1. जाना रंगनाथ का शिवपालगंज
सड़क के एक ऒर पेट्रोल-स्टेशन था; दूसरी ऒर छ्प्परों, लकड़ी और टीन के सड़े टुकड़ों और स्थानीय क्षमता के अनुसार निकलने वाले कबाड़ की मदद से खड़ी की हुई दुकानें थीं। पहली निगाह में ही मालूम हो जाता था कि दुकानों की गिनती नहीं हो सकती। प्राय: सभी में जनता का एक मनपसन्द पेय मिलता था जिसे वहां गर्द, चीकट, चाय, की कई बार इस्तेमाल की हुई पत्ती और खौलते पानी आदि के सहारे बनाया जाता था। उनमें मिठाइयां भी थीं जो दिन-रात आंधी-पानी और मक्खी-मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं। वे हमारे देशी कारीगरों के हस्तकौशल और वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देती थीं। वे बताती थीं कि हमें एक अच्छा रेजर-ब्लेड बनाने का नुस्ख़ा भले ही न मालूम हो, पर कूड़े को स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों में बदल देने की तरकीब दुनिया में अकेले हमीं को आती है।
ट्रक के ड्राइवर और क्लीनर एक दुकान के सामने खड़े चाय पी रहे थे।
रंगनाथ ने दूर से इस ट्रक को देखा और देखते ही उसके पैर तेजी से चलने लगे।
जब वह ट्रक के पास पहुंचा, क्लीनर और ड्राइवर चाय की आखिरी चुस्कियां ले रहे थे। इधर-उधर ताककर, अपनी खिली हुई बाछों को छिपाते हुये, उसने ड्राइवर से निर्विकार ढंग से पूछा, "क्यों ड्राइवर साहब, यह ट्रक क्या शिवपालगंज की तरफ जायेगा?"
ड्राइवर के पीने को चाय थी और देखने को दुकानदारिन थी। उसने लापरवाही से जवाब दिया-"जायेगा।"
"हमें भी ले चलियेगा अपने साथ? पन्द्रहवें मील पर उतर पड़ेंगे। शिवपालगंज तक जाना है।"
ड्राइवर ने दुकानदारिन की सारी सम्भावनायें एक साथ देख डालीं और अपनी निगाह रंगनाथ की ऒर घुमाई। अहा! क्या हुलिया था। नवकंजलोचन कंजमुख करकंज पद कंजारुणम! पैर खद्दर के पैजामे में, सिर खद्दर की टोपी में, बदन खद्दर के कुर्ते में।
कन्धे से लटकता हुआ भूदानी झोला। हाथ में चमड़े की अटैची। ड्राइवर ने उसे देखा और देखता ही रह गया। फिर कुछ सोचकर बोला," बैठ जाइये शिरिमानजी, अभी चलते हैं।"
घरघराकर ट्रक चला। शहर की टेढ़ी-मेढ़ी लपेट से फुरसत पाकर कुछ दूर आगे साफ और वीरान सड़क आ गयी। यहां ड्राइवर ने पहली बार टाप गियर का प्रयोग किया, पर वह फिसल-फिसलकर न्यूटरल में गिरने लगा। हर सौ गज के बाद गियर फिसल जाता और एक्सीलेटर दबे होने से ट्रक की घरघराहट बढ़ जाती, रफ़्तार धीमी हो जाती। रंगनाथ ने कहा,"ड्राइवर साहब, तुम्हारा गियर तो बिल्कुल अपने देश की हुकूमत-जैसा है।"
ड्राइवर ने मुस्कराकर वह प्रशंसा-पत्र ग्रहण किया। रंगनाथ ने अपनी बात साफ करने की कोशिश की। कहा, उसे चाहे जितनी बार टाप गियर पर डाल दो, दो गज चलते ही फिसल जाती है और लौटकर अपने खांचे में आ जाती है।
ड्राइवर हंसा। बोला,"ऊंची बात कह दी शिरिमानजी ने।"
इस बार उसने गियर को टाप में डालकर अपनी एक टांग लगभग नब्बे अंश के कोण पर उठायी और गियर को जांघ के नीचे दबा लिया। रंगनाथ ने कहना चाहा कि हुकूमत को चलाने का भी यही नुस्खा़ है, पर यह सोचकर कि बात ज़रा ऊंची हो जायेगी, वह चुप बैठा रहा।
उधर ड्राइवर ने अपनी जांघ गियर से हटाकर यथास्थान वापस पहुंचा दी थी। गियर पर उसने एक लम्बी लकड़ी लगा दी और उसका एक सिरा पेनल के नीचे ठोंक दिया। ट्रक तेजी से चलता रहा। उसे देखते ही साइकिल-सवार, पैदल, इक्के- सभी सवारियां कई फर्लांग पहले ही से खौफ के मारे सड़क से उतरकर नीचे चली जातीं। जिस तेजी से वे भाग रहीं थी, उससे लगता था कि उनकी निगाह में वह ट्रक नहीं है; वह आग की लहर है, बंगाल की खाड़ी से उठा हुआ तूफ़ान है, जनता पर छोड़ा हुआ कोई बदकलाम अहलकार है, पिडारियों का गिरोह है। रंगनाथ ने सोचा, उसे पहले ही ऐलान करा देना था कि अपने-अपने जानवर और बच्चे घरों में बंद कर लो, शहर से अभी-अभी एक ट्रक छूटा है।
तब तक ड्राइवर ने पूछा, "कहिए शिरिमानजी! क्या हालचाल हैं? बहुत दिन बाद देहात की ऒर जा रहे हैं!"
रंगनाथ ने शिष्टाचार की इस कोशिश को मुस्कराकर बढ़ावा दिया। ड्राइवर ने कहा,"शिरिमानजी, आजकल क्या कर रहे हैं?"
"घास खोद रहा हूं।"
"कहा तो घास खोद रहा हूं। इसी को अंग्रेजी में रिसर्च कहते हैं। परसाल एम.ए. किया था। इस साल रिसर्च शुरू की है।"
ड्राइवर जैसे अलिफ़-लैला की कहानियां सुन रहा हो, मुस्कराता हुआ बोला," और शिरिमानजी, शिवपालगंज क्या करने जा रहे हैं?"
"वहां मेरे मामा रहते हैं। बीमार पड़ गया था। कुछ दिन देहात मॆं जाकर तन्दुरुस्ती बनाऊंगा।"
इस बार ड्राइवर काफ़ी देर तक हंसता रहा। बोला,"क्या बात बनायी है शिरिमानजी ने!"
रंगनाथ ने उसकी ओर सन्देह से देखते हुये पूछा,"जी! इसमें बात बनाने की क्या बात?"
वह इस मासूमियत पर लोट-पोट हो गया। पहले ही की तरह हंसते हुये बोला, "क्या कहने हैं! अच्छा जी,छोड़िये भी इस बात को। बताइए, मित्तल साहब के क्या हाल हैं? क्या हुआ उस हवालाती के ख़ूनवाले मामले का?"
रंगनाथ का खून सूख गया। भर्राये गले से बोला, "अजी मैं क्या जानूं यह मित्तल कौन है!"
ड्राइवर की हंसी को ब्रेक लग गया। ट्रक की रफ़्तार भी कुछ कम पड़ गयी। उसने रंगनाथ को एक बार गौर से देखकर पूछा,"आप मित्तल साहब को नहीं जानते?"
"नहीं।"
"जैन साहब को?"
"नहीं।"
ड्राइवर ने खिड़की के बाहर थूक दिया और साफ़ आवाज में सवाल किया,"आप सी.आई.डी. में काम नहीं करते?"
रंगनाथ ने झुंझलाकर कहा,"सी.आई.डी.? यह किस चिड़िया का नाम है?"
ड्राइवर से जोर की सांस छोड़ी और सामने सड़क की दशा का निरीक्षण करने लगा।
रंगनाथ इन हमलों से लड़खड़ा गया था। पर उसने इस बात को मामूली जांच-पड़ताल का सवाल मानकर सरलता से जवाब दिया,"खद्दर तो आजकल सभी पहनते हैं।"
"अजी कोई तुक का आदमी तो पहनता नहीं।" कहकर उसने दुबारा खिड़की के बाहर थूका और गियर को टाप में डाल दिया।
रंगनाथ का पर्सनालिटी कल्ट समाप्त हो गया। थोड़ी देर वह चुपचाप बैठा रहा। बाद में मुंह से सीटी बजाने लगा। ड्राइवर ने उसे कुहनी से हिलाकर कहा,"देखो जी, चुपचाप बैठो, यह कीर्तन की जगह नहीं है।"
रंगनाथ चुप हो गया। तभी ड्राइवर ने झुंझलाकर कहा,"यह गियर बार-बार फिसलकर न्यूट्रल ही में घुसता है। देख क्या रहे हो? ज़रा पकड़े रहो जी। थोड़ी देर में उसने दुबारा झुंझलाकर कहा,"ऐसे नहीं इस तरह! दबाकर ठीक से पकड़े रहो।
ट्रक के पीछे काफ़ी देर से हार्न बजता आ रहा था। रंगनाथ उसे सुनता रहा था और ड्राइवर उसे अनसुना करता रहा था और ड्राइवर उसे अनसुना करता रहा था। कुछ देर बाद पीछे से क्लीनर ने लटककर ड्राइवर की कनपटी के पास खिड़की पर खट-खट करना शुरू कर दिया। ट्रकवालों की भाषा में इस कार्रवाई का निश्चित ही कोई खौफ़नाक मतलब होगा, क्योंकि उसी वक्त ड्राइवर ने रफ़्तार कम कर दी और ट्रक को सड़क की बायीं पटरी पर कर लिया।
हार्न की आवाज़ एक ऐसे स्टेशन-वैगन से आ रही थी जो आजकल विदेशों के आशीर्वाद से सैकड़ों की संख्या में यहां देश की प्रगति के लिये इस्तेमाल होते हैं और हर सड़क पर हर वक्त देखे जा सकते हैं। स्टेशन-वैगन दायें से निकलकर आगे धीमा पड़ गया और उससे बाहर निकले हुये एक खाकी हाथ ने ट्रक को रुकने का इशारा दिया। दोनों गाड़ियां रुक गयीं।
रंगनाथ एक दूसरे पेड़ के नीचे जाकर खड़ा हो गया। उधर ड्राइवर और चेकिंग जत्थे में ट्रक के एक-एक पुर्जे को लेकर बहस चल रही थी। देखते-देखते बहस पुर्जों से फिसलकर देश की सामान्य दशा और आर्थिक दुरवस्था पर आ गयी और थोड़ी ही देर में उपस्थित लोगों की छोटी-छोटी उपसमितियां बन गयीं। वे अलग-अलग पेड़ों के नीचे एक-एक विषय पर विशेषज्ञ की हैसियत से विचार करने लगीं। काफ़ी बहस हो जाने के बाद एक पेड़ के नीचे खुला अधिवेशन जैसा होने लगा और कुछ देर में जान पड़ा, गोष्ठी खत्म होने वाली है।
आखिर में रंगनाथ को अफ़सर की मिमियाती हुयी आवाज़ सुनायी पड़ी, "क्यों मियां अशफ़ाक, क्या राय है? माफ़ किया जाये?"
चपरासी ने कहा, "और कर ही क्या सकते हैं हुजूर? कहां तक चालान कीजियेगा। एकाध गड़बड़ी हो तो चालान भी करें।
एक सिपाही ने कहा, " चार्जशीट भरते-भरते सुबह हो जायेगी।"
इधर-उधर की बातों के बाद अफ़सर ने कहा, " अच्छा जाओ जी बंटासिंह, तुम्हें माफ़ किया।"
ड्राइवर ने खुशामद के साथ कहा, "ऐसा काम शिरिमानजी ही कर सकते हैं।"
अफ़सर काफ़ी देर से दूसरे पेड़ के नीचे खड़े हुये रंगनाथ की ओर देख रहा था। सिगरेट सुलगाता हुआ वह वह उसकी ऒर आया । पास आकर पूछा, "आप भी इसी ट्रक पर जा रहे हैं?"
"जी हां।"
"आपसे इसने कुछ किराया तो नहीं लिया है?"
"जी, नहीं।"
अफ़सर बोला, "वह तो मैं आपकी पोशाक ही देखकर समझ गया था, पर जांच करना मेरा फ़र्ज था।"
रंगनाथ ने उसे चिढा़ने के लिये कहा, "यह असली खादी थोड़े ही है। यह मिल की खादी है।"
उसने इज्जत के साथ कहा, "अरे साहब, खादी तो खादी! उसमें असली-नकली का क्या फर्क?"
अफ़सर के चले जाने के बाद ड्राइवर और चपरासी रंगनाथ के पास आये। ड्राइवर ने कहा, "ज़रा दो रुपये तो निकालना जी।"
उसने मुंह फेरकर कड़ाई से कहा, "क्या मतलब है? मैं रुपया क्यों दूं?"
ड्रायवर ने चपरासी का हाथ पकड़कर कहा, "आइये शिरिमानजी, मेरे साथ आइये। जाते-जाते वह रंगनाथ से कहने लगा। तुम्हारी ही वजह से मेरी चेकिंग हुई। और तुम्ही मुसीबत में मुझमे इस तरह से बात करते हो? तुम्हारी यही तालीम है?"
वर्तमान शिक्षा-पद्धति रास्ते में पड़ी हुयी कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।
कहते-कहते उसकी आवाज में सन्यासियों की खनक आ गयी जो पैसा हाथ से नहीं छूते, सिर्फ दूसरों को यह बताते हैं कि तुम्हारा पैसा हाथ का मैल है। चपरासी रुपयों को जेब में रखकर, बीड़ी का आखिरी कश खींचकर, उसका अधजला टुकड़ा लगभग रंगनाथ के पैजामे पर फेंककर स्टेशन-वैगन की ओर चला गया। उसके रवाना होने पर ड्राइवर ने भी ट्रक चलाया और पहले की तरह गियर को'टाप' में लेकर रंगनाथ को पकड़ा दिया।फिर अचानक,बिना किसी वजह के, वह मुंह को गोल-गोल बनाकर सीटी पर सिनेमा की एक धुन निकालने लगा। रंगनाथ चुपचाप सुनता रहा।
थोड़ी देर में ही धुंधलके में सड़क की पटरी पर दोनों ओर कुछ गठरियां-सी रखी हुई नजर आयीं। ये औरतें थीं, जो कतार बांधकर बैठी हुयी थीं। वे इत्मीनान से बातचीत करती हुयी वायु सेवन कर रहीं थीं और लगे हाथ मल-मूत्र विसर्जन भी। सड़क के नीचे घूरे पटे पड़े थे और उनकी बदबू के बोझ से शाम की हवा किसी गर्भवती की तरह अलसायी हुयी-सी चल रही थी। कुछ दूरी पर कुत्तों के भौंकने की आवजें हुईं। आंखों के आगे धुएं के जाले उड़ते हुये नज़र आये। इससे इन्कार नहीं हो सकता था कि वे किसी गांव के पास आ गये थे। यही शिवपालगंज था।
लेखक: श्रीलाल शुक्ल
टंकण सहयोग:अनूप शुक्लअध्याय:1 । 2 । 3 ।4 ।5 । 6 । 7 ।8 । 9। 10 । 11 । 12 । 13
18 Comments:
At 4:47 PM, Pramendra Pratap Singh said…
पूरी टीम बधाई की पात्र है। आप लोग निरंतर लगे रहे। शुभकामनाऐ
At 10:53 AM, रवि रतलामी said…
रागदरबारिया शुभकामनाएँ :)
At 11:13 AM, Neeraj Rohilla said…
रागदरबारी के अगले अंक की प्रतीक्षा करते करते आंखे तरस गयी हैं,
अब ये प्रतीक्षा की घड़ियां शीघ्र समाप्त हों, ऐसी आकांक्षा है|
At 6:07 PM, SHASHI SINGH said…
कल रात सपने में श्रीलाल शुक्लजी टकरा गये... मैंने फुरसतिया शुक्ल और निरंतरी चक्रवर्ती के इस प्रयास की जानकारी उन्हें दी. वे बड़े खुश हुये... मैंने भी मौका देखकर इस युगल के लिए उनका सहयोग मांग लिया. मगर मामला थोड़ा उल्टा पड़ने लगा. वे स्वर्ग प्रवास के दौरान लिखी अपनी पांडुलिपियों का हवाला देते हुए कहने लगे कि स्वर्ग में अच्छे टाइपिस्टों की किल्लत है... वे इस युगल की टाइपिंग स्पीड वगैरा लगे पूछने... इससे पहिले की वे आगे कुछ कहते मैंने बीच में उनकी बात काटते हुए कह दिया कि अभी धरती पर ही आपका लिखा पूरा टाइप नहीं हुआ है, स्वर्ग आने का तो अभी सवाल ही कहां पैदा होता.
अब बताइये भला... उनको भी मुफ्त का चंदन मिला तो लगे रगड़ने.
At 4:15 PM, Anonymous said…
very good
a lot of thanks u and ur team
i had read this book several time
thanking again
regard
dharm
pls write me a auther mr balwant singh whos novels is kale kosh ,
do akalgarh chakpeera ka jassa
i dont find this book on net
At 4:15 PM, Anonymous said…
very good
a lot of thanks u and ur team
i had read this book several time
thanking again
regard
dharm
pls write me a auther mr balwant singh whos novels is kale kosh ,
do akalgarh chakpeera ka jassa
i dont find this book on net
At 7:23 PM, Ashutosh Parashar said…
Thanks a lot for this great work. I have been looking for this book's ecopy for so long.
At 12:01 PM, Network said…
Hi, Thanks a lot for this work.It is a great work done by you. i thank again to whole team.
At 4:30 AM, Vishu said…
thnaks a lot frnds.After learning this novel, i always fond myself in serach of this type of litrature. i always search to get online "RAAG DARBARI", so that , i will share this to my frnds.
thanks a lot
At 6:37 PM, My Ghazals said…
Posting this Novel here is realy amazing and good job.
I want to say just Superb.
Thanks a lot for this
At 11:18 PM, vivek sharma "vivek" said…
wyang kise kaht ;rag darbari ko padkar jana ja sakta hai. bharat ki sachhchhi tawir prastut karti ye kitab aaj bhee prasngik hai,
iske liye puri teem badhai ki patra hai
At 10:47 PM, Unknown said…
hardik badhai..is prayas ke liye
At 2:19 AM, संतोष पाण्डेय said…
पूरी टीम बधाई की पात्र है।
At 4:03 PM, purushottam bajpai said…
धन्यवाद महापात्र जी, आपने तो मन कि मुराद ही पूरी कर दी , काफी दिनों से इसको पुनः पढ़ने का मन बना रहा था .....
At 11:48 AM, Unknown said…
पूरी टीम बधाई की पात्र है। आप लोग निरंतर लगे रहे। आपकी कोशिशों का ही ये फल है की आज कितने लोग आप की विचारधारा से जुड गए हैं
At 6:39 PM, दीपक बाबा said…
जय हो शुक्ल परम्परा... जय हो. श्री लाल शुक्ल से लेकर अपने अनूप शुक्ल तक जिन्होंने कल रात १ बजे तक इसी राग दरबारी में 'निशुल्क' फसाए रखा :)
अमा यार हर इंसान इंतनी कानपुरी फुर्सत में फुरसतिया नहीं होता. :)
जो भी हो, कल ही ये रागदरबारी हाथ में लगा था.. देर आयेद दुरुस्त आयेद.
रागदरबारी को इस मायाजाल में प्रस्तुत करने के लिए साधुवाद और आभार.
At 8:56 AM, Arvind Mishra said…
"तभी ड्राइवर ने झुंझलाकर कहा,"यह गियर बार-बार फिसलकर न्यूट्रल ही में घुसता है। देख क्या रहे हो? ज़रा पकड़े रहो जी। थोड़ी देर में उसने दुबारा झुंझलाकर कहा,"ऐसे नहीं इस तरह! दबाकर ठीक से पकड़े रहो।"
यह था उत्स जो मुझे अब भी याद है !
At 1:50 PM, Unknown said…
ये ब्लॉग अच्छा लग मुझे, जोगाड़-पानी की अच्छी व्यवस्था करै हो। पढ़ते है तो जईसन लगता है की हम भी उंहे पहुच गये हो।
Post a Comment
<< Home