंजहा लोगों की बातें है, मुश्किल से समझोगे। मैं तो, जो अखबार में छपनेवाला है, उसका हाल आपको बता रहा हूं।"

एक सीटी मकान के बिल्कुल नीचे सड़क पर बजी। रुप्पन बोले,"तुमने मास्टर मोतीराम को देखा है कि नहीं? पुराने आदमी हैं दारोगाजी उनकी बड़ी इज्जत करते हैं। वे दारोगाजी की इज्जत करते है। दोनो की इज्जत प्रिंसिपल साहब करते है। कोई साला काम तो करता नही है, सब एक-दूसरे की इज्जत करते हैं।

"यही मास्टर मोतीराम शहर के अखबार के संवाददाता हैं। उन्होंने चोरों को डाकू भी न बताया तो मास्टर मोतीराम होने से फ़ायदा ही क्या?"

रंगनाथ हंसने लगा। सीटियां और 'जागते रहो' की आवाजे दूर-दूर तक बिखरने लगी। इधर-उधर के मकानों पर लोगों ने दरवाजे खुलवाने के लिए चीखना-चिल्लाना शुरु कर दिया। 'दरवाजा खोल दो मुन्ना' से लेकर 'मर गये ससुरे','अरे हम पुकार रहे है, तुम्हारे बाप' तक की शैलियां दरवाजा खुलवाने के लिए प्रयोग में आने लगीं। वैद्यजी के मकान पर भी किसी ने सदर दरवाजे के सांकल खटखटायी। बाहर लेटनेवाला एक हलवाहा जोर से खांसा। सांकल दोबारा खटकी। रंगनाथ ने कहा,"बद्री दादा होगे। चलो ताला खोल दे।"

वे लोग नीचे आ गये। ताला खोलते-खोलते रुप्पन ने पूछा,"कौन?"

बद्री ने दहाड़कर कहां,'खोलते हो कि नहीं? कौन-कौन लगाये हो?"

रुप्पन ने ताला खोलना बन्द कर दिया। बोले,"क्या नाम है?"

उधर से गला-फ़ाड़ आवाज आयी,"रुप्पन, कहे देता हूं, चुपचाप दरवाजा खोल दो......"

"कौन? बद्री दादा?"

"हां-हां, बद्री दादा ही बोल रहा हू। खोलो जल्दी।"

रुप्पन ने ढीले-ढाले हाथों से ताला खोलते हुए कहा,"बद्री दादा अपने बाबा का भी नाम बता दो।"

उन्होंने उसी तरह कोसते हुए बाबा का नाम बताया। फ़िर पूछा गया,"परबाबा का नाम?"

बद्री ने दरवाजे पर मुक्का मारा। कहा," अच्छा न खोलो, जाते हैं।

रुप्पन बाबू ने कहा,"दादा जमाना जोखिम का है। बाहर चोर लोग घूम रहे हैं, इसलिए पूछ रहा हूं। परबाबा का नाम भूल गये हो तो न बताओ, पर गुस्सा दिखाने से कोई फ़ायदा नहीं। गुस्से का काम बुरा है।"

बद्री पहलवान की असलियत की परीक्षा ले चुकने और क्रोध की निस्सारता पर अपनी राय देने के बाद रुप्पन बाबू ने दरवाजा खोला। बद्री पहलवान बिच्छू के डंक की तरह तिलमिलाते हुये अन्दर आये। रुप्पन बाबू ने पूछा,"क्या हुआ दादा? सभी
चोर भाग गये।

बद्री पहलवान ने कोई जवाब नहीं दिया। चुपचाप जीना चढ़कर ऊपर आ गये। रुप्पन बाबू नीचे ही अन्दर चले गये। ऊपर के कमरे में रंगनाथ और बद्री पहलवान जैसे ही अपनी-अपनी चारपाई पर लेटे, तभी नीचे गली से किसी ने पुकारा,"वस्ताद, नीचे आओ। मामला बड़ा गिचपिच हो गया है।"

बद्री ने कमरे के दरवाजे से ही पुकारकर कहा,"क्या हुआ छोटे? सोने दोगें कि रात भर यही जोते रहोगे?"

छोटे ने वही से जवाब दिया,"वस्ताद, सोने-वोने की बात छोड़ो। अब तो रपट की बात हो रही है। इधर तो साले गली-गली में 'चोर-चोर' करते रहें, उधर इसी चिल्लपों में किसी ने हाथ मार दिया। गयादीन के यहां चोरी हो गयी! उतर
जाओ।"

लेखक: श्रीलाल शुक्ल
टंकण सहयोग: कु. शहनाज़


अध्याय:1 । 2 । 3 ।4 ।5 । 6 । 7 ।8 । 9। 10 । 11 । 12 । 13

Thursday, December 14, 2006

9. कभी न उखड़ने वाला गवाह- पंडित राधेलाल

कोऑपरेटिव यूनियन का गबन बड़े ही सीधे-सादे ढ़ंग से हुआ था। सैकड़ों की संख्या में रोज होते रहनेवाले ग़बनों की अपेक्षा इसका यही सौन्दर्य था कि यह शुद्ध गबन था, इसमें ज्यादा घुमाव-फिराव न था। न इसमें जाली दस्तखतों
की जरुरत पड़ी थी, न फर्जी हिसाब बनाया गया था, न नकली बिल पर रुपया निकाला गया था। ऐसा गबन करने और ऐसे गबन को समझने के लिए किसी टेक्नीकल योग्यता की नहीं, केवल इच्छा-शक्ति की जरुरत थी।
कोऑपरेटिव यूनियन का गबन बड़े ही सीधे-सादे ढ़ंग से हुआ था। सैकड़ों की संख्या में रोज होते रहनेवाले ग़बनों की अपेक्षा इसका यही सौन्दर्य था कि यह शुद्ध गबन था, इसमें ज्यादा घुमाव-फिराव न था।


कोऑपरेटिव यूनियन का एक बीज गोदाम था जिसमें गेहूँ भरा हुआ था। एक दिन यूनियन का सुपरवाइजर रामसरुप दो ट्रक साथ में लेकर बीजगोदाम पर आया। ट्रकों पर गेहूँ के बोरे लाद लिये गये और दूर से देखने वाले लोगों ने समझा कि यह तो कोऑपरेटिव में रोज होता ही रहता है। उन्हें पड़ोस के दूसरे बीजगोदाम में पहुँचाने के लिए रामसरुप खुद एक ड्राइवर के बगल में बैठ गया और ट्रक चल पड़े। सड़क से एक जगह कच्चे रास्ते पर मुड़ जाने से पाँच मील आगे दूसरा बीजगोदाम मिल जाता; पर ट्रक उस जगह नहीं मुडे़, वे सीधे चले गये।

यहीं से गबन शुरु हो गया। ट्रक सीधे शहर की गल्ला मण्डी में पहुँच गये। वहाँ गेहूँ के बोरे उतारकर दोनों ट्रक गबन के बारे में सबकुछ भूल गये और दूसरे दिन आस-पास के क्षेत्र में पूर्ववत कोयला और लकड़ी ढ़ोने लगे। रामसरुप का उसके बाद काफी दिन तक पता नहीं चला और लोगों ने विश्वास कर लिया कि गेहूँ बेचकर, कई हजार रुपये जेब में भरकर वह बम्बई की ओर भाग गया है। यह पूरी घटना स्थानीय थाने में गबन की एक रिपोर्ट की शक्ल में आ गयी और बकौल वैद्यजी के, 'काँटा-सा निकल गया।'

पर यूनियन के एक डाइरेक्टर ने कल शहर जाकर एक ऐसा दृश्य देखा जिससे पता चला कि रामसरुप ने वे रुपये खर्च करने के लिए बम्बई को नहीं अपने इलाके के शहर को ही प्राथमिकता दी है। डाइरेक्टर साहब यों ही, सिर्फ़ शहर देखने के मतलब से, शहर देखने गये थे। इन अवसरों पर और कार्यक्रमों के साथ उनका कम -से-कम एक स्थायी कार्यक्रम होता था-किसी पार्क में पहुँचना, किसी पेड़ के नीचे बेंच पर बैठना, लैया-चना चबाना, रंगीन फूलों और लड़कियों को ध्यानपूर्वक देखना और किसी कम-उम्र छोकरे से सिर पर तेल मालिश कराना।

जब वे इस कार्यक्रम की मद आखिरी मद पर पहूँचे तो एक घटना हुई। वे उस समय पेड़ के नीचे बेंच पर बैठे थे, उनकी आँखें मुँदी हुई थीं और उनके सिर पर छोकरे की पतली और मुलायम उँगलियाँ 'तिड़-तिड़-तिड़-तिड़' की आवाज निकाल रही थीं। लड़का उल्लास के साथ उनके बालों पर तबले के कुछ टेढ़े-मेढ़े बोल निकाल रहा था और वे आँखें मूँदे अफसोस के साथ सोच रहे थे कि शायद वह तेल-मालिश का कार्यक्रम जल्द ही खत्म कर देगा। एक बार उन्होंने आँख खोलकर पीछे की ओर
गरदन घुमाने की कोशिश की, पर तेल-मालिश का असर-उसमें इतनी अफ़सरी आ गयी थी कि वह घूमी ही नहीं। अतः उन्होंने लड़के का मुँह तो नहीं देखा, जो कुछ सामने था उसे ही देखकर सन्तोष करना चाहा।

उन्होंने देखा, सामने एक पेड़ था और उसके नीचे बेंच पर रामसरुप सुपरवाइजर बैठा था। वह भी एक लड़के से सिर पर तेल-मालिश करा रहा था और 'तिड़-तिड़-तिड़-तिड़' की सुखपूर्ण अनुभूति में खोया हुआ था। दोनों पक्ष उस समय परमहंसों के भाव से अपने-अपने जगत में तल्लीन थे। शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए यह आदर्श स्थिति थी। अतः उन्होंने एक-दूसरे के मामले में हस्तक्षेप नहीं किया। लगभग पन्द्रह मिनट वे अपनी-अपनी बेंच पर अच्छे पड़ोसियों की तरह बैठे हुए एक-दूसरे को देखकर भी अनदेखा करते रहे। फिर देह तोड़कर दोनों पक्ष उठ खडे हुए और अपने-अपने मालिशकर्ता को यथोचित पारिश्रमिक देकर, उन्हें दोबारा वहीं मिलने के लिए प्रोत्साहित करके,पंचशील के सिद्धांतों के अनुसार वे अपने-अपने रास्ते लग गये।

शिवपालगंज की ओर लौटते समय डाइरेक्टर को जान पड़ने लगा कि मालिश के सुख के पीछे उन्होंने कोऑपरेटिव आन्दोलन के साथ विश्वासघात किया है। उन्हें याद आया कि रामसरुप फ़रार है और पुलिस उसकी तलाश में है। अगर वे रामसरुप को पकड़वा दे तो गबन का मुकदमा चल निकलता। शायद उनका नाम अखबार में भी छपता। यह सब सोचकर वे दुखी हुए। उनकी आत्मा उनको कुरेदने लगी। अतः वापस आते ही आत्मा के संतोष के लिए वे वैद्यजी से मिले और हिंग्वाष्टक चूर्ण की पुड़िया फाँककर उनसे बोले, "मुझे आज पार्क में ऐसा आदमी दिखायी दिया था जो बिल्कुल रामसरुप-जैसा था।"

वैद्यजी ने कहा, "होगा। कुछ आदमियों की आकृतियाँ एक-सी होती हैं।"

डाइरेक्टर को लगा कि इतने से उनकी आत्मा उनका पीछा न छोड़ेगी, थोड़ी देर इधर-उधर देखकर उन्होंने कहा, "मैंने तभी सोचा था कि हो-न-हो, यह रामसरुप ही है।"

वैद्यजी ने डाइरेक्टर पर अपनी आँखें गड़ा दीं। उन्होंने फिर कहा, "रामसरुप ही था। मैंने सोचा कि यह साला यहाँ क्या कर रहा है। मालिश करा रहा था।"

"तुम वहाँ क्या कर रहे थे?"

डाइरेक्टर थोड़ी देर सोचते रहे। फिर सोच-समझकर बोले, "मैंने सोचा, कहीं रामसरुप यह जान न जाये कि उसे देख लिया गया है। इसीलिए पुलिस को इत्तला नहीं दी।"
सनीचर पृथ्वी पर वैद्यजी को एकमात्र आदमी और स्वर्ग में हनुमानजी को एकमात्र देवता मानता था और दोनों से अलग-अलग प्रभावित था। हनुमानजी सिर्फ़ लँगोटा लगाते हैं, इस हिसाब से सनीचर भी सिर्फ़ अण्डरवियर से काम चलाता था। जिस्म पर बनियान वह तभी पहनता जब उसे सज-धजकर कहीं के लिए निकलना होता। यह तो हुआ हनुमानजी का प्रभाव; वैद्यजी के प्रभाव से वह किसी भी राह-चलते आदमी पर कुत्ते की तरह भौंक सकता था, पर वैद्यजी के घर का कोई कुत्ता भी हो, तो उसके सामने वह अपनी दुम हिलाने लगता था।

गबन का अभियुक्त बम्बई में नहीं, बल्कि पन्द्रह मील की दूरी पर ही है और तेल-मालिश कराने के लिए उसका सिर अब भी कन्धों पर सही-सलामत रखा है, इस सूचना ने वैद्यजी को उलझन में डाल दिया। डाइरेक्टरों की बैठक बुलाना जरुरी हो गया। पूरी बात उन्होंने खाली-पेट सुनी थी, उसे भंग पीकर भी सुना जा सके इसलिए बैठक का समय सायंकाल के लिए रखा गया।

सनीचर पृथ्वी पर वैद्यजी को एकमात्र आदमी और स्वर्ग में हनुमानजी को एकमात्र देवता मानता था और दोनों से अलग-अलग प्रभावित था। हनुमानजी सिर्फ़ लँगोटा लगाते हैं, इस हिसाब से सनीचर भी सिर्फ़ अण्डरवियर से काम चलाता था। जिस्म पर बनियान वह तभी पहनता जब उसे सज-धजकर कहीं के लिए निकलना होता। यह तो हुआ हनुमानजी का प्रभाव; वैद्यजी के प्रभाव से वह किसी भी राह-चलते आदमी पर कुत्ते की तरह भौंक सकता था, पर वैद्यजी के घर का कोई कुत्ता भी हो, तो उसके सामने वह अपनी दुम हिलाने लगता था। यह दूसरी बात है कि वैद्यजी के घर पर कुत्ता नहीं था और सनीचर के दुम नहीं थी। उसे शहर की हर चीज में, और इसलिए रंगनाथ में काफी दिलचस्पी थी। जब रंगनाथ दरवाजे पर होता, सनीचर भी उसके आसपास देखा जा सकता था। आज भी यही हुआ।

वैद्यजी कोऑपरेटिव यूनियन की बैठक में गये थे। दरवाजे पर सिर्फ़ रंगनाथ और सनीचर थे। सूरज डूबने लगा था और जाड़े की शाम के साथ हर घर से उठनेवाला कसैला धुआँ मकानों के उपर लटक गया था। कोई रास्ते पर खट-खट करता हुआ निकला। किसी भी शारीरिक विकार के लिए हम भारतीयों के मन में जो सात्विक घृणा होती है, उसे थूककर बाहर निकालते हुए सनीचर ने कहा, "लँगड़वा जा रहा है, साला!" कहकर वह उछलता हुआ बाहर चबूतरे पर आ गया और वहाँ मेंढक की तरह बैठ गया।

रंगनाथ ने पुकारकर कहा, "लंगड़ हो क्या?"

वह कुछ आगे निकल गया था। आवाज सुनकर वह वहीं रुक गया और पीछे मुड़कर देखते हुए बोला, "हाँ बापू, लंगड़ ही हूँ।"
"मिल गयी नकल?"

रंगनाथ के इस सवाल का जवाब सनीचर ने दिया, "नकल नहीं, इन्हें मिलेगा सिकहर*। उसी में टाँग लटकाकर झूला करेंगे।"

लंगड़ पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। वहीं से उसने पुकारकर कहा, " नकल तो नहीं मिली बापू, आज नोटिस-बोर्ड पर ऐतराज छपा है।"

"क्या हुआ? फिर से फीस कम पड़ गयी क्या?"

"फीस नहीं बापू," वह अपनी बात को सुनाने के लिए चिल्ला रहा था, "इस बार मुकदमे के पते में कुछ गलती है। प्रार्थी के दस्तखत गलत खाने में हैं। तारीख के ऊपर दो अंक एक में मिल गये हैं। एक जगह कुछ कटा है, उस पर दस्तखत नहीं हैं। बहुत गलती निकाली गयी है।"

* सिकहर रस्सी का बुना हुआ एक झोला होता है। अवध के देहातों में इसे छत से लटका देते हैं। प्रायः उस पर दूध, दही आदि की हाँडियाँ रखी जाती हैं।

रंगनाथ ने कहा," वे दफ्तरवाले बड़े शरारती हैं। कैसी-कैसी गलतियाँ निकालते हैं।"

जैसे गाँधीजी अपनी प्रार्थना-सभा में समझा रहे हों कि हमें अंग्रेजों से घृणा नहीं करनी चाहिए, उसी वजह पर लंगड़ ने सिर हिलाकर कहा, "नहीं बापू, दफ्तरवाले तो अपना काम करते हैं। सारी गड़बड़ी अर्जीनवीस ने की है। विद्या का लोप हो रहा है। नये-नये अर्जीनवीस गलत-सलत लिख देते हैं।"

रंगनाथ ने मन में इतना तो मंजूर कर लिया कि विद्या का लोप हो रहा है, पर लंगड़ के बताये हुए कारण से वह सहमत न हो सका। वह कुछ कहने जा रहा था, तब तक लंगड़ ने जोर से कहा, "कोई बात नहीं बापू, कल दरख्वास्त ठीक हो
जायेगी।" वह खट-खट-खट करता चला गया। सनीचर ने कहा,"जाने किस-किस देश के बाँगडू शिवपालगंज में इक्ट्ठा हो रहे हैं।"

रंगनाथ ने उसे समझाया,"सब जगह ऐसा ही है। दिल्ली का भी यही हाल है।"
जैसे भारतीयों की बुद्धि अंग्रेजी की खिड़की से झाँककर संसार का हालचाल देती है, वैसे ही सनीचर की बुद्धि रंगनाथ की खिड़की से झाँकती हुई दिल्ली के हालचाल लेने लगी।


वह सनीचर को दिल्ली के किस्से सुनाने लगा। जैसे भारतीयों की बुद्धि अंग्रेजी की खिड़की से झाँककर संसार का हालचाल देती है, वैसे ही सनीचर की बुद्धि रंगनाथ की खिड़की से झाँकती हुई दिल्ली के हालचाल लेने लगी। दोनों कुछ देर उसी में अटके रहे।

अँधेरा हो चला था, पर अभी हालत ऐसी नहीं थी कि आँख के सामने खड़े हुए आदमी और जानवर में तमीज न की जा सके। वैद्यजी की बैठक में एक लालटेन लटका दी गयी। सामने रास्ते से तीन नौजवान जोर-जोर से ठहाके लगाते हुए निकले। उनकी बातचीत किसी एक ऐसी घटना के बारे में होती रही जिसमें 'दोपहर', 'फण्टूश','चकाचक', 'ताश' और 'पैसे' का जिक्र उसी बहुतायत से हुआ जो प्लानिंग कमीशन के अलहकारों में 'इवैल्यूएशन', 'कोआर्डिनेशन', 'डवटेलिंग'या साहित्यकारों में 'परिप्रेक्ष्य', 'आयाम', 'युगबोध', 'सन्दर्भ' आदि कहने में पायी जाती है। कुछ कहते-कहते तीनों नौजवान बैठक से आगे जाकर खड़े हो गये। सनीचर ने कहा, "बद्री भैया इन जानवरों को कुश्ती लड़ना सिखाते हैं। समझ लो, बाघ के हाथ में बन्दूक दे रहे हैं। वैसे ही सालों के मारे लोगों का रास्ता चलना मुश्किल है, दाँव-पेंच सीख गये तो गाँव छोड़ देना होगा।"

अचानक नौजवानों ने एक विशेष प्रकार का ठहाका लगाया। सब वर्गों की हँसी और ठहाके अलग-अलग होते हैं। कॉफी-हाउस में बैठे हुए साहित्यकारों का ठहाका कई जगहों से निकलता है, वह किसी के पेट की गहरई से निकलता है, किसी के गले से, किसी के मुँह से और उनमें से एकाध ऐसे भी रह जाते हैं जो सिर्फ सोचते हैं कि ठहाका लगाया क्यों गया है। डिनर के बाद कॉफी पीते हुए, छके हुए अफसरों का ठहाका दूसरी ही किस्म का होता है। वह ज्यादातर पेट के बड़ी ही अन्दरुनी गहराई से निकलता है। उस ठहाके के घनत्व का उनकी साधारण हँसी के साथ वही अनुपात बैठता है जो उनकी आमदनी का उनकी तनख्वाह से होता है। राजनीतिज्ञों का ठहाका सिर्फ़ मुँह के खोखल से निकलता है और उसके दो ही आयाम होते हैं, उसमें प्रायः गहराई नहीं होती। व्यापारियो का ठहाका होता ही नही है और अगर होता भी है तो ऎसे सुक्ष्म और सांकेतिक रुप में,कि पता लग जाता है, ये इनकम-टैक्स के डर से अपने ठहाके का स्टाक बाहर नहीं निकालना चाहते। इन नौजवानों ने ठहाका लगाया था, वह सबसे अलग था। यह् शोहदों का ठहाका था, जो आदमी के गले से निकलता है, पर जान पडता है, मुर्गों, गीदड़ों और घोड़ों के गले से निकला है।
डिनर के बाद कॉफी पीते हुए, छके हुए अफसरों का ठहाका दूसरी ही किस्म का होता है। वह ज्यादातर पेट के बड़ी ही अन्दरुनी गहराई से निकलता है। उस ठहाके के घनत्व का उनकी साधारण हँसी के साथ वही अनुपात बैठता है जो उनकी आमदनी का उनकी तनख्वाह से होता है। राजनीतिज्ञों का ठहाका सिर्फ़ मुँह के खोखल से निकलता है और उसके दो ही आयाम होते हैं, उसमें प्रायः गहराई नहीं होती।


ठहाका सुनते ही सनीचर ने अधिकार-भरी आवाज में कहा,"यहां खड़े-खड़े क्या उखाड़ रहे हो? जाओ, रास्ता नापो।"

नौजवान अपनी हंसी के पांकेट बुक-संस्करण प्रकाशित करते हुए अपना रास्ता नापने लगे। तब तक अंधेरे से एक औरत छम-छम करती हुई निकली और लालटेन की धीमी रोशनी में लपलपाती हुई परछाई छोड़ती दूसरी ओर निकल गयी। वह बड़बड़ाती जा रही थी, जिसका तात्पर्य था कि कल के छोकरे जो उसके सामने नंगे-नंगे घूमा करते थे, आज उससे इश्कबाजी करने चले हैं। सारे मुहल्ले को यह समाचार देकर कि लड़के उसे छेड़ते है और वह अब भी छेड़ने लायक है, वह औरत वहीं अंधेरे में गायब हो गयी। सनीचर ने रंगनाथ से कहां,"न जाने वह काना इस कुतिया को कहां से घसीट लाया है! जब निकलती है तो कोई-न-कोई इसे छेड़ ही देता है।"

'काना' से पं. राधेलाल का अभिप्राय था। उनकी एक आंख दूसरी से छोटी थी और इसी से गंजहे उनको काना कहने लगे थे। यही हमारी प्राचीन परम्परा है, वैसे तो हमारी हर बात प्राचीन परम्परा है, कि लोग बाहर जाते है और जरा-जरा-सी बात पर शादी कर बैठते है। अर्जुन के साथ चित्रांगदा आदि को लेकर यही हुआ था, यही भारतवर्ष के प्रवर्त्तक भरत के पिता दुष्यन्त के साथ हुआ था, यही ट्रिनिडाड और टोबैगो, वर्मा और बैंकाक जानेवालो के साथ होता था, यही अमेरिका और यूरोप जाने वालो के साथ हो रहा है और यही पण्डित राधेलाल के साथ हुआ। अर्थात अपने मुहल्ले में रहते हुए जो बिरादरी के एक इंच भी बाहर जाकर शादी करने की कल्पना-मात्र से बेहोश हो जाते है वे भी अपने क्षेत्र से बाहर निकलते ही शादी के मामले में शेर हो जाते है। अपने मोहल्ले में देवदास पार्वती से शादी नहीं कर सका और एक समूची पीढ़ी को कई वर्षो तक रोने का मसाला दे गया था। उसे विलायत भेज दिया जाता तो वह निश्चय ही बिना हिचक किसी गोरी ऒरत से शादी कर लेता। बाहर निकलते ही हम लोग प्राय: पहला काम यह करते है कि किसी से शादी कर डालते है फ़िर सोचना शुरु करते है कि हम यहां क्या करने आये थे। तो पं. राधेलाल ने भी, सुना जाता है, एक बार पूरब जाकर कुछ करना चाहा था, पर एक महीने में ही वे इस'कुतिया' से शादी करके शिवपालगंज वापस लौट आये।
अपने मोहल्ले में देवदास पार्वती से शादी नहीं कर सका और एक समूची पीढ़ी को कई वर्षो तक रोने का मसाला दे गया था।


किसी पूर्वी जिले की एक शकर-मिल में एक बार पं. राधेलाल को नौकरी मिलने की सम्भावना नजर आयी। नौकरी चौकीदारी की थी। वे वहां जाकर एक दूसरे चौकीदार के साथ रुक गये। तब पं. राधेलाल की शादी नहीं हुई थी और उनके जीवन की सबसे बड़ी समस्या यह् थी कि ऒरत के हाथ का खाना नही मिलता। उनके साथी चौकीदार की बीवी ने कुछ दिनो के लिए इस समस्या को सुलझा दिया। वहां रहते हुए वह उसका बनाया हुआ खाना खाने लगा और जैसे कि एक जगत-प्रसिद्ध् कहावत है, स्त्री पेट के रास्ते आदमी के ह्र्दय पर कब्जा करती है, उसने पं. राधेलाल के पेट में सुरंग लगा दी और ह्रदय की ओर बढ़ने लगी। उन्हें उसका बनाया हुआ खाना ऎसा पसंद आया और वह खुद अपनी बनायी हुई सुरंग मे इस तरह फंस गयी कि महीने-भर के भीतर ही वे उसे अपना खाना बनाने के लिये शिवपालगंज ले आये। चलते-चलते उसके घर से ही उन्होने साल-दो-साल के लिए खाने का इन्तजाम भी साथ मे ले लिया। इस घटना के बाद मिल के क्षेत्र में लोगो ने सोचा कि पं. राधेलाल का साथी चौकीदार उल्लू है। शिवपालगंज में गजहों ने सोचा कि राधेलाल मर्द का बच्चा है। अब तक उस क्षेत्र में पं.राधेलाल की प्रतिष्ठा 'कभी न उखड़नेवाले गवाह' के रुप में थी, अब वे 'कभी न चूकनेवाले मर्द' के रुप में भी विख्यात हो गये।

वैसे,'कभी न उखड़नेवाले गवाह' की ख्याति ही पं. राधेलाल की जीविका का साधन थी। वे निरक्षरता और साक्षरता की सीमा पर रहते थे और जरुरत पड़ने पर अदालतों में 'दस्तखत कर लेता हू,' 'मैं पढ़ा-लिखा नही हूं' इनमें कोई भी बयान दे
सकते थे। पर दीवानी और फ़ौजदारी कानूनों का उन्हें इतना ज्ञान सहज रुप में मिल गया था कि वे किसी भी मुकदमें में गवाह की हैसियत से बयान दे सकते थे और जिरह में अब तक उन्हें कोई भी वकील उखाड़ नही पाया था। जिस तरह कोई भी जज अपने सामने किसी भी मुकदमे का फ़ैसला दे सकता है, कोई भी वकील किसी भी मुकदमे की वकालत कर सकता है, वैसे ही पं. राधेलाल किसी भी मामले के चश्मदीद गवाह बन सकते थे। संक्षेप में, मुकदमेबाजी की जंजीर में वे भी जज,
वकील, पेशकार आदि की तरह एक अनिवार्य कड़ी थे और जिस अंग्रेजी कानून की मोटर पर चढ़कर हम बड़े गौरव के साथ 'रुल आफ़ ला' की घोषणा करते हुए निकलते है, उसके पहियों में वे टाइराड की तरह बंधे हुए उसे मनमाने ढंग से
मोड़ते चलते थे।
जिस तरह कोई भी जज अपने सामने किसी भी मुकदमे का फ़ैसला दे सकता है, कोई भी वकील किसी भी मुकदमे की वकालत कर सकता है, वैसे ही पं. राधेलाल किसी भी मामले के चश्मदीद गवाह बन सकते थे।

एक बार इजलास में खड़े होकर जैसे ही वे शपथ लेते,'गंगा-कसम, भगवान-कसम, सच-सच कहेगे, वैसे ही विरोधी पक्ष से लेकर मजिस्ट्रेट तक समझ जाते कि अब यह सच नही बोल सकता। पर ऎसा समझना बिलकुल बेकार था, क्योंकि फ़ैसला समझ से नहीं कानून से होता है और पं. राधेलाल की बात समझने में चाहे जैसी लगे, कानून पर खरी उतरती थी।

पं. राधेलाल की जो भी प्रतिष्ठा रही हो, उनकी प्रेयसी की स्थिति बिल्कुल साफ़ थी। वह भागकर आयी थी, इसलिए कुतिया थी। लोग उससे मजाक कर सकते थे और हमेशा यह समझकर चल सकते थे कि उसे मजाक अच्छा लगता है। यह शिवपालगंज के नौजवानों का सौभाग्य था कि कुतिया ने भी उनको निराश नही किया। उसे सचमुच ही मजाक अच्छा लगता था और इसी से मजाक होने पर छूटते ही गाली देती थी, जो कि गंजहो मे आत्माभिव्यक्ति का बड़ा जनप्रिय तरीका माना जाता था।

सनीचर रंगनाथ को पं. राधेलाल का किस्सा बड़े ही नाटकीय ढंग से सुना रहे थे। तभी उन तीनो नौजवानों में से एक बैठक के दरवाजे पर जा कर खड़ा हो गया। वह नंगे बदन था। उसके जिस्म पर अखाड़े की मिट्टी लगी हुई थी। लंगोटे की पट्टी कमर से पैरों तक हाथी की सूड़ की तरह लटकी हुई थी। उन दिनों शिवपालगंज में लंगोटा पहनकर चलनेवालों में यही फ़ैशन लोकप्रिय हो रहा था। सनीचर ने पूछा,"क्या मामला है छोटे पहलवान?"

पहलवान ने शरीर के जोड़ों पर दाद खुजलाते हुए कहा,"बद्री भैया आज अखाड़े में नही आये? कहां लपक गये?"

"लपक कहां जायेगे, इधर-उधर कहीं होगे?"

"कहां होगे?"
"यूनियन का सुपरवाइजर गेहूं लदवाकर भाग गया है। उसी की मीटिंग यूनियन में हो रही है। बद्री भी गये होगे।"

पहलवान ने लापरवाही से चबूतरे पर थूक दिया। कहा,"बद्री भैया मीटिंग में बैठ कर क्या अण्डा देगें? सुपरवाइजर को पकड़कर एक धोबीपाट मारते, उसी में साला टें हो जाता! मीटिंग-शीटिंग मे क्या होगा?"

रंगनाथ को बात पसन्द आ गयी। बोला,"क्या तुम्हारें यहां मीटिंग मे अण्डा दिया जाता है?"

पहलवान ने इधर से किसी सवाल की आशा न की थी। उसने कहा," अण्डा नही देगें तो क्या बाल उखाड़ेगे? सब मीटिंग मे बैठ कर रांडो की तरह फ़ांय-फ़ांय करते है, काम धाम के वक्त खूंटा पकड़ कर बैठ जाते है।"

रंगनाथ को हिन्दी-भाषा के इस रुप का विशेष ज्ञान न था। उसने मन में सोचा, लोग यों ही कहा करते है कि हमारी भाषा में सशक्त शब्दों की कमी है। यदि हिन्दी के विद्वानों को छोटे पहलवान की तरह अखाड़े मे चार महीने रखा जाये तो बिना किसी व्यक्तिगत असुविधा के वे वहां की मिट्टी के जर्रे-जर्रे से इस तरह के शब्दकोश निकालने लगेंगे। रंगनाथ ने अब छोटे पहलवान को आदर की निगह से देखा। इतमिनान से बात करने के मतलब से कहा," अन्दर आ जाओ पहलवान।"

"बाहर कौन गाज गिर रही है? हम यही चुर्रेट है।" इतना कहकर छोटे पहलवान ने बातचीत मे कुछ आत्मीयता दिखायी। पूछा,"तुम्हारे क्या हाल है रंगनाथ गुरु"?

रंगनाथ पहलवान से अपने बारे में ज्यादा बात नहीं करना चाहता था। दोनों वक्त दूध-बादाम पीने और कसरत करने की बात काफ़ी-हाउसों मे भले ही लोगो की उत्सुकता न जगाये,पर छोटे पहलवान के लिए यह विषय पूरी रात पार करने को काफ़ी था। रंगनाथ बोला ,"हम तो बिल्कुल फ़िट है पहलवान, अपने हाल बताओ। इस सुपरवाइजर को गेहूं बेचने की क्या जरुरत पड़ी?"

पहलवान ने फ़िर नफ़रत के साथ चबूतरे पर थूका, लंगोट की पट्टी को खींचकर कसा और इस प्रकार असफ़ल चेष्टा से यह शुभेच्छा प्रकट की कि वह नंगा नहीं है। इसके बाद अपने को रंगनाथ की समकक्षता में लाकर बोला,"अरे गुरु कहा है,'तन पर नही लत्ता, पान खाया अलबत्ता' वही हाल था। लखनऊ में दिन रात फ़ुटट्फ़ैरी करता था। तो, बिना मसाले के फ़ुटट्फ़ैरी कैसी? गेहूं तो बेचेगा ही।"

"यह फ़ुटट्फ़ैरी क्या चीज है?"

पहलवान हंसा,"फ़ुटट्फ़ैरी नही समझे। वह ससुरा बड़ा लासेबाज था। तो लासेबाजी कोई हंसी-ठट्ठा है! बड़ों-बड़ों का गूदा निकल आता है। जमुनापुर की रियासत तक इसी में तिड़ी-बिड़ी हो गयी।
देसी विश्वविधालयों के लड़के अंग्रेजी फ़िल्म देखने जाते हैं। अंग्रेजी बातचीत समझ में नहीं आती, फ़िर भी बेचारे मुस्कराकर दिखाते रहते है कि वे सब समझ रहे है और फ़िल्म बड़ी मजेदार है।


देसी विश्वविधालयों के लड़के अंग्रेजी फ़िल्म देखने जाते हैं। अंग्रेजी बातचीत समझ में नहीं आती, फ़िर भी बेचारे मुस्कराकर दिखाते रहते है कि वे सब समझ रहे है और फ़िल्म बड़ी मजेदार है। नासमझी के माहौल में रंगनाथ भी उसी तरह मुस्कुराता रहा। पहलवान कहता रहा,"गुरु,इस रामसरुप सुपरवाइजर की नक्शेबाजी मै पहले से देख रहा था। बद्री पहलवान से मैने तभी कह दिया था कि वस्ताद, यह लखनऊ लासेबाजी की फ़िराक में जाता है। तब तो बद्री वस्ताद भी कहते रहे कि 'टांय-टांय न कर छोटू, साला आग खायेगा तो अंगार हगेगा।' अब वह आग भी खा गया और गेहूं भी तिड़ी कर ले गया। पहले तो बैद महाराज भी छिपाये बैठे रहे, अब जब पाने का हगा उतरा आया है तो सब युनियन के दफ़्तर में बैठकर फ़ुसर-फ़ुसर कर रहे है। सुना है प्रस्ताव पास करेगे। प्रस्ताव न पास करेंगें, पास करेंगा घण्टा। गल्ला गोदाम का सब गल्ला तो रामसरुप निकाल ले गया। अब जैसे प्रस्ताव पास करके ये उसका कुछ उखाड़ ले़गे।"

रंगनाथ ने कहां." बद्री से तुमने बेकार की बात की। बैदजी से अपना शुबहा बताते तो वह तभी इस सुपरवाइजर को यहां से हटवा देते।"

"अरे गुरु, मुंह न खुलवाओ, बैधजी तुम्हारे मामा है, पर हमारे कोई बाप नही लगते। सच्ची बात ठांस दूंगा तो कलेजे में कल्लायेगी, हां!"

सनीचर ने कहां,"छोटू पहलवान, आज बहुत छानकर चले हो क्या? बड़ी रंगबाजी झाड़ रहे हो।"

छोटे पहलवान बोले,"रंगबाजी की बात नहीं बेटा, मेरा तो रोआं-रोआं सुलग रहा है! जिस किसी की दुम उठाकर देखो, मादा ही नजर आता है। बैद महाराज के हाल हमसे न कहलाओ। उनका खाता खुल गया तो भम्भक-जैसा निकल आयेगा। मुंदना भी मुश्किल हो जायेगा। यहीं रामसरुप रोज बैदजी के मुंह-में-मुंह डालकर तीन-तेरह की बातें करता था और जब दो ठेला गेहूं लदवाकर रफ़ूचक्कर हो गया तो दो दिन से टिलटिला रहे हैं। हम भी युनियन में हैं। कह रहे थे, प्रस्ताव में चलकर हाथ उठा दो। हम बोले कि हमसे हाथ न उठवाओ महराज; मैं हाथ उठाऊंगा तो लोग कांखने लगेंगे। हां! यही रामसरुप रोज शहर में घसड़-फ़सड़ करता घूमता है, उसे पकड़वाकर एकलक्खी इमारत में बन्द कराते नहीं, कहते हैं कि प्रस्ताव कर लो। बद्री वस्ताद खुद बिलबिलाये हुए हैं, पर सगे बाप का मामला, यह जांघ खोलो तो लाज और वह खोलो तो लाज।"

तब तक बैठक के सामने लोगों के आने की आवाजे सुनायी दीं। चबूतरे पर खद्दर की धोती, कुरता, सदरी टोपी और चादर में भव्यमूर्ति वैध महाराज प्रकट हुए। उनके पीछे कई और चेले-चपाड़े। बद्री पहलवान सबसे पीछे थे। चेहरा बिना तोबड़े की सहायता के ही तोबड़ा-जैसा हो रहा था। उन्हें देखते ही छोटे ने कहां,"वस्ताद, एक बड़ा फ़ण्टूश मामला है। बड़ी देर से बताने के लिए खड़ा हूं।"

"खड़े हो तो कौन पिघले जा रहे हो? क्या मामला है? कहकर बद्री पहलवान ने छोटे का स्वागत किया। गुरु-शिष्य चबूतरे के दूसरे छोर पर बातचीत करने के लिए चले गये।

वैधजी और चार-पांच आदमी अन्दर आ गये। एक ने इत्मीनान की बड़ी लम्बी सांस खीची जो खत्म होते-होते एक सिसकी में बदल गयी। दूसरा तख्त पर बैठ गया और उसने इतने जोर से जम्हाई ली कि पहले तो वह जम्हाई रही, पर आखीर मे सीटी पर आकर खत्म हुई। वैधजी ने भी तकिये के सहारे बैठकर अपनी टोपी और कुरता इस अन्दाज से तख्त के दूसरे छोर पर फ़ेका जैसे कोई बड़ा गवैया एक लम्बी तान लगा चुकने के बाद सम पर आ गया यह स्पष्ट हो गया कि सभी लोग कोई बड़ा काम करके थकान उतारने की स्थिति में आ गये हैं।

सनीचर बोला,"महाराज, बहुत थकान आ गयी हो तो एक बार फ़िर छनवा दूं।" वैधजी कुछ नही बोले। यूनियन के एक डाइरेक्टर ने कहां,"दुबारा तो वहीं यूनियन में छन चुकी है। बढ़िया माल। दूधिया। अब घर चलने का नम्बर है।"

वैधजी कुछ देर पूर्ववत चुप बैठे हुए दूसरो की बाते सुनते रहें। यह आदत उन्होंने तभी से डाली थी जब से उन्हें विश्वास हो गया था कि जो खुद कम खाता है, दूसरों को ज्यादा खिलाता है; खुद कम बोलता है, दूसरों को ज्यादा बोलने देता है; वही खुद कम बेवकूफ़ बनता है, दूसरे को ज्यादा बेवकूफ़ बनाता है। फ़िर वे अचानक बोले,"रंगनाथ तुम्हारी क्या राय है?"

जिस तरह बिना बताये हुए वैधजी ने राय मांगी थी, उसी तरह बिना बात समझे हुए रंगनाथ ने कहां,"जी जो होता है अच्छा होता है।"

वैधजी मूंछो-ही-मूंछो मे मुस्कराये। बोले,"तुमने बहुत उचित कहा। बद्री प्रस्ताव के विरुद्ध था, पर बाद मे वह भी चुप हो गया। प्रस्ताव एक मत से पास हो गया। जो हुआ अच्छा ही हुआ!"

रंगनाथ को अब ध्यान आया कि वह अपनी राय यों ही लूटा चुका है। उसने उत्सुकतापूर्वक पूछा,"क्या प्रस्ताव किया आप लोगो ने?"

"हम लोगों ने प्रस्ताव किया है कि सुपरवाइजर ने जो हमारी आठ हजार रुपये की हानि की है, उसकी पूर्ति के लिए सरकार अनुदान दे।" रंगनाथ इस तर्क से लड़खड़ा गया। बोला,"सरकार से क्या मतलब? गबन आपकी यूनियन के सुपरवाइजर ने किया और उसका हरजाना सरकार दे?"

"तो कौन देगा? सुपरवाइजर तो अलछित हो चुका है। हमने पुलिस में सूचना दे दी है। आगे सरकार का दायित्व है। हमारे हाथ मे कुछ भी नही है। होता, तो सुपरवाइजर को पकड़कर उससे गेंहू का मूल्य वसूल लेते। अब जो करना है, सरकार करे। या तो सरकार सुपरवाइजर को बन्दी बनाकर हमारे सामने प्रस्तुत करे या कुछ और करे। जो भी हो, यदि सरकार चाहती है कि हमारी यूनियन जीवित रहे और उसके द्धारा जनता का कल्याण होता रहे तो उसे ही यह हरजाना भरना पड़ेगा। अन्यथा यह यूनियन बैठ जायेगी। हमने अपना काम कर दिया, आगे का काम सरकार का है। उसकी अकर्मण्यता भी हम जानते है।"

वैधजी इतनी तर्कसंगत बाते कर रहे थे कि रंगनाथ का दिमाग चकरा गया। वे 'शासन की अकर्मण्यता "जनता का कल्याण" 'दायित्व' आदि शब्द बार-बार अपनी बात में ला रहे थे। रंगनाथ को यकीन हो गया कि नये जमाने मे लोग जैसी भाषा समझते है, उसके मामा पुरानी पीढ़ी के होकर भी वैसी ही भाषा बोलना जानते हैं।

बद्री पहलवान छोटे से बातचीत करके वापस आ गये थे। बोले,"रामाधीन के यहां डाका तो नहीं पड़ा, पर इधर-उधर चोरियां होने की खबरे आयी हैं।" वे अपने बाप के सामने प्राय: अदब से बोलते थे। यह बात भी उन्होने इस तरह से कही जैसे छोटे और उनके बीच की बात का यही निष्कर्ष था और उसे बताना उनका कर्त्तव्य था।

वैधजी ने कहा,"चोरी! डकैती! सर्वत्र यही सुन पड़्ता है। देश रसातल को जा रहा है।"

बद्री पहलवान ने इसे अनसुना करके, जैसे कोई हेल्थ-इंस्पेक्टर हैजे से बचाव के उपाय बता रहा हो,जनसाधारण से कहा , "पूरे गांव मे चोरी की चर्चा है। जागते हुए सोना चाहिए।"

सनीचर ने उछलकर अपना आसन बदला और पूछा,"जागते हुए कैसे सोया जाता है, पहलवान?"

बद्री ने सीधी लाइन मे कहा,"टिपर-टिपर मत करो। मुझे आज मजाक अच्छा नही लग रहा है।"

चबूतरे पर जाकर अंधेरे में छोटे पहलवान के पास खड़े हो गये।

लेखक: श्रीलाल शुक्ल
टंकण सहयोग: समीरलाल, कु. शहनाज़


अध्याय:1 । 2 । 3 ।4 ।5 । 6 । 7 ।8 । 9। 10 । 11 । 12 । 13

Monday, December 04, 2006

8. कर्फ़ोन है सर्फाला?

शिवपालगंज गॉंव था, पर वह शहर से नजदीक और सड़क के किनारे था। इसलिए बड़े बड़े नेताओं और अफसरों को वहॉं तक आने में सैद्धान्तिक एतराज नहीं हो सकता था। कुओं के अलावा वहॉं कुछ हैण्डपम्प भी लगे थे, इसलिए बाहर से आने वाले बड़े लोग प्यास लगने पर, अपनी जान को खतरे में डाले बिना, वहॉं का पानी पी सकते थे। खाने का भी सुभीता था। वहॉं के छोटे मोटे अफसरों में कोई न कोई ऐसा निकल ही आता था जिसके ठाठ बाट देख कर वहॉं वाले उसे परले सिरे का बेईमान समझते, पर जिसे देख कर ये बाहरी लोग आपस में कहते, कितना तमीजदार है। बहुत बड़े खानदान का लड़का है। देखो न, इसे चीको साहब की लड़की ब्याही है। इसलिए भूख लगने पर अपनी ईमानदारी को खतरे में डाले बिना वे लोग वहॉं खाना भी खा सकते थे। कारण जो भी रहा हो, उस मौसम में शिवपालगंज में जन नायकों और जन सेवकों का आना जाना बड़े जोर से शुरू हुआ था। उन सबको शिवपालगंज के विकास की चिन्ता थी और नतीजा यह होता था कि वे लेक्चर देते थे।

वे लेक्चर गँजहों के लिए विशेष रूप से दिलचस्प थे, क्योंकि इनमें प्रायः शुरू से ही वक्ता श्रोता को और श्रोता वक्ता को बेवकूफ मानकर चलता था जो कि बातचीत के उद्देश्य से गँजंहों के लिए आदर्श परिस्थिति है। फिर भी लेक्चर इतने ज्यादा होते थे कि दिलचस्पी के बावजूद, लोगों को अपच हो सकता था। लेक्चर का मजा तो तब है जब सुनने वाले भी समझें कि यह बकवास कर रहा है और बोलने वाला भी समझे कि मैं बकवास कर रहा हूं। पर कुछ लेक्चर देने वाले इतनी गम्भीरता से चलते कि सुनने वाले को कभी-कभी लगता था यह आदमी अपने कथन के प्रति सचमुच ईमानदार है। ऐसा सन्देह होते ही लेक्चर गाढ़ा और फीका बन जाता था और उसका श्रोताओं के हाजमे के बहुत खिलाफ पड़ता है। यह सब देख कर गँजंहों ने अपनी-अपनी तन्दुरुस्ती के अनुसार लेक्चर ग्रहण करने का समय चुन लिया था, कोई सवेरे खाना खाने के पहले लेक्चर लेता था, कोई दोपहर को खाना खाने के बाद। ज्यादातर लोग लेक्चर की सबसे बड़ी मात्रा दिन के तीसरे पहर ऊँघने और शाम को जागने के बीच में लेते थे।

लेक्चर का मजा तो तब है जब सुनने वाले भी समझें कि यह बकवास कर रहा है और बोलने वाला भी समझे कि मैं बकवास कर रहा हूं।

उन दिनों गांव में लेक्चर का मुख्य विषय खेती था। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि पहले कुछ और था। वास्तव में पिछले कुछ कई सालों से गांववालों को फुसलाकर बताया जा रहा था कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है। गांववाले इस बात का विरोध नहीं करते थे, पर प्रत्येक वक्ता शुरू से ही यह मान कर चलता था कि गांववाले इस बात का विरोध करेंगे। इसीलिए वे एक के बाद दूसरा तर्क ढूंढकर लाते थे और यह साबित करने में लगे रहते थे कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है। इसके बाद वे यह बताते थे कि खेती की उन्नति ही देश की उन्नति है। फिर आगे की बात बताने के पहले ही प्रायः दोपहर के खाने का वक्त हो जाता और वह तमीज़दार लड़का, जो बड़े सम्पन्न घराने की औलाद हुआ करता था और जिसको चीको साहब की लड़की ब्याही रहा करती थी, वक्ता की पीठ का कपड़ा खींच-खींचकर इशारे से बताने लगता कि चाचाजी, खाना तैयार है। कभी कभी कुछ वक्तागण आगे की बात भी बता ले जाते थे और तब मालूम होता कि उनकी आगे की और पीछे की बात में कोई फर्क नहीं था, क्योंकि घूम-फिरकर बात यही रहती थी कि भारत एक खेतिहर देश है, तुम खेतिहर हो, तुमको अच्छी खेती करनी चहिए, अधिक अन्न उपजाना चाहिए। प्रत्येक वक्ता इसी सन्देह में गिरफ्तार रहता था कि काश्तकार अधिक अन्न नहीं पैदा करना चाहते।


पिछले कुछ कई सालों से गांववालों को फुसलाकर बताया जा रहा था कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है। गांववाले इस बात का विरोध नहीं करते थे, पर प्रत्येक वक्ता शुरू से ही यह मान कर चलता था कि गांववाले इस बात का विरोध करेंगे।

लेक्चरों की कमी विज्ञापनों से पूरी की जाती थी और एक तरह से शिवपालगंज में दीवारों पर चिपके या लिखे हुए विज्ञापन वहाँ की समस्याओं और उनके समाधानों का सच्चा परिचय देते थे। मिसाल के लिए, समस्या थी कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है और किसान बदमाशी के कारण अधिक अन्न नहीं उपजाते। इसका समाधान यह था कि किसानों के आगे लेक्चर दिया जाये और उन्हे अच्छी अच्छी तस्वीरें दिखायी जायें। उनके द्वारा उन्हे बताया जाये कि तुम अगर अपने लिये अन्न नहीं पैदा करना चाहते तो देश के लिये करो। इसी से जगह जगह पोस्टर चिपके हुए थे जो काश्तकारों से देश के लिये अधिक अन्न पैदा कराना चाहते थे। लेक्चरों और तस्वीरों का मिला जुला असर काश्तकारों पर बड़े जोर से पड़ता था और भोले-से-भोला काश्तकार भी मानने लगता कि हो न हो, इसके पीछे भी कोई चाल है।

शिवपालगंज में उन दिनों एक ऐसा विज्ञापन खासतौर से मशहूर हो रहा था जिसमें एक तन्दुरुस्त काश्तकार सिर पर अँगोछा बाँधे, कानों में बालियाँ लटकाये और बदन पर मिर्जई पहने गेहूँ की ऊँची फसल को हँसिये से काट रहा था। एक औरत उसके पीछे खड़ी हुई, अपने-आपसे बहुत खुश, कृषी विभाग के अफसरों वाली हँसी हंस रही थी। नीचे और ऊपर अंग्रेजी और हिन्दी अक्षरों में लिखा थ, "अधिक अन्न उपजाओ।" मिर्जई और बालीवाले काश्तकारों में जो अंग्रेजी के विद्वान थे, उन्हे अंग्रेजी इबारत से और जो हिन्दी के विद्वान थे, उन्हे हिन्दी से परास्त करने की बात सोची गयी थी; और जो दोनों में से एक भी भाषा नहीं जानते थे, वे भी कम-से-कम आदमी और औरत को तो पहचानते ही थे। उनसे आशा की जाती थी कि आदमी के पीछे हँसती हुई औरत की तस्वीर देखते ही उसकी और पीठ फेर कर दीवानों की तरह अधिक अन्न उपजाना शुरू कर देंगे। यह तस्वीर आजकल कई जगह चर्चा का विषय बनी थी, क्योंकि यहाँ वालों कि निगाह में तस्वीर वाले आदमी की शक्ल कुछ-कुछ बद्री पहलवान से मिलती थी। औरत की शक्ल के बारे में गहरा मतभेद था। वह गाँव की देहाती लड़कियों में से किसकी थी, यह अभी तय नहीं हो पाया था।

वैसे सबसे ज़्यादा जोर-शोर वाले विज्ञापन खेती के लिए नहीं, मलेरिया के बारे में थे। जगह-जगह मकानों की दीवारों पर गेरू से लिखा गया था कि "मलेरिया को खत्म करने में हमरी मदद करो, मच्छरों को समाप्त हो जाने दो।" यहाँ भी यह मान कर चल गया था कि किसान गाय-भैंस की तरह मच्छर भी पालने को उत्सुक हैं और उन्हें मारने के पहले किसानों का हृदय-परिवर्तन करना पड़ेगा। हृदय-परिवर्तन के लिए रोब की जरूरत है, रोब के लिए अंग्रेजी की जरूरत है - इस भारतीय तर्क पद्धति के हिसाब से मच्छर मारने और मलेरिया उन्मूलन में सहायता करने की सभी अपीलें प्रायः अंग्रेजी में लिखी गयी थीं। इसीलिए प्रायः सभी लोगों ने इनको कविता के रूप में नहीं, चित्रकला के रूप में स्वीकार किया था और गेरू से दीवार रंगने वालों को मनमानी अंग्रेजी लिखने की छूट दे दी थी। दीवारें रंगती जाती थीं, मच्छर मरते जाते थे। कुत्ते भूँका करते थे, लोग अपनी राह चलते रहते थे।
हृदय-परिवर्तन के लिए रोब की जरूरत है, रोब के लिए अंग्रेजी की जरूरत है - इस भारतीय तर्क पद्धति के हिसाब से मच्छर मारने और मलेरिया उन्मूलन में सहायता करने की सभी अपीलें प्रायः अंग्रेजी में लिखी गयी थीं।

एक विज्ञापन भोले-भाले ढंग से बताता था कि हमें पैसा बचाना चहिए। पैसा बचाने की बात गांववालों को उनके पूर्वज मरने के पहले ही बता गये थे और लगभग प्रत्येक आदमी को अच्छी तरह मालूम थी। इसमें सिर्फ़ इतनी नवीनता थी कि यहाँ भी देश का जिक्र था, कहीं-कहीं इशारा किया गया था कि अगर तुम अपने लिए पैसा नहीं बचा सकते तो देश के लिए बचाओ। बात बहुत ठीक थी, क्योंकि सेठ-साहूकार, बड़े-बड़े ओहदेदार, वकील डाक्टर - ये सब तो अपने लिए पैसा बचा ही रहे थे, इसलिए छोटे-छोटे किसानों को देश के लिए पैसा बचाने में क्या ऐतराज हो सकता था ! सभी इस बात से सिद्धान्तरूप में सहमत थे कि पैसा बचाना चाहिए। पैसा बचाकर किस तरह कहाँ जमा किया जायेगा, ये बातें भी विज्ञापनों और लेक्चरों में साफतौर से बतायी गयी थीं और लोगों को उनसे भी कोई आपत्ति न थी। सिर्फ़ लोगों को यही नहीं बताया गया था कि कुछ बचाने के पहले तुम्हारी मेहनत के एवज़ में तुम्हे कितना पैसा मिलना चाहिए। पैसे की बचत का सवाल आमदनी और खर्च से जुड़ा हुआ है, इस छोटी सी बात को छोड़कर बाकी सभी बातों पर इन विज्ञापनों में विचार कर लिया गया था और लोगों ने इनको इस भाव से स्वीकार कर लिया था कि ये बिचारे दीवार पर चुपचाप चिपके हुए हैं, न दाना माँगते हैं, न चारा, न कुछ लेते हैं न देते हैं। चलो इन तस्वीरों को छेड़ो नहीं।


पर रंगनाथ को जिन विज्ञापनों ने अपनी ओर खींचा, वे पब्लिक सेक्टर के विज्ञापन न थे, प्राइवेट सेक्टर की देन थे। उनसे प्रकट होने वली बातें कुछ इस प्रकार थी: "उस क्षेत्र में सबसे ज्यादा व्यापक रोग दाद है, एक ऐसी दवा है जिसको दाद पर लगाया जाये तो उसे जड़ से आराम पहुँचता है, मुँह से खाया जाये तो खाँसी-जुकाम दूर होता है, बताशे में डालकर पानी से निगल लिया जाये तो हैजे में लाभ पहुँचता है। ऐसी दवा दुनिया में कहीं नहीं पायी जाती। उसके अविष्कारक अभी तक जिंदा हैं, यह विलायत वालों की शरारत है कि उन्हे आज तक नोबल पुरस्कार नहीं मिला है"।


इस देश में और भी बड़े बड़े डॉक्टर हैं जिनको नोबल पुरस्कार नहीं मिला है। एक कस्बा जहानाबाद में रहते हैं और चूँकि वहाँ बिजली आ चुकी है, इसलिए वे नामर्दी का इलाज बिजली से करते हैं। अब नामर्दों को परेशान होने की जरूरत नहीं है। एक दूसरे डॉक्टर, जो कम-से-कम भारतवर्ष-भर में तो मशहूर हैं ही, बिना ऑपरेशन के अण्ड-वृद्धि का इलाज करते हैं। और यह बात शिवपालगंज में किसी भी दीवार पर तारकोल के हरूफ़ में लिखी हुई पायी जा सकती है। वैसे बहुत से विज्ञापन बच्चों में सूखा रोग, आँखों की बीमारी और पेचिश आदि से भी सम्बद्ध हैं, पर असली रोग संख्या में कुल तीन ही हैं- दाद, अण्डवृद्धि और नामर्दी; और इनके इलाज की तरकीब शिवपालगंज के लड़के अक्षर-ज्ञान पा लेने के बाद ही दीवारों पर अंकित लेखों के सहारे जानना शुरू कर देते हैं।

विज्ञापनों की इस भीड़ में वैद्यजी का विज्ञापन 'नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश' अपना अलग व्यक्तित्व रखता था। वह दीवारों पर लिखे 'नामर्दी के बिजली से इलाज' जैसे अश्लील लेखों के मुकाबले में नहीं आता था। वह छोटे छोटे नुक्कड़ों, दुकानों और सरकारी इमारतों पर - जिनके पास पेशाब करना और जिन पर विज्ञापन चिपकाना मना था - टीन की खूबसूरत तख्तियों पर लाल-हरे अक्षरों में प्रकट होता था और सिर्फ इतना कहता था, 'नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश' नीचे वैद्यजी का नाम था और उनसे मिलने की सलाह थी।

एक दिन रंगनाथ ने देखा, रोगों की चिकित्सा में एक नया आयाम जुड़ रहा है। सवेरे से ही कुछ लोग दीवार पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख रहे हैं : बवसीर ! शिवपालगंज की उन्नति का लक्षण था। बवासीर के चार आदमकद अक्षर चिल्लाकर कह रहे थे कि यहाँ पेचिश का युग समाप्त हो गया है, मुलायम तबीयत, दफ़्तर की कुर्सी, शिष्टतापूर्ण रहन-सहन, चौबीस घण्टे चलनेवाले खान-पान और हल्के परिश्रम का युग धीरे-धीरे संक्रमण कर रहा है और आधुनिकता के प्रतीक-जैसे बवासीर सर्वव्यापी नामर्दी का मुकाबला करने के लिये मैदान में आ रही है। शाम तक वह दैत्याकार विज्ञापन एक दीवार पर रंग-बिरंगी छाप छोड़ चुका था और दूर दूर तक ऐलान करने लगा था : बवासीर का शर्तिया इलाज !

देखते-देखते चार-छः दिन मे ही सारा जमाना बवासीर और उसके शर्तिया इलाज के नीचे दब गया। हर जगह वही विज्ञापन चमकने लगा। रंगनाथ को सबसे बड़ा अचम्भा तब हुआ जब उसने देखा, वही विज्ञापन एक दैनिक समाचार-पत्र में आ गया है। यह समाचारपत्र रोज़ दस बजे दिन तक शहर से शिवपालगंज आता था और लोगों को बताने में सहायक होता था कि स्कूटर और ट्रक कहाँ भिड़ा, अब्बासी नामक कथित गुण्डे ने इरशाद नामक कथित सब्जी-फरोश पर कथित छुरी से कहाँ कथित रूप से वार किया। रंगनाथ ने देखा कि उस दिन अखबार के पहले पृष्ठ का एक बहुत बड़ा हिस्सा काले रंग में रंगा हुआ है और उस पर बड़े-बड़े सफेद अक्षरों में चमक रहा है : बवासीर ! अक्षरों की बनावट वही है जो यहाँ दीवारों पर लिखे विज्ञापन में है। उन अक्षरों ने बवासीर को एक नया रूप दे दिया था, जिसके कारण आसपास की सभी चीजें बवासीर की मातहती में आ गयी थीं। काली पृष्ठभूमि में अखबार के पन्ने पर चमकता हुआ 'बवासीर' दूर से ही आदमी को अपने में समेट लेता था। यहां तक कि सनीचर, जिसे बड़े-बड़े अक्षर पढ़ने में भी आंतरिक कष्ट होता था, अखबार के पास खिंच आया और उस पर निगाह गड़ाकर बैठ गया। बहुत देर तक गौर करने के बाद वह रंगनाथ से बोला, "वही चीज है।"

इसमें अभिमान की खनक थी। मतलब यह था कि शिवपालगंज की दीवारों पर चमकने वले विज्ञापन कोई मामूली चीज़ नहीं हैं। ये बाहर अख़बारों में छपते हैं, और इस तरह जो शिवपालगंज में है, वही बाहर अख़बारों में है।

रंगनाथ तख्त पर बैठा रहा। उसके सामने अख़बार का पन्ना तिरछा होकर पड़ा था। अमरीका ने एक नया उपग्रह छोड़ा था, पाकिस्तान-भारत सीमा पर गोलियां चल रही थीं, गेहूँ की कमी के कारण राज्यों का कोटा कम किया जाने वाला था, सुरक्षा-समिति में दक्षिण अफ्रीका के कुछ मसलों पर बहस हो रही थी, इन सब अबाबीलों को अपने पंजे में किसी दैत्याकार बाज़ की तरह दबाकर वह काला-सफेद विज्ञापन अपने तिरछे हरूफ में चीख रहा था: बवासीर ! बवासीर ! इस विज्ञापन के अखबार में छपते ही बवासीर शिवपालगंज और अन्तर्र्राष्ट्रीय जगत के बीच सम्पर्क का एक सफल माध्यम बन चुकी थी।

डाकुओं का आदेश था कि एक विशेष तिथि को विशेष स्थान पर जाकर रामाधीन की तरफ से रुपये की थैली एकान्त में रख दी जाये। डाका डालने की यह पद्धति आज भी देश के कुछ हिस्सों में काफी लोकप्रिय है। पर वास्तव में है यह मध्यकालीन ही, क्योंकि इसके लिये चांदी या गिलट के रुपये और थैली का होना आवश्यक है, जबकि आजकल रुपया नोटों की शक्ल में दिया जा सकता है और पांच हजार रुपये प्रेम-पत्र की तरह किसी लिफाफे में भी आ सकते हैं। ज़रूरत पड़ने पर चेक से भी रुपयों का भुगतान किया जा सकता है। इन कारणों से परसों रात अमुक टीले पर पांच हजार रुपये की थैली रखकर चुपचाप चले जाओ, यह आदेश मानने में व्यावहारिक कठिनाइयां हो सकती हैं। टीले पर छोड़ा हुआ नोटों का लिफाफा हवा में उड़ सकता है, चेक जाली हो सकता है। संक्षेप में, जैसे कला, साहित्य, प्रशासन, शिक्षा आदि के क्षेत्रों में, वैसे ही डकैती के क्षेत्र में भी मध्यकलीन पद्धतियों को आधुनिक युग में लागू करने से व्यावहारिक कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं।
थे।
जैसे कला, साहित्य, प्रशासन, शिक्षा आदि के क्षेत्रों में, वैसे ही डकैती के क्षेत्र में भी मध्यकलीन पद्धतियों को आधुनिक युग में लागू करने से व्यावहारिक कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं।
थे।

जो भी हो, डकैतों ने इन बातों पर विचार नहीं किया था क्योंकि रामाधीन के यहां डाके की चिट्ठी भेजने वाले असली डकैत न थे। उन दिनों गांव-सभा और कॉलेज की राजनीति को लेकर रामाधीन भीखमखेड़वी और वैद्यजी में कुछ तनातनी हो गयी थी। अगर शहर होता और राजनीति ऊँचे दरजे की होती तो ऐसे मौके पर रामाधीन के खिलाफ किसी महिला की तरफ से पुलिस में यह रिपोर्ट आ गयी होती उन्होंने उसका शीलभंग करने की सक्रिय चेष्टा की, पर महिला के सक्रिय विरोध के कारण वे कुछ नहीं कर पाये और वह अपना शील समूचा-का-समूचा लिये हुए सीधे थाने तक आ गयी। पर यह देहात था जहां अभी महिलाओं के शीलभंग को राजनीतिक युद्ध में हैण्डग्रेनेड की मान्यता नहीं मिली थी, इसीलिए वहां कुछ पुरानी तरकीबों का ही प्रयोग किया गया था और बाबू रामाधीन के ऊपर डाकुओं का संकट पैदा करके उन्हें कुछ दिन तिलमिलाने के लिये छोड़ दिया गया था।

पुलिस, रामाधीन भीखमखेड़वी और वैद्यजी का पूरा गिरोह- ये सभी जानते थे कि चिट्ठी फर्जी है। ऐसी चिट्ठियां कई बार कई लोगों के पास आ चुकी थीं। इसलिए रामाधीन पर यह मजबूरी नहीं थी कि वह नीयत तिथि और समय पर रुपये के साथ टीले पर पहुंच जाये। चिट्ठी फर्जी न होती, तब भी रामाधीन शायद चुपचाप रुपया दे देने के मुकाबले घर पर डाका डलवा लेना ज्यादा अच्छा समझते। पर चूंकि रिपोर्ट थाने में दर्ज हो गयी थी, इसलिए पुलिस अपनी ओर से कुछ करने को मजबूर थी।

उस दिन टीले से लेकर गांव तक का स्टेज पुलिस के लिये समर्पित कर दिया गया और उसमें वे डाकू-डाकू का खेल खेलते रहे। टीले पर तो एक थाना-का-थाना ही खुल गया। उन्होंने आसपास के ऊसर, जंगल, खेत-खलिहान सभी कुछ छान डाले, पर डाकुओं का कहीं निशान नहीं मिला। टीले के पास उन्होने पेड़ों की टहनियां हिला कर, लोमड़ियों के बिलों में संगीनें घुसेड़कर और सपाट जगहों को अपनी आंखों से हिप्नोटाइज़ करके इत्मिनान कर लिया कि वहां जो है, वे डाकू नहीं हैं; क्रमशः चिड़ियां, लोमड़ियां और कीड़े मकोड़े हैं। रात को जब बड़े जोर से कुछ प्राणी चिल्लाये तो पता चला कि वे भी डाकू नहीं, सियार हैं और पड़ोस के बाग टीले में जब दूसरे प्राणी बोले तो कुछ देर बाद समझ आ गया कि वे कुछ नहीं, सिर्फ चमगादड़ हैं। उस रात डाकुओं और रामाधीन भीखमखेड़वी के बीच की कुश्ती बराबर पर छूटी, क्योंकि टीले पर न डाकू रुपया लेने के लिये आये और न रामाधीन देने के लिये गये।

उस रात डाकुओं और रामाधीन भीखमखेड़वी के बीच की कुश्ती बराबर पर छूटी, क्योंकि टीले पर न डाकू रुपया लेने के लिये आये और न रामाधीन देने के लिये गये।

थाने के छोटे दरोगा को नौकरी पर आये अभी थोड़े ही दिन हुए थे। टीले पर डाकुओं को पकड़ने का काम उन्हें ही सौंपा गया था, पर सब कुछ करने पर भी वे अपनी माँ को भेजे जाने वाली चिट्ठियों की अगली किश्त में यह लिखने लायक नहीं हुए थे कि माँ, डाकुओं ने मशीनगन तक का इस्तेमाल किया, पर इस भयंकर गोलीकाण्ड में भी तेरे आशीर्वाद से तेरे बेटे का बाल तक बाँका नहीं हुआ। वे रात को लगभग एक बजे टीले से उतरकर मैदान में आये; और चूंकि सर्दी होने लगी थी और अंधेरा था और उन्हे अपनी नगरवासिनी प्रिया की याद आने लगी थी और चूंकि उन्होंने बी. ए. में हिन्दी-साहित्य भी पढ़ा था; इन सब मिले-जुले कारणों से उन्होंने धीरे धीरे कुछ गुनगुनाना शुरू कर दिया और आखिर में गाने लगे, "हाय मेरा दिल ! हाय मेरा दिल !

'तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर' वाली कहावत को चरितार्थ करते उनके आगे भी दो सिपाही थे और पीछे भी। दरोगाजी गाते रहे और सिपही सोचते रहे कि कोई बात नहीं, कुछ दिनों में ठीक हो जायेंगे। मैदान पार करते करते दरोगा जी का गाना कुछ बुलन्दी पर चढ़ गया और साबित करने लगा कि जो बात इतनी बेवकूफी की है कि कही नहीं जा सकती, वह बड़े मजे से गायी जा सकती है।

सड़क पास आ गयी थी। वहीं एक गड्ढे से अचानक आवाज आयी, "कर्फ़ोन है सर्फाला?" दरोगाजी का हाथ अपने रिवाल्वर पर चला गया। सिपहियों ने ठिठक कर राईफलें संभाली; तब तक गड्ढे ने दोबारा आवाज दी "कर्फ़ोन है सर्फाला?"

एक सिपाही ने दरोगाजी के कान में कहा, "गोली चल सकती है। पेड़ के पीछे हो लिया जाये हुजूर!"

पेड़ उनके पास से लगभग पांच गज की दूरी पर था। दरोगाजी ने सिपाही से फुसफुसा कर कहा, "तुम लोग पेड़ के पीछे हो जाओ। मैं देखता हूं।"

इतना कहकर उन्होंने कहा, "गड्ढे में कौन है? जो कोई भी हो बाहर आ जाओ।" फिर एक सिनेमा में देखे दृश्य को याद करके उन्होंने बात जोड़ी, "तुम लोग घिर गये हो। तुम आघे मिनट में बाहर न आये तो गोली चला दी जायेगी।"

गड्ढे में थोड़ी देर खामोशी रही, फिर आवाज आयी, "मर्फ़र गर्फ़ये सर्फ़ाले, गर्फ़ोली चर्फ़लानेवाले।"

प्रत्येक भारतीय, जो अपना घर छोड़कर बाहर निकलता है, भाषा के मामले में पत्थर हो जाता है। इतनी तरह की बोलियां उसके कानों में पड़ती हैं कि बाद में हारकर वह सोचना ही छोड़ देता है कि यह नेपाली है या गुजराती। पर इस भाषा ने दरोगाजॊ को चौकन्ना बना दिया और वे सोचने लगे कि क्या मामला है ! इतना तो समझ में आता है कि इसमें कोई गाली है, पर यह क्यों नही समझ में आता कि यह कौन सी बोली है ! इसके बाद ही जहां बात समझ से बाहर होती है वहीं गोली चलती है - इस अन्तर्राष्ट्रिय सिद्धान्त का शिवपालगंज में प्रयोग करते हुए दरोगाजी ने रिवाल्वर तान लिया और कड़ककर बोले, "गड्ढे से बाहर आ जाओ, नहीं तो मैं गोली चलाता हूं।"

पर गोली चलाने की जरूरत नहीं पड़ी। एक सिपाही ने पेड़ के पीछे से निकल कर कहा, "गोली मत चलाइए हजूर, यह जोगनथवा है। पीकर गद्ढे में पड़ा है।"

सिपाही लोग उत्साह से गद्ढे को घेर कर खड़े हो गए। दरोगाजी ने कहा, " कौन जोगनथवा ?"

एक पुराने सिपाही ने तजुर्बे के साथ कहना शुरू किया, "यह श्री रामनाथ का पुत्र जोगनाथ है। अकेला आदमी है। दारू ज्यादा पीता है।"

लोगों ने जोगनाथ को उठाकर उसके पैरों पर खड़ा किया, पर जो खुद अपने पैरों पर खड़ा नहीं होना चाहता उसे दूसरे कहां तक खड़ा करते रहेंगे ! इसलिए वह लड़खड़ा कर एक बार फिर गिरने को हुआ, बीच में रोका गया और अंत में गड्ढे के ऊपर आकर परमहंसों की तरह बैठ गया। बैठकर जब उसने आंखें मिला-मिला कर, हाथ हिलाकर चमगादड़ों और सियारों की कुछ आवाजें गले से निकालकर अपने को मानवीय स्तर पर बात करने लायक बनाया, तो उसके मुंह से फिर वही शब्द निकले, "कर्फ़ोन है सर्फाला?"

दरोगाजी ने पूछा, "यह बोली कौन सी है?"

एक सिपाही ने कहा, "बोली ही से तो हमने पहचाना कि जोगनाथ है। यह सर्फ़री बोली बोलता है। इस वक्त होश में नही है, इसलिए गालॊ बक रहा है।"

दरोगाजी शायद गाली देने के प्रति जोगनाथ की इस निष्ठा से बहुत प्रभावित हुए कि वह बेहोशी की हालत में भी कम से कम इतना तो कर ही रहा है। उन्होने उसकी गरदन जोर से हिलायी और पकड़ कर बोले, "होश में आ!"

पर जोगनाथ ने होश में आने से इन्कार कर दिया। सिर्फ इतना कहा, "सर्फ़ाले!"
सिपाही हंसने लगे। जिसने उसे पहले पहचाना था, उसने जोगनाथ के कान में चिल्ला कर कहा, "जर्फ़ोगनाथ, हर्फ़ोश में अर्फ़ाओ।"

इसकी भी जोगनाथ पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई; पर दरोगाजी ने एकदम से सर्फ़री बोली सीख ली। उन्होंने मुस्कुराकर कहा, "यह साला हम लोगों को साला कह रहा है।"
उन्होने उसे मारने के लिये अपना हाथ उठाया, पर सिपाही ने रोक लिया। कहा, "जाने भी दें हजूर।"

दरोगाजी को सिपाहियों का मानवतावादी दृष्टिकोण कुछ पसन्द नहीं आ रहा था। उन्होंने अपना हाथ तो रोक लिया, पर आदेश देने के ढंग से कहा, "इसे अपने साथ ले जाओ और हवालात में बंद कर दो। दफा 109 जाब्ता फौजदारी लगा देना।"

एक सिपाही ने कहा, "यह नहीं हो पायेगा हुजूर ! यह यहीं का रहने वाला है। दीवरों पर इश्तिहार रंगा करता है और बात बात पर सर्फ़री बोली बोलता है। वैसे बदमाश है, पर दिखाने के लिये कुछ काम तो करता ही है।"

वे लोग जोगनाथ को उठा कर अपने पैरों पर चलने के लिये मजबूर करते हुए सड़क की और बढ़ने लगे। दरोगाजी ने कहा, " शायद पी कर गाली बक रहा है। किसी न किसी जुर्म की दफा निकल आयेगी। अभी चलकर इसे बन्द कर दो। कल चालान कर दिया जायेगा।"

उस सिपाही ने कहा, "हुजूर! बेमतलब झंझट में पड़ने से क्या फायदा? अभी गांव चलकर इसे इसके घर में ढकेल आयेंगे। इसे हवालात कैसे भेजा जा सकता है? वैद्यजी का आदमी है।"

दरोगाजी नौकरी में नये थे, पर सिपाहियों का मानवतावादी दृष्टिकोण अब वे एकदम समझ गये। वे कुछ नहीं बोले । सिपहियों से थोड़ा पीछे हटकर वे फिर अंधेरे, हल्की ठण्डक, नगरवासिनी प्रिया और 'हाय मेरा दिल' से सन्तोष खींचने की कोशिश करने लगे।

लेखक:श्रीलाल शुक्ल
टंकण सहयोग: जगदीश भाटिया


अध्याय:1 । 2 । 3 ।4 ।5 । 6 । 7 ।8 । 9। 10 । 11 । 12 । 13

Sunday, December 03, 2006

7. पुरुष बली नहिं होत है...

छत के ऊपर एक कमरा था जो हमेशा संयुक्त परिवार के पाठ्य पुस्तक जैसा खुला पड़ा रहता था। कोने मे रखी हुई मुगदरो की जोड़ी इस बात का ऐलान करती थी कि सरकारी तौर पर यह कमरा बद्री पहलवान का है। वैसे परिवार के दूसरे प्राणी भी कमरॆ का अपने-अपने ढंग से प्रयोग करते थे। घर की महिलायें कांच और मिट्टी के बरतनों मे ढेरों अचार भरकर छत पर धूप में रखती थीं ओर शाम होते-होते कमरे मे जमा कर देती थीं। यही हाल छत पर सूखनेवाले कपड़ों का भी था। कमरे के आर-पार एक रस्सी लटकती थी | जिस पर शाम के वक़्त लंगोट ओर चोलियां, अंगौछे और पेटीकोट साथ-साथ झूलते नजर आते थे। वैद्यजी के दवाखाने की अनावश्यक शीशियां भी कमरे की एक आलमारी में जमा थी। प्राय: सभी शीशियां खाली थीं। उन पर चिपके हुए सचित्र विज्ञापन 'इस्तेमाल के पहले' शीर्षक पर एक अर्धमानव की तस्वीर से और 'इस्तेमाल के बाद' शीर्षक के अन्तर्गत एक ऎसे आदमी की तस्वीर से, जिसकी मूंछे ऎठी हुई है, लंगोट कसा हुआ है और परिणामत: स्वास्थ्य बहुत अच्छा है, पता चलता था कि ये वही शीशियां है जो हजारों इन्सानों को शेर के मानिन्द बना देती हैं; यह दूसरी बात है कि वे अपने गुसलखाने और शयन-कक्ष में ही कमर लपलपाते हुए शेर की तरह घूमा करते है, बाहर बकरी-के-बकरी बने रहते हैं।

एक साहित्य है जो गुप्त कहलाता है, जो भारत मे अंग्रेजी राज जैसी पुस्तकों से भी ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि
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